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कुबेर - 4

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

4

और सचमुच इस तरह दूसरों का काम भी धन्नू अपने ऊपर ले लेता ताकि कोई भी किसी तकलीफ़ में न रहे। एक बार जब बीरू की उँगली कट गयी थी तब उसका सारा काम धन्नू ने ही सम्हाला था। तब से आज तक बीरू उसे भाई कहता था और उसने कभी अपने भाई को किसी शिकायत का मौका नहीं दिया था। धीरे-धीरे बीरू और छोटू भी धन्नू का ध्यान रखने लगे जिसके बोए नेह के बीज धीरे-धीरे अंकुरित हो रहे थे।

यूँ अपनी सहृदयता से सबके मन में उसके लिए जगह बनने लगी थी। यदा-कदा कुछ शिकायती स्वर उठते भी तो - “जिसकी ज़रूरत हो उसे तो दबना ही पड़ता है।” इस बात को सबको समझने-समझाने में धन्नू सबकी ताक़त बनता। उन्हें हँसाने की कोशिश करता – “देख छोटू तेरी नाक पर मक्खी बैठी है।”

छोटू अपनी नाक को हाथ से चपत मारता तो दोनों हँस पड़ते। छोटू भी तुरंत बदला लेता कहता – “पीछे मालिक खड़े हैं।” वे दोनों घबराकर पीछे मुड़ते तो छोटू की बदले की हँसी फूट पड़ती।

किसी नेता की तरह अपनी टीम बनाने लगा था धन्नू। किसी का भाई तो किसी का मददगार साथी, मालिक का चहेता और ग्राहकों का पसंदीदा वेटर। महाराज जी का तो दायाँ हाथ था वह। हर चीज़ पक जाने के बाद वे धन्नू को बुलाते और मसाला चखाते। नमक कम है, ज़्यादा है, मज़ा नहीं आ रहा जैसे वाक्य महाराज जी का पूरा दिन सुधार देते। इस चखने-चखाने में खाने का स्वाद एकदम बढ़िया हो जाता और दिन भर अच्छा खाना खिलाकर वे ग्राहकों की तारीफ़ बटोरते।

पालक-पनीर, शाही पनीर, आलू-गोभी, दाल मखनी, नान, ऐसे कई नाम थे जो कभी भी नहीं सुने थे उसने पर अब रोज़ जी भर कर खाने मिलते। छौंक लगाना, रोटी सेंकना, चावल धोना, एक के बाद एक सारे काम ऐसे निपटाता जैसे वही ढाबे का मैनेजर हो। हर काम को करने के लिए पूरी तत्परता से हाजिर होता धन्नू।

मालिक के ढाबे में ही नहीं दिल में घर करता गया वह। वे छोटी-छोटी बातें जो होटल को चलाने में ख़ास रोल अदा करती हैं, जिन बातों पर और किसी का ध्यान नहीं जाता उन बातों पर धन्नू का ध्यान जाता। जिन बर्तनों में खाना बनता था वे सब काले-काले हो गए थे। धन्नू उन्हें रगड़-रगड़ कर इतना चमकाता कि जब तक उस चमक में अपना चेहरा न दिखने लगे वह उसे रगड़ता रहता। उसे लगता कि जब खाना ढँक कर रखा हुआ हो तो बर्तनों की कालिमा देखकर किसी को ख़राब न लगे। अंदर रखे स्वादिष्ट खाने का आधा स्वाद बर्तनों को देखकर ही ख़राब न लगने लग जाए। यह धन्नू की अतिरिक्त मेहनत का ही फल था कि हर प्लेट को धोकर-पौंछकर जब खाना लगकर आता तो खाने वाले जो अधिकतर हाई-वे पर ट्रक चलाने वाले थे, उनका मन ख़ुश हो जाता।

सफाई का सबसे ज़्यादा ध्यान रखता था धन्नू। तौलियों को इतना साफ़ रखता कि हाथ पौंछने वाला चाहे कितना ही मैल से सना ड्राइवर हो अच्छी तरह हाथ धोकर ही लेता। कभी-कभी जब कोई गंदे हाथ से तौलिया लेने लगता तो झट साबुन और पानी पकड़ा देता वह।

