कुबेर - 37 Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुबेर - 37

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

37

डीपी के लिए यह माहौल परिचित था। न्यूयॉर्क में काम करते हुए उसने एक बात सीखी थी कि जो भी करना है उसकी पहले पूरी तैयारी करो, पक्की योजना बनाओ, ऐसी कार्य योजना जो कागज़ पर दिमाग़ की चतुराई को अंकित कर दे, उसके नफ़े-नुकसान पर चिंतन-मनन करे और जब आप उस कार्य योजना को ठोक-बजा कर विशेषज्ञ बन जाओ तो अमल शुरू करो। इस बात को भाईजी ने सीधे और सरल शब्दों में समझाया था और कहा था कि – “आपको हाईवे पर गाड़ी चलानी है तो आपके पास न सिर्फ ड्राइविंग लाइसेंस हो, बल्कि आप एक बहुत अच्छे और मानसिक रूप से स्वस्थ ड्राइवर भी हों। अगर हाईवे की गति आपको डराती है तो ज़ाहिर है कि आप अभी कार चलाने की मानसिकता में नहीं हैं।”

कितना सही कहा था भाईजी ने। उनकी ऐसी बातें सुन-सुन कर ही वह भाईजी का कायल था। एक छोटा भाई अपने बड़े भाई के लिए जितना सम्मान और विश्वास रख सकता था, उससे कई गुना अधिक था डीपी का भाईजी पर विश्वास। उनके द्वारा कही गयी किसी भी बात पर कभी दोबारा सोचने का ख़्याल भी नहीं आता था उसके मन में।

“गुड मॉर्निंग एवरीबडी” शमी की आवाज़ ने सबको सतर्क कर दिया। सबका स्वागत करते हुए अपनी ‘अपटिक’ कंपनी का परिचय दिया शमी ने। उनकी कंपनी बिलियनों डॉलर का निवेश सम्हालती थी। आज एक विशेष सत्र था जिसमें डॉ. स्टीव अपनी बात रखने वाले थे। उन्होंने शिकागो यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. की थी। ऐसे भाषण और प्रस्तुतियाँ करने का अनुभव डीपी को भी था। उसके भाषण को सुनते हुए सैकड़ों लोग खड़े होकर मिनटों तक तालियाँ बजाते रहते थे। यहाँ दस लोगों में प्रस्तुति देने वाले डॉ. स्टीव के सम्मान में खड़े होने में उसने कुछ समय लिया। डेढ़ घंटे के पहले सत्र में उसने डॉक्टर स्टीव को जितने ध्यान से शब्दश: सुना और देखा उतने ध्यान से शायद पहले कभी किसी को नहीं सुना होगा। ज़िंदगी में कभी भी ऐसी प्रस्तुति जो आँकड़ों और तथ्यों से भरपूर थी, न देखी थी न सुनी थी।

अनुभव जब बोलता है तो शब्दों को ढूँढना नहीं पड़ता तब शब्द जबान से धाराप्रवाह झरते हैं, ठीक उन मोतियों की तरह तराश और चमक लिए जो एक दूसरे से बंधकर सौंदर्य की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं।

ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा था डॉ. स्टीव को सुनकर। पहले सत्र में उन्हें सुनने के बाद बार-बार डीपी का मन कर रहा था कि वह डॉ. स्टीव के पास जाए और उन्हें सैल्यूट करके आए। वह जिस तरह पढ़ना चाहता था जितनी तेजी से आगे बढ़ना चाहता था वे कुछ इसी तरह पढ़ा रहे थे। सोयाबीन की फसल के बारे में विस्तृत जानकारी दे रहे थे। अगले दस सालों में कहाँ कितनी सोयाबीन पैदा होगी, उसकी खपत कैसी होगी, क्या-क्या संभावित उत्पाद होंगे, उनमें कितना निवेश होगा, उसके बाज़ार भाव कैसे चलेंगे और भी बहुत कुछ अति विस्तृत और अति गूढ़।

