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महामाया - 14

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – चौदह

यज्ञ मंडप के सामने वाले मैदान में समाधि के लिये गड्डा खोदे जाने का काम तेजी से चल रहा था। गड्डे से थोड़ी दूरी पर चारों ओर बेरीकेट्स लगाये जा चुके थे ताकि भीड़ सीधे गड्डे तक नहीं पहुँच सके।

धीरे-धीरे समाधि स्थल देखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग बेरिकेट्स के बाहर खडे़ होकर कोतूहल से गड्डे को देख आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे।

‘‘इस गड्डे में तीन दिन, बिना कुछ खाये-पिये, बिना साँस लिये कोई जिंदा कैसे रह सकता है?’’

प्रश्न एक ही था लेकिन उत्तर को लेकर लोगों के अपने-अपने तर्क थे।

‘‘अरे तीन दिन तो कुछ भी नहीं है। कितने ही साधु बरसों बिना खाये-पिये रहते है’’

‘‘भले ही तीन दिन की बात हो पर इस गड्डे में रहना तो असंभव है भैया’’

‘‘तुम्हे पता नहीं है योग और तप के बल से सब संभव है’’

लोगों के अपने-अपने तर्क थे। कुछ ऐसे भी थे जो घंटो वहां खड़े रहकर सूंघा सांघी करते टोह लेने की जुगत में थे।

‘‘नजर का खेल है। पहले नजर बांध दो फिर जो चाहो सो दिखाओ’’

‘‘हमको तो लगता है गड्डे में पहले से सुरंग रखी होगी।’’

‘‘ऊपर से महाराज गड्डे के अंदर और सुरंग से वापस अपने कमरे में। तीन दिन बाद फिर सुरंग से गड्डे में। लो हो गई समाधि।’’ सब हँस दिये।

‘‘वाह क्या धाँसू आइडिया है, मान गये उस्ताद’’

तभी कंधे पर बड़ा सा झोला टांगे कुसुम बड़बड़ाते हुए समाधि स्थल पर पहुँच गई।

‘‘सब आइडिया का खेल। जिसका, जितना बड़ा आइडिया उसका उतना बड़ा खेल। मेरा गुरू जिनियस था। उसे ऐसे-ऐसे आइडिया आते थे कि अच्छे-अच्छे चकरा जांय। कहता था ज़िदगी में नयापन होना चाहिये। हर दिन कुछ नया ’’बड़बड़ाते-बड़बड़ाते कुसुम ने भीड़ को देखा और चिल्लाने लगी ‘‘भागो यहाँ से, यहाँ क्या कोई तमाशा हो रहा है यहाँ? समाधि हो रही है कोई जादू का खेल नहीं जो भीड़ जमा कर रखी है। बाबाजी भी न कुछ भी करते। बाबाजी को भीड़ भाड़ ही अच्छी लगती है। मुझे तो भीड़ जरा अच्छी नहीं लगती। साधु को भीड़-भाड़ से क्या लेना देना.....? चलो भागो यहाँ से। कुसुम यहाँ समाधि लेगी. मैं कहती हूँ । समाधि के लिये किसी गड्डे की क्या जरूरत है?’’ कहते हुए कुसुम गड्डे से बाहर फैंकी गई मिट्टी पर आलथी-पालथी आँखें बंद कर बैठ गई।

लोगों को आनंद आ गया। वे तरह-तरह की बातें करने लगे। इन बातों से बेखबर कुसुम लगभग घंटे भर ध्यान की अवस्था में बैठी रही। फिर कंधे पर झोला टांगकर प्रवचन हॉल की ओर बढ़ गई। कुसुम के जाते ही लोगों का आनंद समाप्त हो गया। इसलिये वो भी एक-एक कर प्रवचन हॉल की ओर बढ़ने लगे।

