Aouraten roti nahi - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

औरतें रोती नहीं - 12

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 12

मेरी जिंदगी के सौदागर

हैदराबाद एयरपोर्ट पर लैंडिंग से पहले उज्ज्वला एक तरह से होश में आ गई। अंदर का तापमान बीस डिग्री के आसपास था। ठंड सी लगी, तो अपने हाथों को जीन्स की जेब में डाल वह सीट पर टिक कर बैठ गई। कितना अच्छा लग रहा है यह सफर। शांत और तल्लीन। रास्ते में जरा सा खाया था उसने। अब भूख लग रही थी। पद्मजा से कहेगी, तो नाराज होगी कि तुम वक्त के पीछे चलती हो।

कोई बात नहीं। जरा सी भूख बर्दाश्त कर लेगी, तो क्या हो जाएगा। वैसे भी पद्मा टेंस्ड दिख रही है। अर्से बाद पिताजी से मिलने जा रही है, वो भी अचानक। परेशान है। वैसे तो उसका इरादा उन दोनों को लेकर घर जाने का है, पर अगर वहां ठीक-ठाक माहौल न हुआ तो वह सीधे होटल चली जाएगी। हैदराबाद देखा-भाला शहर है।

मन्नू का बड़ा मन है चारमीनार घूमकर मोती खरीदने और अटरम-शटरम खाने का। फिर रामोजी राव फिल्म सिटी भी जाने का मन है। पढ़ा है कि वहां एक साथ पचास फिल्मों की शूटिंग हो सकती है। इतना बड़ा कि अंदर दो भव्य होटल हैं, न जाने कितने बगीचे हैं। पहाड़, झरने, दरख्त... एक छोटा-मोटा शहर ही बसा है अंदर। उज्ज्वला सालारजंग म्यूजियम देखना चाहती है। गोलकुंडा जाने का मौका मिले, तो वो भी चूकना नहीं चाहती। मन्नू ने तो कहा ही था कि जब इतनी दूर इतना खर्चा करके आ गए हैं, तो कन्याकुमारी भी देख लेना चाहिए। वर्ना दक्षिण आने का मौका कब मिलेगा? यह सुनकर खूब हंसी थी पद्मा, ‘‘तुम नॉर्थ इंडियंस को साउथ का जरा भी आइडिया नहीं है। कहां हैदराबाद, कहां कन्याकुमारी। उसके लिए अलग से फिर कभी ट्रिप लगाएंगे।’’

मन्नू कुछ समझ नहीं पाई थी। अब उज्ज्वला को समझ आ रहा है कि हैदराबाद कितना अलग है लखनऊ, दिल्ली, गाजियाबाद या झांसी से। बस वह कुल जमा इन्हीं चार शहरों में रही या गई है।

विमान जब हैदराबाद के विश्वेश्वर्या एयरपोर्ट पर उतरा, तो शाम हो चुकी थी। सामान लेकर बाहर निले, तो देखा, हैदराबाद की सड़कों की सफाई और धुलाई चल रही है। पद्मजा ने बताया कि रात को ही इस शहर की सफाई की जाती है, ताकि सुबह जब लोग काम पर निकलें तो सड़कें साफ और धुली-पुछी लगे।

सबसे पहला झटका। अव्वा पिछले साल गुजर गई थीं। दादी नहीं रहीं। बहुत मुश्किल था यह यकीन करना। ‘‘मैंने अव्वा के साथ बहुत ज्यादती की है...’’ सबसे पहले पद्मा के दिमाग में यही बात आई। मन कच्चा-कच्चा सा हो उठा।

दूसरा झटका। नौकर ने बताया नानागारू और अम्मा बाहर गए हैं। कोट्टकल। दस दिन बाद लौटेंगे। नौकर नया था, पद्मा को नहीं पहचानता था। पद्मा चौंक गई, अम्मा कौन, नौकर ने भोलेपन से कहा, ‘‘साहब की पत्नी। हम उन्हें अम्मा कहते हैं।’’

पद्मा की सांस रुक गई। नानागारू किसके साथ रहते हैं? किसे कह रहा है नौकर अम्मा? उसने जानने की कोशिश की, कैसी दिखती हैं? कब से रहती हैं यहां? नौकर नया था। चार महीने से काम कर रहा था, वह कुछ भी नहीं बता पाया। यही नहीं, उसने साफ कह दिया कि नानागारू की इजाजत के बिना वह यहां नहीं रह सकती। पद्मा ने लाचारी से मन्नू और उज्ज्वला की तरफ देखा। कितने प्यार से वह उन दोनों को यहां लेकर आई थी। यहां तो लग रहा है कि लोग ही नहीं, घर भी उसका नहीं रहा।

अब...