पहले सत्र के समापन पर शमी ने दो वाक्य बोले डॉ. स्टीव के मॉडल के बारे में – “जिन्होंने पाँच साल पहले सोयाबीन में एक मिलियन डॉलर का निवेश किया है आज उसका मूल्य दस मिलियन से ज़्यादा का है।”

निश्चित ही यह सिर्फ पैसा कमाने की बात नहीं थी, यह थी उनके अपने शोध की गहराई की जो उनके सतत अध्ययन को इंगित करती थी। कृषि के अलावा यह बीस से अधिक विषयों पर प्रकाश डालती थी। इसमें वैश्विक राजनीति में बदलाव के प्रभाव से लेकर डॉलर और अन्य मुद्राओं के अंर्तसंबंध, स्वास्थ्य और चिकित्सा, अन्य नकद फसलों जिन्हें तत्काल बेचना ज़रूरी होता है, के बाज़ार की अवधारणा भी सम्मिलित थी। इसके अलावा भी कई कारक जिनका आने वाले समय में सोयाबीन पर प्रभाव क्या परिणाम दे सकता है, शामिल थे।

उसे लगा उस कमरे में ऐसे ही ज्ञानवान और ज्ञानपिपासु होना ज़रूरी है वरना तो डॉ. स्टीव को कौन समझ पाता। डॉ. स्टीव की सोच की गहराई में उसे अपनी सोच की कमज़ोर सतहें साफ़-साफ़ दिखने लगीं। उसने कभी इतने गहरे जाकर और इतने सारे कोणों से अपने विषय के बारे में कभी सोचा ही नहीं था।

“चलो डीपी, अब चलें?” शमी ने कहा और उठकर जाने को उद्यत हुआ।

“मैं पूरे सेमीनार में रहना चाहूँगा” डीपी ने कहा।

“ठीक है, लंच पर मिलते हैं, यहीं एक बजे।” अभी मुझे अपने काम पर लौटना होगा, कहते हुए शमी चला गया।

अगला सत्र दूसरे थिएटर में था। यहाँ गोल-गोल घूमने वाली कुर्सियाँ लगी थीं। ऊँची-ऊँची चारों दीवारों को स्क्रीन ने अपने उपयोग के अनुसार घेरा हुआ था। बहुत से कम्प्यूटर थे और कुछ सहायक भी। यह अनूठा सत्र था। डॉ. स्टीव ने कैनबिस की फसल से अपना सत्र शुरू किया। यह गांजे-भांग जैसा नशा देने वाला पौधा था। कुछ देशों ने कैनबिस उत्पादों को खुले बाज़ार में नियंत्रित रूप में बेचने की अनुमति देने के लिए क़ानून बनाने शुरू किए थे। सोयाबीन और कैनबिस बाज़ारों के संभावित उतार-चढ़ाव पर यह प्रस्तुति इतनी रोचक थी जैसे आप किसी रेसकोर्स में अपने घोड़े दौड़ाते हुए कार रेस में कार दौड़ाने लग गए हों।

निवेश करने के लिए जब प्रवेश बिंदु आते तो एंट्री पॉइंट की स्क्रीन पर रंग-बिरंगे ग्राफ उभर आते। निवेश से बाहर निकलने के लिए एक्ज़िट पॉइंट आते तो पास लगी स्क्रीन सक्रिय हो जाती। इसी दौरान किसी के भी दौड़ते दिमाग़ में कोई-सा भी प्रश्न आ जाए तो वह अपना बटन दबा सकता है। सभी स्क्रीनें वहीं थम जाएँगी।

मनुष्य के मस्तिष्क की चरम सोच के चरम बिन्दु को तकनीकी क्षेत्र में चरम पर पहुँचाने का ज्वलंत उदाहरण था यह थिएटर।