दीवारों की रेंगती छिपकलियाँ इन होटलों के मालिकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती थीं। वे कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़तीं पर जो भी एक नज़र देख ले, सिहर जाए। काली-भूरी, मोटी–पतली, छोटी-लम्बी हर आकार की छिपकलियाँ। मोटी-मोटी तो दीवार से टिकी रहतीं पर छोटी और पतली छिपकलियों का गाहे-बगाहे संतुलन बिगड़ जाता और टप्प से नीचे गिर जातीं। अब उन्हें यह तो पता नहीं होता कि नीचे क्या है, आटा है या दाल है। कभी दीवार से नीचे गिरतीं तो सबके कलेजे मुँह को आ जाते। धन्नू की चुस्ती फुर्ती वहीं दिखाई देती। कोई भी तपेला कभी खुला नहीं रहने देता। दुकान मंगल होने के बाद चारों और छिड़काव करता ताकि न मच्छर हों और न छिपकलियों का खौफ़ हो।

ये सारी छोटी-छोटी बातें मालिक गुप्ता जी देखते तो बहुत ख़ुश होते। कम से कम एक मेहनती लड़का तो है उनके ढाबे पर जो बिना कहे भी कई ऐसे काम करता है जो मालिक को भी याद नहीं आते। उससे बात करते हुए उनकी आवाज़ थोड़ी धीमी हो जाती। काम का आदर होता तो काम करने वाले का भी मान बढ़ता। मालिक धन्नू का सम्मान करने लगे या धन्नू के काम का, एक ही बात थी। एक छोटा-सा लड़का अपने काम की तन्मयता से अपने आसपास के माहौल को भी एक नयी ऊर्जा दे देता था।

अब मालिक कई बार उसे अपने घर भी भेज देते थे। सबसे साफ़-सुथरा लड़का जो था धन्नू। जब उनके घर जाता तो उनकी बेटी के साथ खेलता। वहाँ पड़े हुए रद्दी अख़बारों में से छोटे टुकड़े लेकर उसके लिए कागज़ की नाव बनाता, कागज़ का हवाई जहाज बनाता। उसे सिखाता कि कैसे छोटे-छोटे कागज़ के टुकड़े अच्छे खिलौनों में बदल जाते हैं। ये छोटे-छोटे खिलौने उस बच्ची के लिए नये होते। ख़ूब ख़ुश होती गुप्ता जी की बिटिया। रोज़ अपने पापा को कहती – “पापा, आज धन्नू भैया को भेजना।”

जब धन्नू भैया को उनकी अपनी बिटिया याद करती तो मालिक की नज़रें जान जाती थीं कि – “यह लड़का जो भी काम करता है दिल से करता है, मक्कारी कभी नहीं करता।” ख़ुश होकर कुछ अतिरिक्त पैसे देते उसे। उसके आराम का ध्यान रखते। उसे जल्दी सोने को कहते। कभी थोड़ा सुस्त दिखता तो उसके माथे पर हाथ रखकर देखते कि कहीं बुखार तो नहीं है उसे। धन्नू की वजह से अब वहाँ काम करने वाले किसी भी लड़के को डाँटा नहीं जाता था, घुड़काया नहीं जाता था। सभी के साथ अच्छे बरताव से ढाबे के सारे काम करने वालों में एक नया उत्साह रहता, चुस्ती-फुर्ती रहती।

इधर धन्नू को मालिक से भी और उनके परिवार से भी प्यार मिलने लगा तो वह और भी मन से काम करने लगा। मालिक के घर जाने से उसे घर की याद आने लगती। मालकिन को देखता तो सोचता अगर - “माँ भी ऐसे कपड़े पहनें, ऐसी साड़ी पहनें तो कितनी अच्छी लगेंगी।” उनको घर के आसपास घूमते देखकर, उसके पास बैठकर उसे कुछ खिलाते देखकर उसे ऐसा लगता जैसे वे माँ ही हों। वे धन्नू को जब प्यार से बैठा कर बातें करतीं तो उस दिन उसे माँ की बहुत याद आती।

“धन्नू बेटा ले ये पकौड़े खा ले।”

“आज मैंने खीर बनायी है बेटा, ले ज़रा चख कर तो बता, अच्छी तो बनी है न।”