घर से बाहर निकलते समय तीनों के मन में यही सवाल था। हैदराबाद के पॉश इलाके सोमगुड़ा में नानागारू के बंगले को हसरत से देखते हुई पद्मा बाहर खड़ी हो गई। रात की रानी की खुशबू को अपनी सांसों में घोलते हुए उसने रूमानी अंदाज में कहा, ‘‘पता है, सालों पहले मैंने और अम्मा ने यह पेड़ लगाया था।’’

बंगले के बाहर पोर्टिको में दोनों तरफ गुलाबी रंग का बोगनवेलिया पूरी शान से इठला रहा था। चांदनी रात में झूलते फूल कुछ अलग ही समां बांध रहे थे। उज्ज्वला थक गई थी। अब पेट गुड़गुड़ करने लगा था। उसने लाचारी से पूछा, ‘‘कहीं चल कर कुछ खा लें?’’

मन्नू ने उसे टोक दिया, ‘‘पहले हमारे रहने का इंतजाम तो हो जाए। रात हो रही है। पता नहीं कैसा शहर है? यहां कोई गुरुद्वारा तो होगा न? बोल पद्मा?’’

पद्मा न जाने क्या सोच रही थी। कौन है ये अम्मा? नानागारू के साथ कौन रहा हो? वे दस दिनों के लिए चले कहां गए? तो क्या उन्होंने दोबारा शादी कर ली? जब से वह मन्नू के घर रहने आई है, मम्मा से भी बात नहीं हुई। मन हुआ तुरंत कोलकाता मां को फोन लगाए। बीमार चल रही थीं वे।

पद्मा के मोबाइल पर कोलकाता का नंबर था। उसने लगाया। बहुत देर बाद किसी ने फोन उठाया। अभद्र स्वर में एक युवक ने कहा, ‘‘वॉट डू यू वॉन्ट? मोधुमिता यहां नहीं रहतीं। आई डोंट नो वेअर इज शी स्टे। आमाकी मोधुमिता ते सेक्रेटरी आश्ची न। फॉर यॉर काइंड इन्फॉर्मेशन वी हैव बॉट दिस फ्लैट। सो प्लीज डोंट डिस्टर्ब भी अगेन।’’

पद्मा का दिल बैठ गया। मम्मा ने अपना घर बेच दिया। क्यों? पैसे की इतनी क्या कमी थी? फिर खुद कहां चली गईं? ममा मोशाय के घर? मम्मा वहां कैसे रहती होंगी? मामी से उनकी जरा नहीं पटती। मामा खुद कहां कमाते हैं, जो अम्मा का ख्याल रखेंगे?

उसने मामा को फोन लगाया। फोन उठाया उनके बेटे बब्बन ने। पद्मा से कुछ ही महीने छोटा था बब्बन। पिता के नक्शे-कदम पर चल रहा था। कुछ कमाता-धमाता नहीं था। एकदम आवारा।

पद्मा की आवाज सुनकर हर्ष से चिल्लाया, ‘‘केमोन आश्चो पैडी दी? इतने बरस बाद? तुम हो कहां? हम लोग तुम्हारे लिए बहुत परेशान रहते हैं। बुआ यहां तो नहीं रहतीं। पता नहीं, पैडी दी। बीच में पापा के साथ उनका झगड़ा हो गया था। हमें तो कोई खबर नहीं। मैं पता कर दूंगा। तुम कल फोन कर लेना।’’

अब क्या? फिर वही सवाल।

‘‘कहां चले गए तेरे पिताजी? पता तो कर।’’ मन्नू ने टोका।

‘‘उससे क्या होगा? तुम लोग करना क्या चाहती हो? हम कहां रुकेंगे? कहां ठहरेंगे? रात को यहां कुछ खाने को मिलेगा कि नहीं?’’