डीपी ने सवाल-जवाब के कई दौर अपने भाषणों में देखे थे। बहुत कम ऐसा होता कि उसे कहना पड़ता कि वह इसका जवाब नहीं जानता। अपने कथन और अपने तर्क पर उसे बहुत गर्व होता था। इन आठ श्रोताओं के प्रश्नों को सम्हाल पाना डॉ. स्टीव के लिए इतना सहज नहीं था जितना डीपी ने सोचा था। पहली बार उसे लगा कि उसके सहभागी काफी तेज़ हैं। हर दूसरे-तीसरे प्रश्न पर डॉ. स्टीव को कहना पड़ता – “अच्छा प्रश्न है, इस बारे में और अध्ययन करना होगा।”

या फिर वे कहते “इस कोण पर मेरी टीम का नज़रिया मैं बाद में बता पाऊँगा।”

डीपी को लगा काश वह डॉ. स्टीव से और अपने उन सहपाठियों से पहले मिला होता। इतने समय से न्यूयॉर्क में है। उसने न्यूयॉर्क आने के बाद बहुत समय लिया इस दिशा में सोचने के लिए। इस क्षेत्र के ज्ञान, जानकारी और उसके उपयोग के बारे में कभी उसने इस तरह से सोचा नहीं था।

सत्र समाप्ति पर शमी जब लंच के लिए उसे लेने आया तो वह डॉ. स्टीव को थम्सअप के साथ सिर्फ “सुपर्ब” कह पाया। श्रेष्ठतम के इस शब्द को कहते हुए उसकी चमकती आँखें आभार से नम हो गयी थीं। आँखों से आँखों का संदेश पढ़ा गया या न पढ़ा गया पता नहीं पर डीपी की आँखें कृतज्ञ थीं सुपर स्पेशलिस्ट डॉ. स्टीव से मिलकर।

अगले कुछ दिन ‘अपटिक’ कंपनी, शमी और डॉ. स्टीव के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा में बीते। डॉ. स्टीव के तीन प्रोफेसर को पिछले दस सालों में अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार मिल चुके थे। उसे समझ आ रहा था कि स्टीव को डॉ. स्टीव बनाने वाले लोग कैसे रहे होंगे। भाईजी जॉन बड़े ख़ुश हुए कि डीपी को यह सेमिनार इतना पसंद आया। शमी उन्हें कई बार आमंत्रित कर चुका था पर उनकी रुचि तब स्टॉक मार्केट में ध्यान केंद्रित करने की बिल्कुल नहीं थी। अब जब डीपी अलग-अलग क्षेत्रों में निवेश की बात करने लगा है तो वे भी इस बारे में सोच रहे हैं। डीपी को इस सेमिनार में भेजने की यही मंशा थी।

“बड़े और लंबे समय के लिए निवेश को अपना कार्यक्षेत्र बनाना हो तो ‘अपटिक’ को अपना सलाहकार बनाना होगा। उनकी प्रारंभिक फीस ही पच्चीस हज़ार डॉलर सालाना है।”

“क्या” डीपी को अपने कानों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ।

“मैं भी ऐसे ही चौंका था डीपी। तुम और सोच लो, वैसे शमी का सुझाव है कि शेयर बाज़ार को समझने की कोशिश में हमें समय लग सकता है। ‘अपटिक’ के साथ भी जाना हो तो हमें कम से कम एक मिलियन डॉलर के पोर्टफोलियो से शुरू करना होगा। यदि हम तीन लाख डॉलर जमा कराते हैं तो वह मार्जिन अकाउंट खोल कर सात-आठ लाख डॉलर की लोन सुविधा दिला देगा। हम धीरे-धीरे रियल इस्टेट से थोड़ा भिन्न भी कर सकते हैं वरना फिर से अपने सब अंडों को रियल इस्टेट के बास्केट में डालने की ग़लती होगी।”

“भाईजी, समझने के लिए भी तो काम शुरू करना ही होगा। क्यों न हम ‘अपटिक’ के साथ शेयर बाज़ार में काम शुरू कर दें, प्रयोग कर सकते हैं, सफलता मिलेगी, नहीं मिलेगी पर धीरे-धीरे हमारा हौसला ज़रूर बढ़ेगा और जानकारी भी।

“डीपी, विशेषज्ञता हासिल करने के लिए फोकस ज़रूरी है। मेरा विचार है हम निवेश के लिए अलग कंपनी बनाते हैं। पचास प्रतिशत शेयर तुम्हारे और तुम्हारी कंपनी के, शेष पचास प्रतिशत शेयर मेरे और मेरी कंपनियों के। क्या कहते हो तुम?”