कुसुम ने हॉल में प्रवेश कर झोला एक कोने में रखा और खप्पर बाबा के पास बैठ गई।

वानखेड़े जी प्रवचन हॉल में बाबाजी के इंतजार में बैठे लोगों को बाबाजी की लीलाओं के बारे में सुना रहे थे। एक नाटे कद का व्यक्ति सफेद कुर्ता पजामा पहने आरती की तैयारी में जुटा था। वह काम करते-करते गुनगुनाता जा रहा था। उसने थाली में के फूलों से एक स्वास्तिक बनाया। स्वास्तिक के बीच समाई जमाई। फिर ही नजाकत से रूई की बत्तियाँ समाई में लगायी। समाई में घी डालकर आरती की तैयारी को पूर्ण विराम दिया।

‘‘विष्णु जी आरती की तैयारी हो गई।’’ वानखेड़े जी ने पूछा।

’‘हओऽऽ.. महाराज, बस अब तो बाबाजी का इंतजार है’’ विष्णु जी ने प्रसन्नता से कहा।

वानखेड़े जी ने भक्तों को विष्णु जी का परिचय बाबाजी जब हिमालय से उतरे थे तो सबसे पहले विष्णु जी के घर रूके थे। इनका भक्तिभाव देखकर बाबाजी इन्हें भगत जी कहते हैं। क्यों सही है न भगत जी।’’

‘‘बाबाजी जिस नाम से पुकार लें वही असल नाम है,’’ विष्णुजी ने दोनों हाथ जोड़ते हुए विनम्रता से जवाब दिया। आपने तो बाबाजी की बहुत सी लीलाएँ देखी है। एकाध लीला सुना दो। वानखेड़े जी ने माला घुमाना रोककर कहा-

बाबाजी की तो इतनी लीलाएँ हैं कि कौन सी कहें और कौन सी छोड़ें। बाबाजी साक्षात् अवतार हैं। हमें इस बात की अनुभूति उस वक्त हुई जब हम बाबाजी के साथ पिंडारी गये थे।

‘‘ये बात तो तुमने हमें कभी नहीं बताई’’ वानखेड़े जी ने उलाहना दिया।

‘‘कभी अवसर ही नहीं लगा महाराज। आज न जाने कैसे मुँह से निकल गई। ये कोई कहने की नहीं, आनंद लेने की बात है।

‘‘अब निकल गई है तो कह दो, अच्छा सत्संग हो जायेगा।’’ वानखेड़े जी के साथ दो-चार और भक्तों ने भी आग्रह किया।

‘‘कुछ बरस पहले हम आठ-दस लोग बाबाजी से मिलने पिंडारी पहुँचे। कड़ाके की ठंड थी। शरीर पर चार-चार जोड़ गरम कपड़े फिर भी ठंड के मारे दांत किट-किटा रहे थे। लेकिन बाबाजी सिर्फ एक कोपिन पहने बर्फ में समाधिरत थे। शाम को बाबाजी ने बताया कि यह शिव का स्थान है। हर दिन देवी-देवता शिव का दर्शन करने यहाँ आते हैं।

हम तो ठहरे मूढ़ महाराज, बाबाजी की बात समझ नहीं पाये। लंबी तान के सो गये। पर.......उस रात गुरू की ऐसी कृपा हम पर हुई कि इस पापी मुँह से क्या बखान करें। बोलते-बोलते विष्णु जी ने हाथों से दोनों कानों को छुआ और बुदबुदाये शिव...शिव....।

‘‘उस रात क्या हुआ था भगत जी’’ भक्तों की भीड़ में बैठे अखिल ने पूछा।

यही कोई रात नौ-दस बजे की बात होगी। हम लोग टेंट में सो रहे थे। अचानक मेरे कानों में घंटे, घड़ियाल, नगाड़े और शंख की ध्वनियाँ बजने लगी।

वानखेड़े जी माला घुमाते-घुमाते अपने दोनों हाथ माथे तक ले जाकर बुदबुदाये जय गुरूदेव.... जय गुरूदेव...हॉल में सन्नाटा छा गया। सब आँखे फाड़े विष्णु जी की ओर देख रहे थे। कुछ पल के विश्राम के बाद विष्णु जी ने फिर से कहना शुरू किया।