पद्मा परेशान दिखने लगी। उसके भरोसे दोनों औरतें उसके संग चली आईं। कुछ तो करना होगा।

एक बार फिर वह बंगले के अंदर गई। इस बार अकेली। नौकर बालू को एक तरह से आदेश देकर बोली, ‘‘तुम मुझे नहीं पहचानते तो इसमें मेरी क्या गलती है? तुम जाओ, और ऊपर जाकर नानागारू के कमरे में जो बड़ी सी तस्वीर लगी है, देखकर आओ। जाओ, और हां पलंग के पास वाले दराज में एल्बम लेते आना। तुम्हें अभी बताती हूं कि मैं हूं कौन।’’

बालू कुछ अनमने भाव से कमरे में टंगी तस्वीर देख आया। दस साल की पद्मा नानागारू की गोद में बैठी थी। छोटी सी सफेद फ्रॉक, घुटने तक के मोजे, दो छोटी सी चोटियां, दोनों में मोगरे के फूलों की माला, माथे पर बिदंी। उस बच्ची में और इस मेम में कोई समानता नहीं। ऊपर से ठीक से तेलुगु भी नहीं बोल पाती।

लेकिन पद्मा की ठसक के आगे वह कुछ बोल नहीं पाया। इस बार स्टील के गिलास में पानी भी ले आया।

‘‘नाना गए कहां हैं? उनका कुछ नंबर? किसके साथ गए हैं?’’

अबकी बालू ने अपनी टूटी-फूटी हैदराबादी हिंदी में व्यंग्य से कहा, ‘‘तुम्हारे अब्बा हैं, और तुमको इतनाइच नईं मालूम मियां? साहब क्या फोन ले जाने की हालत में थे? इतनी तबीयत खराब चल रही है, इलाज करवाने को गए हैं।’’

‘‘क्या हुआ नानागारू को?’’ पद्मा ने रुककर पूछा।

‘‘साब को लकवा मार गया। तुमको नईं मालूम? तो तुम उनका बेटी कैसे हो सकती है? वो इलाज करने को केरल गए हैं, कोट्टकल आयुर्वेदशाला।’’

नानागारू को लकवा मार गया? पद्मा धीरे से सिर पकड़कर बैठ गई। जिस व्यक्ति की बेटी को उसकी परवाह न हो, जिसने कभी पलट कर अपने पिता की सुध न ली हो, जिसे अपनी जिंदगी से फुर्सत न हो, उसका यही तो हश्र होगा। आंखें भीग गईं।

नानागारू... मैं क्या करूं? मुझे अपने आपसे इतना अलग क्यों हा जाने दिया? अपनी जिंदगी से इतना दूर क्यों भेज दिया? हम सभी इतने अभिशप्त क्यों हैं इस तरह अकेले और संताप में जीने के लिए?

इससे अच्छा होता कि हमोर पास पैसा नहीं होता, सुख-सुविधाएं नहीं होतीं, जीने के इतने विकल्प नहीं होते। हम साथ तो रहते। एक सामान्य आम परिवार की तरह। आप कमाते, मां घर संभालतीं और मैं आपके सपने पूरा करने की कोशिश करती।

उस रात बालू ने उन तीनों को वहां ठहरने की इजाजत दे दी। नीचे के कमरे में जमीन पर गद्दे बिछा तीनों वहां सो गईं। बालू ने सबके लिए चावल और गाढ़ी दाल बना दी। इतनी भूख लग आई थी कि तीनों ने बल्ला के खाया।

साथ में तीखा, लाल आंध्र प्रदेश का आम का अचार। अपने ही घर में अजनबी की तरह थी पद्मजा। बालू ने ऊपर के सारे कमरों पर ताला लगा रखा था। नीचे ही रसोई थी। और बीच में बड़ा सा हॉल। इसी हॉल में सालों पहले वह अव्वा से लड़ बैठी थी। ठीक यहीं बीचोंबीच सोफे पर अव्वा बैठी थीं। इस घर का वह कोना और यह दिन उसे याद है, बाकी सब धुंधला रहा है। मन्नू और उज्ज्वला तो बिस्तर पर गिरते ही सो गईं। पद्मा जगी रही। वह देख रही थी कि बालू हर आधे घंटे में कमरे में झांक जाता था।

पद्मा सोफे पर पैर ऊपर रख सिगरेट फूंकने लगी। तलब होने लगी उसे एक पटियाला पैग की। उसे पता था कि नानागारू रसोई से लगे किचनेट के बाएं खाने में हमेशा बोतलें रखते हैं। वह दबे पांव उठी। दराज खोली। तीन बोतलें। पूरी की पूरी भरी। नानागारू ने पीना छोड़ दिया? जैसे ही उसने बोतल उठाई, सामने बालू आ गया। पद्मा एक पहल को चिहुंकी, फिर आत्मविश्वास सेस बोली, ‘‘ अंदर से गिलास लेकर आओ। स्टील का नहीं। दराज के ऊपर वाले खाने में कांच का गिलास होगा।’’