खीर खाते हुए धन्नू की आँखें गोल-गोल होकर घूमतीं तो उसकी इस मौन प्रशंसा से वे मुस्कुरातीं, वापस आकर थोड़ी और खीर डाल देतीं उसकी कटोरी में। धन्नू इस स्वादमयी प्यार से फूला न समाता। खीर की मिठास कई मीठे रिश्तों को जन्म देती।

महीनों के उसके काम का असर हर कहीं दिखाई देता। हर जगह उसकी ज़रूरत होती। यही हाल धन्नू का भी था वह भी हर जगह रहना चाहता था। काम से फुरसत मिलते ही बीरू और छोटू के साथ खेलता भी था। कभी छुपा-छुपी तो कभी अंटियों का खेल। कई बार झूठमूठ में हार जाता था ताकि छोटू को ख़ुश कर सके। सबसे छोटा लगता था छोटू इसलिए उसे हँसाता भी चिढ़ाता भी। सबको इतना अपना मानता था कि यही चाहता था सबकी जितनी मदद कर सके, करे। ख़ास तौर से उसका नन्हा मन अपनी माँ से दूर एक और माँ को पाकर दुगुने उत्साह से काम करने लगता।

माँ के पास जाने की ललक में उसके हाथ और तेज़ी से चलते। अब ढाबे पर तीनों बच्चे बहुत ही कुशलता पूर्वक अपना काम करने लगे थे। धन्नू नये-नये काम ढ़ूँढ कर ख़ुद को व्यस्त रखता तो छोटू और बीरू भी उसका पूरा साथ देते। भोजन, सफाई और सर्विस का स्तर ढाबे के ग्राहक निरंतर बढ़ाता रहा और सेठजी धन्नू के साथ अन्य लड़कों की तनख़्वाह भी बढ़ाते रहे। मिलकर काम करने और मिलकर फायदा लेने का तालमेल गुप्ताजी के ढाबे के नाम को चमकाता रहा।

धन्नू के पास पैसे आते रहे, इकट्ठे होते रहे। ख़र्च तो कहीं होते नहीं थे। हाँ, कभी-कभी अपने लिए अच्छे कपड़े और जूते ख़रीदने जाता था। दूसरे बच्चों को भी साथ ले जाता। सब साथ में घूम-फिर कर समय के पहले ही लौट आते। पैसों की बचत होती रही और मन बेताब होने लगा माँ-बाबू से मिलने के लिए। उन्हें बता तो दे कि वह आराम से है। उनके लिए कपड़े भी लाया है। उन्हें ढाबे पर लाना चाहता है। सेठजी से मिलवाना चाहता है। सेठजी से इज़ाजत मांगी तो वे ख़ुश हुए क्योंकि धन्नू को आए लगभग छ: महीने हो चुके थे। उसे पता नहीं था कि इस जुगाड़ में इतना समय निकल चुका है। वह तो बस काम कर-करके दिलों को जीतने में लगा हुआ था।

“सेठजी मैं घर जाना चाहता हूँ माँ-बाबू से मिलने।” बहुत ही विनम्र आवाज़ में उसने पूछा।

“कितने दिन के लिए” धन्नू की आँखों में देखते हुए गुप्ता जी पक्का करना चाहते थे कि बहुत दिनों के लिए तो नहीं जा रहा है न। उसके आने के बाद दोनों बीरू और छोटू भी फटाफट काम करने लगे थे।

“बस मिल कर आ जाऊँगा।”

“जाओ बेटा, पर जल्दी आना वापस, यहाँ इतना काम है।”

“जी मालिक, माँ-बाबू के लिए कपड़े खरीदूँगा और जाकर मिल कर आ जाऊँगा।”

“ये लो कुछ पैसे, देखो जल्दी आना, तुम्हारे बिना मैं अकेला पड़ जाऊँगा।”

“जी मालिक, बस मिलकर आ जाऊँगा, माँ को बहुत चिन्ता हो रही होगी।”

गुप्ता जी ने ख़ुशी-ख़ुशी कुछ और पैसे देकर भेज दिया उसे। मालिक की कड़कदार आवाज़ के नीचे उनका सहृदय दिल भी है इसका अहसास उसे काफी समय से हो रहा था पर जब उन्होंने अतिरिक्त पैसे दिए तो धन्नू को लगा सचमुच वह किस्मत वाला है। मालिक तो उसके लिए भगवान का दूसरा रूप है जिन्होंने उसे काम देकर उसका जीवन ही बदल दिया। वैसे भी काम करवाना तो हर कोई जानता है पर काम को सम्मान देना हर किसी के बस की बात नहीं।