अगले ही पल मैंने देखा जिस शिला पर बाबाजी बैठे थे वहाँ भगवान शिव बैठे हैं। शिव का मोहिनी स्वरूप था। शरीर पर भस्मी, गले में नाग, जटा पर चंद्रमा, हाथ में डमरू, एक हाथ में त्रिशूल, माथे पर त्रिपुण्ड, भूत-पे्रत किन्नर उनके चारों ओर नृत्य कर रहे हैं। देवी-देवता आरती उतार रहे हैं। आँखे फटी की फटी रह गयी। शरीर सुन्न पड़ गया। धीरे-धीरे घंटे, घड़ियाल, नगाड़े और शंख का स्वर कम होते-होते समाप्त हो गया।

फिर भैया मैंने देखा शिव तो अंर्तध्यान हो चुके हैं और उनकी जगह बाबाजी बैठे हैं। विष्णु जी ने फिर से अपने हाथों से अपने दोनों कोनों को छुआ और मौन हो गये। प्रवचन हॉल में बैठे सभी लोगों ने पहले तो श्रद्धा से हाथ जोड़ सिर झुकाया। फिर खुसुर-फुसुर शुरू हो गई।

‘‘हमें तो पता था, बाबाजी अवतारी पुरूष हैं’’

‘‘सच्ची भैया, बड़े भाग है अपन लोगों के जो आज ऐसे संत के दर्शन हो रहे हैं।

‘‘हम तो कह रहे हैं कि विष्णु जी पुण्यात्मा हैं। इन्होने साक्षात शिव के दर्शन करे हैं’’ कहते हुए एक भक्त उठ खड़ा हुआ और उसने विष्णु जी को प्रणाम किया। उसके बाद सिलसिला शुरू हो गया। विष्णु जी ने संकोच के साथ कहा।

‘‘आप लोग मुझे प्रणाम मत कीजिए, दोष लगता है। इससे मेरा कुछ जस नहीं हैं सब बाबाजी की कृपा है।’’

इस वाकिये को सुन अखिल गुम था। अनुराधा अंगूठे से जमीन कुरेद रही थी। भीड़ में उल्लास था। इसी बीच बाबाजी ने प्रवचन हॉल में प्रवेश किया।

उनके प्रवेश करते ही वहाँ मौजूद भक्तों ने बड़े ही जोश के साथ महायोगी... महामण्डलेश्वर की जय का उद्घोष किया। बाबाजी दोनों माताओं और एक नवयुवती के साथ मंच पर विराजित हो गये। अखिल ने देखा कि यह वही नवयुवती थी जिसके तीन जन्मों के बारे में बाबाजी ने बताया था।

बाबाजी के मंच पर बैठते ही विष्णुजी ने बाबाजी की पूजा अर्चना शुरू कर दी।

नागेन्द्रहराय, त्रिलोचनाय

भस्मांगरामाय, महेश्वराय

नित्याय शुद्धाय, दिगम्बराय

तस्मै न काराय, नमः शिवाय

इस स्तुति के बाद उन्होंने बाबाजी के दोनों पैरों को एक थाली में रखा। फिर रखकर दूध से धोया फिर पानी से धोया और इस मंत्र पाठ के साथ चांदी के लोटे को दोनों हाथ से पकड़कर बाबाजी के दोनों पैरों के अंगूठों पर थोड़ा ऊपर से जल चढ़ाया।

ऊँ भूर्भवः स्वः श्री नर्मदैश्वरसाम्बसदाशिवाय नमः

पय स्नानं समर्थयामि, स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि,

शुद्धोदकं स्नानान्ते अस्थमनीयं जलं समर्पयामि।

मंत्र पाठ के बाद विष्णु जी ने बाबाजी के सिर पर फूल चढ़ाये। गले में फूलों की एक बड़ी सी माला पहनाई। बाबाजी के दोनों पैरों के अंगूठों की रोली कुंकुम, अक्षत और पुष्प से पूजा की। फिर जिस थाली में बाबाजी के दोनों पैर धोये थे। उसमें से एक हाथ से थोड़ा सा जल लेकर मुंह में डाला और अंत में बाबाजी के दोनों अंगुठों पर सर झुकाते हुए घुटनों के बल बैठ गये।