बालू रुका। फिर कुछ सोचकर गिलास लेकर आ गया। पद्मा ने गिलास पूरा भर लिया। रात काटने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा। दो घूंट अंदर जाते ही जान आ गई। उसने आंखें बंद करके कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है मैं कौन हूं? तुम अभी भी सोच रहे हो न कि मैं बालमोहन रेड्डी की बेटी नहीं। पता नहीं कहां से आई हूं? तुम गधे हो। तुम मेरे तेवर नहीं देख रहे? क्या मेरे अलावा कोई बालमोहन रेड्डी की बेटी हो सकती है?’’

बालू ने शांत आवाज में उत्तर दिया, ‘‘मैंने पता किया। इधर पड़ोस में जो कर्नल रहते हैं, वो बोले मेरे को कि तुम साब काइच बेटी हो।’’

पद्मजा ने चौंककर बालू की तरफ देखा। सपाट चेहरा।

‘‘ठीक है। अब तो बताओ नानागारू कहां गए हैं? कौन है उनके साथ?’’

‘‘मुझे कैसे मालूम होने का मैडम? आप लोगों का बातइच अलग है। किसी को तेलुगु बोलने को नहीं आता। सब अंग्रेजी में बोलते हैं। वो अम्मा बोलीं कि वो साब की बीवी है, तो हमने मान लिया। साब तो बोलने को सकते ही नहीं। सालों से बीमार हैं। अम्मा उनको इलाज के लिए कोट्टकल आयुर्वेदशाला ले गई हैं। कोई नामी वैद्य हैं काते, बोलते हैं बुरी-बुरी बीमारी का भी इलाज कर सकते हैं। अम्मा बोली, दस-पंद्रह दिन लग जाएंगे।’’

पद्मा चुप हो गई। दुनिया जहान को पता है नानागारू बीमार हैं। बस वही रूठी रही उनसे। अंदर से बेचैनी हुई। नाना ने बहुत कुछ सहा है। लगातार। ठीक हो जाएं... मन ही मन वह बुदबुदाई। नास्तिक होने का नतीजा, प्रार्थना में कोई देवता नहीं आया, किसी से दुआएं नहीं मांगीं। किसी की मन्नत नहीं की। बस दिल से कहा- नानागारू ठीक हो जाना।

सुबह बालू ने तीनों को कॉफी पिलाई और गर्म-गर्म इडलियां भी खिलाईं। उज्ज्वला रातभर की नींद के बाद कुछ आश्वस्त सी लगी, पर मन्नू अभी भी पशोपेश में थी, ‘‘पद्मा, हम यहां क्या करेंगे? दस दिन यहीं झक मारेंगे क्या? मरा तेरा नौकर मुझे ऐसे घूर कर देख रहा है जैसे चोरी करने चली आई हूं। तेरा ही घर है न, फिर धड़ल्ले से क्यों नहीं रहती? मुझसे ऐसे नहीं रहा जाएगा। आज दिनभर घूम लेते हैं, फिर लौट चलते हैं।’’

उज्ज्वला बड़े आराम से तीसरी बार कॉफी पी रही थी। दक्षिण भारतीय कॉफी का स्वाद जीभ को रुच गया था। हल्के-हल्के घूंट लेते हुए उसने आखरी बूंद भी जीभ में उतारी और फैलकर बैठते हुए बोली, ‘‘मन्नू, तुम सुधरोगी नहीं। ऐसी क्या आफत आई है? अच्छी भली बैठी हो यहां। पहली बार हम जिंदगी में कुछ नया करने निकले हैं। पद्मा से तो पूछो, वो क्या चाहती है?’’

पद्मा की आंखें सूज आई थीं। रातभर वह सोई नहीं। बालू के साथ बैठकर बात करती रही। चढ़ गई तो अनर्गल बोलने लगी। बालू ने नमक का हक अदा करते हुए गंभीरता से उसका साथ दिया। अब उसकी जीभ लड़खड़ा रही थी। उसने धीरे से कहा, ‘‘मैं बालू से कह दिया है। टैक्सी का इंतजाम हो जाएगा। दिनभर तुम दोनों घूम-फिर लेना और रात को लौट आना। मैं टिकट करवा दूंगी।’’

उज्ज्वला भौंचक्की रह गई, ‘‘और तुम?’’