ख़ुशी-ख़ुशी बाज़ार जाकर माँ के लिए एक साड़ी, चमकती बिंदी का परचा और साड़ी के रंग की चूड़ियाँ खरीदीं। जब मालिक के घर गया था तब उसने देखा था मालकिन को। हमेशा साड़ी के रंग की चूड़ियाँ पहनती थीं वे। उसे बहुत अच्छा लगता था उन्हें देखना। बस यही सोचता रहता था कि अगर माँ भी ऐसे कपड़े पहनें, ऐसी चूड़ियाँ पहनें और बड़ी-सी बिन्दी लगाएँ तो कितनी अच्छी लगेंगी। हाथ के परचे की गोल-गोल बिन्दी माँ के माथे पर लग कर आँखों के सामने आती है तो मुस्कुरा देता है वह। हाथ और पैरों में और अधिक स्फूर्ति महसूस होते ही तेजी से आगे जाकर बाबू के लिए भी एक कमीज़ और पैरों की चप्पल ख़रीद कर उमगता हुआ घर के लिए रवाना हुआ।

जब घर पहुँचा तो ढूँढता रहा माँ को, बाबू को। दोनों कहीं नहीं मिले। जानता था सभी लोग दिन में कहीं न कहीं काम करने जाते हैं। माँ-बाबू भी गए होंगे। शाम तक ही लौटेंगे। वहीं बैठकर अपने खरीदे हुए सामान को अलटता-पलटता रहा और सोचता रहा कि माँ-बाबू जब लौटकर उसे देखेंगे तो कितने ख़ुश होंगे। पहले तो डाँटेंगे, चिल्लाएँगे और फिर माँ के हाथ की गरम-गरम रोटियाँ खाने मिलेंगी।

सूरज मद्धम हो रहा था। शाम भी होने लगी मगर माँ-बाबू नहीं आए। लेकिन हाँ दिन भर चरने गए कुछ ढोर आकर वहाँ रुकने लगे मानो यह उनका घर हो और उन्हें खूँटे से बाँधने के लिए उनके मालिक पीछे-पीछे आ रहे हों। हो सकता है माँ-बाबू ने ही ले लिए हों ये ढोर। मगर उनका कोई छोटा-मोटा सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था। जहाँ वे रहते थे वह छत अभी भी वहीं थी मानो सिर्फ़ धन्नू की प्रतीक्षा कर रही हो। कई विचार आए और गए, अच्छे भी और बुरे भी। कहीं उसे ढूँढते हुए शहर तो नहीं चले गए। सारा दिन इधर-उधर टल्ले मारने के बाद भी कोई जान-पहचान वाला नहीं मिला – “आख़िर सब गए कहाँ?” दूर तक घूम-घूम कर ढूँढता रहा धन्नू कि किसी से भी, कहीं से भी, कोई तो ख़बर मिले।

आख़िरकार, गाँव के बाहर गली के परली छोर पर रहने वाला हीरू मिला। उसके दूर के मामा का लड़का। कहने लगा – “तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे माँ-बाबू तो बहुत बीमार रहते थे। माँ को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। तुम गए उसके एक महीने के बाद एक दिन अस्पताल में ही दम तोड़ दिया तुम्हारी माँ ने और फिर दो महीने बाद बाबू गए अस्पताल और फिर लौट कर नहीं आए। पहले माँ और फिर बाबू दो महीने में दोनों चले गए।”

“तुम्हें बहुत ढूँढा हमने पर कहीं नहीं मिले तुम।”

“मैं ही था उनके पास।”

“मेरी माँ भी चल बसीं, मेरे बाबू हैं पर देख नहीं सकते।”

“तुम कहाँ थे धन्नू और इतने दिन आए क्यों नहीं”

धन्नू सुन रहा था पर अनसुना-सा महसूस कर रहा था। हाथ-पाँव बिल्कुल सुन्न थे। हाथों की थैलियाँ ज़मीन पर गिरने लगी थीं। अंदर का सामान जोर-जोर से चीख-चीख कर कह रहा था – “तुमने आने में बहुत देर कर दी।”

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