बाबाजी ने विष्णु जी की पीठ पर आशिर्वाद स्वरूप एक धोल जमायी।

‘‘उठिये भगत जी महाराज अब जल्दी आरती कीजिये’’

‘‘जैसी शिव की इच्छा’’ कहते हुए विष्णु जी उठे और आरती की थाली में रखे दीप को प्रज्वलित कर पूरे मनोयोग से बाबाजी की आरती उतारने लगे।

ऊँ जय शिव ओंकारा स्वामी जय शिव ओंकारा।

ब्रम्हा, विष्णु, सदाशिव, अद्र्धांगी धारा...........।

श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघम्बर अंगे,

सनकादिक। करूणादिक भूतादिक संगे,

ऊँ जय शिव ओंकारा... स्वामी जय शिव ओंकारा।

प्रवचन हॉल में उपस्थित सभी भक्त ताली बजा-बजाकर विष्णु जी के साथ आरती गा रहे थे। बाबाजी निर्विकार बैठे थे।

आरती के बाद विष्णु जी ने तीन बार महायोगी। शिव अवतार महामण्डलेश्वर की जय का उद्घोष करवाया। फिर स्वयं भक्तों के बीच घूम-घूमकर आरती पहुँचाने लगे। लोग आरती लेते जा रहे थे और अपनी जगह बैठते जा रहे थे।

जब सब लोग शांत बैठ गये तब बाबाजी ने प्रवचन प्रारंभ किया।

ऊँ नमोः नारायणा... प्रारब्ध ही सारे दुखों की जड़ है...। सांसारिक व्यक्ति इस छोटी सी बात को नहीं समझता है। वो पिछले जन्मों के प्रारब्ध को भोगते हुए इस जन्म में भी ऐसे कर्म करता है जिससे उसके अगले जन्म में और अधिक दुख संकट सामने आते हैं।

योगी भी कर्म करता है पर उसका कर्म निष्काम होता है। योगी अपने तप और साधन के बल पर अपने जन्म-जन्मांतर के प्रारब्धों को एक ही जीवन में काट लेता है। अच्छे-बुरे सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है......। योगी की तरह ही प्रत्येक प्राणी भी अपने प्रारब्ध को काट सकता है। पर इसके लिये उसे चाहिये एक समर्थ गुरू। गुरू आपके जन्म-जन्मांतर के प्रारब्धों को मिटा सकता है। पल भर में सारे संचित संस्कारों का क्षय कर सकता है... आपको तार सकता है... सारे दुख-संकटों को दूर कर सकता है। लेकिन सदगुरू का मिलना आसान नहीं है। कई लोगों के कितने ही जन्म गुरू की खोज में समाप्त हो जाते हैं। कुछ लोग कहने को तो गुरू खोज लेते हैं। उससे नाम दीक्षा भी ले लेते है। फिर निश्चिंत हो जाते हैं कि उनका गुरू उनके सारे प्रारब्ध काट देगा। उनके सारे दुख, संकट समाप्त कर देगा। पर वास्तव में उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता। नाम दीक्षा के बाद भी जीवन वैसा ही बना रहता है जैसा पहले था। जरा सोचों, जो नाव खुद ही कमजोर हो। जिसके पेंदे में जगह-जगह छेद हो। वो तुम्हे कैसे पार ले जा सकती है।

यदि भाग्य से समर्थ गुरू मिल जाये फिर भी तुम्हारे जीवन में कोई बदलाव नहीं आये, तो समझ लेना कि तुमने गुरू के सामने पूर्ण समर्पण नहीं किया है। जीवन में बदलाव के लिये गुरू में पूर्ण समर्पण पहली और अंतिम शर्त है।

गुरू में समर्पण कठिन काम है। बड़ी मानसिक तैयारी करना पड़ती है। अपने अंदर भाव पैदा करना पड़ता है। गुरू यह मन भी तुम्हे समर्पित...., यह शरीर भी तुम्हे समर्पित...., अच्छे बुरे सभी कर्म तुम्हे समर्पित।