पद्मा का स्वर टूटर रहा था, वह धीरे बुदबुदाई, ‘‘मैं कोट्टकल जाऊंगी। दोपहर की बस से कोचीन, फिर वहां से टैक्सी कर लूंग। बालू ने मुझे समझा दिया है कैसे जाना है।’’

फिर तो वही हुआ, जो तीनों ने चाहा। दोपहर की बस से तीनों पहुंची कोचीन और अगले दिन सुबह कोचीन से टैक्सी कर ली तिरूर होते हुए कोट्टकल के लिए। जितनी फिक्रमंद पद्मा पिताजी की बीमारी को लेकर थी, उससे कम उत्सुक नहीं थी यह जानने को कि वे किसके साथ हैं। मन्नू को शक था कि पैसों के लिए जरूर उनकी कोई महिला मित्र सेवा करने आ पहुंची होगी। पद्मा ने टोका, नानागारू ऐसे नहीं हैं। पता नहीं मन्नू... मां अलग हो गई, अव्वा की डेथ हो गई। अकेले पड़ने के बाद आदमी कुछ भी कर सकता है, ऊपर से लकवा।

कोट्टकल के लिए टैक्सी लेने के बाद रास्ते में पद्मजा बताने लगी कोट्टकल आयुर्वेदशाला का इतिहास। सौ साल पहले यहां नींव रखी गई थी आयुर्वेदशाला इलाज की। पी.एस. वारियर ऐलोपैथी और आयुर्वेद दोनों के जानकार थे। यूरोपियन समाज ने ऐलोपैथी को बढ़ावा दिया, तो उनकी वजह से भारत में भी ऐलोपैथी लोकप्रिय होने लगी। वारियर को लगा कि यही वक्त है आयुर्वेद को नए सांचे में ढालने और घर-घर पहुंचाने का। उन्होंने आयुर्वेद औषधियों से हर तरह की बीमारी का इलाज शुरू किया।

उज्ज्वला ने आंखें फैलाकर पूछा, ‘‘तुम्हें इतनी जानकारी कैसे है।’’

पद्मा ने टैक्सी की अगली सीट पर पांव रखते हुए दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं मैक के साथ यहां आ चुकी हूं। उसकी रीढ़ की हड्डी में सूराख था। बारहों महीने उसे दर्द रहा करता। यहां महीना भर इलाज चला उसका। ठीक भी हो गया...।’’

वह चुप हो गई। पुराना दर्द टीस उठा। मैक और उसकी पीठ का दर्द।

अचानक पद्मजा के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई, ‘‘पता है, उसे यह दर्द सबसे ज्यादा कब होता था! जब वो मेरे साथ बिस्तर पर होता था। अक्सर उसकी कोशिश होती थी कि उसे कम मेहनत करनी पड़े, वह लेटा रहे और मैं उसके ऊपर...’’

‘‘श्श्श...’’ उज्ज्वला ने टोका। पद्मजा को जुबान पर काबू नहीं। ड्राइवर लगातार उनकी तरफ ही देखे जा रहा है। भले उनकी भाषा न समझता हो, पर हंसती-गाती अलग-अलग उम्र की ये तीनों महिलाएं उसे सामान्य तो नहीं ही लग रही थीं। शुक्र था कि वो अंग्रेजी समझ लेता था।

उज्जवला के टोकने पर पद्मजा ने जरा भी बुरा नहीं माना, वह अपनी रौ में कहती गई, ‘‘तुम दोनों को मैंने काफी कुछ तो सुधार दिया है। पर और सुधारना जरूरी है। गजब की हिप्पोक्रेट हो उज्ज्वला तुम। सेक्स का जिक्र छिड़ते ही ऐसे करंट लग जाता है तुम्हें, जैसे कोई तुम्हारे साथ जबरदस्ती पर उतारू हो। रिलैक्स यार। ये अपना सोलवां सालपन छोड़ा। बल्कि मैं तो कहती हूं लौटते में हम सब त्रिवेंद्रम चले चलते हैं। वहां ऐसी मतसाज करवाऊंगी तुम दोनों की... जन्नत याद आ जाएगी।’’