“जी पचास-पचास प्रतिशत वाला विचार बहुत अच्छा है, भाईजी। वैसे भी मेरे लिए इससे अधिक फंड्स की जुगाड़ करना मुश्किल होगा।”

“मेरे लिए भी डीपी, इतनी नग़द राशि तो होती नहीं है खाते में। हम दोनों की सहमति है तो फिर अब अपने अटॉर्नी से मिल कर सब दस्तावेज बनवा लेते हैं।”

“बिल्कुल सहमत हूँ आपके विचार से। इस तरह हमारी पूँजी भी, हमारे क़र्ज़ और देयता की सीमा रेखा को तय करने में मदद करेगी। एक सवाल उठ रहा था मन में भाईजी, कि अलग-अलग काम होने से क्या हम हर जगह फोकस कर पाएँगे?”

“मुझे पता है अलग-अलग काम होने से ध्यान बँट जाएगा लेकिन इसके लिए हमारे पास लोग होंगे। साथ ही, इस बार धीरे-धीरे चलेंगे। तेज़ चलने के नुकसान से तुम परिचित हो। लोन की चिन्ता करने से पहले अपना काम बढ़ाओ, व्यापार बढ़ाओ। हमें बैंक जाने की ज़रूरत नहीं होगी, बैंक वालों को हमारे पीछे आने दो। किसी एक कंपनी को घाटा हुआ तो उसकी देयता का दायित्व उसी का होगा। व्यापार में घाटे का प्रावधान ज़रूरी है। हमेशा लाभ नहीं होता। बाज़ार ऊपर नीचे होगा, लाभ-हानि भी ऊपर-नीचे होगी।”

फ़ोन की घंटी घनघनायी तो भाईजी जॉन अपनी सलाह देकर चले गए, उन्हें किसी रियल इस्टेट के किसी ख़ास सौदे के लिए समय पर पहुँचना था। शेष कामकाजी निर्णय डीपी को लेने थे। उनकी ख़ास बात यही थी कि वे अपनी राय रखते थे, सोचने के लिए पूरा समय देते थे, दबाव नहीं डालते थे। निर्णय लेने का अधिकार ख़ुद व्यक्ति का हो तो बेहतर परिणाम की उम्मीद अधिक होती है। अपनी ज़िम्मेदारी से काम करने की दक्षता बढ़ती है। डीपी को भाईजी जॉन की यह बात बेहद पसंद थी।

नयी कंपनी बनाने के लिए अटॉर्नी से समय लिया। अगले दिन ठीक दस बजे मुलाकात हुई। सारी स्थिति बताने के बाद योजना के अनुकूल चर्चा हो गयी - “बेहतर सर। तो शेयर्स के लिए हम कुबेर इंवेस्टमेंट नाम की कंपनी खोल सकते हैं। कुबेर रियलिटी तो है ही लेकिन एक नयी कंपनी कुबेर इंक भी हो सकती है।”

“क्या बात है! बहुत ही अच्छा सुझाव है, कुबेर इंवेस्टमेंट ठीक रहेगा। सामान्य तौर पर कंपनी के शेयर होल्डर्स का मुनाफ़े में सत्तर प्रतिशत होगा, दस प्रतिशत ख़र्चों के लिए और बीस प्रतिशत मदर कंपनी के लिए। इसमें आपकी सहमति न हो तो बताएँ और कोई सुझाव हों तो बताएँ।”

“बिल्कुल नहीं सर, यह तो श्रेष्ठतम योजना है। मैं जल्दी से जल्दी काम शुरू करवाता हूँ। कंपनी के रजिस्ट्रेशन आदि कार्यों में अब अधिक समय नहीं लगेगा।”

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