गुरू में ऐसे घुल जाओ जैसे शक्कर पानी में घुल जाती है। अपने आप को पूरी तरह गुरू को सौंप दो। तब तुम पर सदगुरू की कृपा होगी। सद्गुरू की कृपा होते ही तुम्हारे दुःख-दर्द हमेशा-हमेशा के लिये खतम हो जायेंगे। तुम्हारा जीवन बदल जायेगा।

सांसारिक लोगों को उनके दुःख दर्द से मुक्त करना ही एक सच्चे गुरू का कर्तव्य है। अपने इसी कर्तव्य को पूर्ण करने के लिये परम तत्व की प्राप्ति के बाद भी साधु को संसार में आना पड़ता है।

यह यज्ञ और समाधि का कार्यक्रम भी आपके लिये एक अवसर है। सारे दुख-संकटों और पीड़ाऐं खत्म कर देने का.....इसलिये आप इस कार्यक्रम का पूरी श्रृद्धा के साथ लाभ लें। ईश्वर आप सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें। हरि ऊँ तत्सत्।

प्रवचन हॉल में बैठे लोगों को जैसे सांप सूंघ गया था। सब मंत्रमुग्ध होकर बाबाजी को सुन रहे थे। तभी बेमटे जी ने अपने दोनों हाथ ऊँचे करते हुए कहा ‘‘बोल... लीलाधारी... योगीराज... महमण्डलेश्वर की...।’’ भीड़ ने भी दोनों हाथ ऊँचे कर उच्च स्वर में ‘‘जय हो... जय हो’’ के स्वर से प्रवचन हाॅल को गूंजा दिया।

बाबाजी के साथ आयी नवयुवती भी मंत्रमुग्ध थी। नीचे भीड़ में आगे ही आगे बैठे उसके माता-पिता अपनी बेटी को बाबाजी के साथ मंच पर देख गोरवान्वित थे। विष्णु जी ने एक बार फिर बाबाजी की आरती उतारी।

आरती के बाद बाबाजी के साथ दोनों मातायें और वह नवयुवती भी उठकर चल दी। वानखेड़े जी और विष्णु जी बाबाजी के पीछे-पीछे संत निवास की ओर चले गये।

अनुराधा गंभीर नजर आ रही थी। वह अभी भी अपनी जगह बैठी थी। अखिल गहरे सोच में था।

बाबाजी के जाते ही संतु महाराज ने माइक सम्हाल लिया।

‘‘दो दिन बाद दीक्षा का कार्यक्रम रखा गया है। जो भक्त बाबाजी से दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं वो अपना नाम संतु महाराज के पास लिखवा दें। धन्यवाद!’’

इस घोषणा के बाद लोग एक-एक कर उठने लगे। कुछ लोग संतु महाराज को घेरकर उनसे दीक्षा की जानकारी लेने लगे। खप्पर बाबा उठकर सीधे भोजनशाला की ओर निकल गये।

अखिल और अनुराधा बिना आपस में कुछ बात किये प्रवचन हॉल से निकलकर जालपा देवी मंदिर से बाहर की ओर चल दिये।

अचानक पीछे शोर सुनायी दिया साध्वी कुसुम जोर-जोर से चिल्ला रही थी।

‘‘साले सबके के सब चोर है... उठाई गिरे हैं... मंदिर में धरम-करम करने नहीं चोरी करने आते हैं... मैं सबको श्राप दूंगी... सबके सब मेरे श्राप से भस्म हो जायेंगे... मैं हमेशा बाबाजी से कहती हूँ ऐसे कार्यक्रमों से कुछ नहीं होगा। किसी के संस्कार नहीं कटेंगे। ऐसी दीक्षा से कुछ होना जाना नहीं है। लेकिन बाबाजी मेरी बात मानते ही कहाँ है।’’ फिर भीड़ की तरफ मुड़ते हुए कहा-‘‘मेरा थैला किसने चुराया है... जल्दी से बता दीजिये वरना मैं सबके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखवाऊंगी’’ साध्वी कुसुम अपना थैला ढूंढने के लिये प्रवचन हॉल में यहाँ-वहाँ चक्कर लगाकर परेशान हो रही थी। लोग मजे ले रहे थे।

क्रमश..

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