उज्ज्वला का चेहरा लाल हो गया। सच कह रही है पद्मा। वह स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर कभी सहज नहीं हो पाती। ओमप्रकाश के साथ चंद महीनों के अनुभव ने उसे अंदर तक कटु बना दिया है। कहीं कोई मीठी याद नहीं। सेक्स का जो विद्रूप रूप उसने देखा है, उसके बाद वह सामान्य रहे भी तो कैसे? पद्मजा कहती है कि सारे पुरुष ओमप्रकाश की तरह नहीं होते। वह एक असामान्य आदमी था। परवर्टेंड। वर्ना पुरुष की कोशिश होती है कि वह अपनी संतुष्टि के साथ-साथ अपने साथी की भी संतुष्टि का ख्याल रखे।

‘‘मैं में हजार बुराइयां सही, लेकिन इस मामले में ठीक था। हर बार मुझसे पूछ लेता- आर यू सेटिसफाइड। मेरे चरम पर पहुंचने, के बाद ही उसे चैन आता।’’ न जाने कितनी बार बता चुकी थी पद्मजा।

उस समय मन्नू भी जोड़ देती, ‘‘वो भी समझते थे मुझे। मेरी जरूरतों का पूरा ख्याल रखते। शुरू में तो दिन में कई-कई बार मैं कहती थी उनसे करने के लिए।’’

उज्ज्वला चुपचाप सुन लेती दोनों की काम-क्रीड़ाओं का वर्णन। वही हुआ, वह चुप हो गई। पद्मजा अनर्गल बोलती रही, अपने अनुभवों के बारे में। थाई मसाज के बारे में और...

मन्नू उसका साथ देती रही...

जैसे ही टैक्सी ने कोट्टकल में प्रवेश किया, पद्मजा अप्रत्याशित रूप से चुप हो गई। जब तक रामकृष्ण गेस्ट हाउस नहीं आया, वह कुछ नहीं बोली। बालू ने यहीं का पता बताया था। यहीं रहते हैं नानागारू...

टैक्सी के रुकते ही वह एक झटके में उतरी और लपककर अंदर चली गई। बड़ा सा खुला दालान। एक तरफ सीमेंट की बेंच। हर तरफ हरियाली। ऊंचे-ऊंचे नारियल के पेड़े। किनारे पर लगे रबर के वृक्ष। हवा ऐसी शीतल कि हजार बीमारियां भाग जाएं।

उज्ज्वला और मन्नू टैक्सी से उतर कर लंबी-लंबी सांसें भरने लगीं। उज्ज्वला तो न जाने कब से केरल की नैसर्गिक सुंदरता को आंखें ही आंखों में पी रही थी।

जिसे पद्मजा ने अपने सामने देखा, उसके बाद वह खड़ी नहीं रह पाई।

‘‘मम्मा! तुम यहां? ओह मां, वॉट ए सरप्राइज?’’

अपनी बिछुड़ी राजकन्या को देख मोधुमिता अवाक रह गई। एकदम से आगे बढ़कर पद्मजा को गले लगा लिया।

मोधुमिता का रूप-लावण्य ढल चुका था। सफेद किनारी वाली साड़ी में एक हारी हुई महिला। सफेद बाल, झुर्रीदार चेहरा, ढला शरीर।

मां के पीछे जो आकृति खड़ी थी, उसे देख पद्जा को दहशत हो आई। उसके नानागारू। कांपते और लड़खड़ाते हुए मोधुमिता के सहारे को आगे बढ़ आए थे। पद्मजा ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, लेकिन नानागारू ने उसे पहचाना ही नहीं।

मोधुमिता ने बहुत धीरे से नानागारू के कान में कहा, ‘‘मोहन...पोड्मा आई है। अपना बच्ची। देखो तो।’’

नानागारू की आंखों में हल्की सी चमक आई। पद्मजा का बढ़ा हुआ हाथ छूने से पहले वहीं उनका पजामा गीला हो गया। शर्मिंदगी से आंखें भर आई और वे पलटकर जाने लगे।

पद्मजा ने पहली बार अपने नानागारू को इस रूप में देखा था। लाचार, बीमार और अपने से बेखबर। आंखें बंद कर उसने मन ही मन कहा- हे भगवान। मेरे नानागारू को इतना कष्ट मत दो। अगर यही उनकी जिंदगी है, तो वापस ले लो। ये जीना तो मौत से बदतर है।

उस रोज वे तीनों गेस्ट हाउस में ही रहीं। रात नानागारू की तबीयत खराब हो गई। सुबह होने से पहले पद्मजा की प्रार्थना सुन ली गई।

क्रमश..

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