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कुबेर - 9

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

9

स्कूल की यादें धन्नू के लिए एक दु:स्वप्न की तरह थीं लेकिन बुनियाद वहीं रखी गयी थी। फीस के पैसों की उगाही बार-बार उसके ज़ेहन को पढ़ाई-लिखाई से दूर रहने को मज़बूर करती थी। स्कूल में दूसरे बच्चे जब उसकी ओर हिकारत से देखते तो उसका ख़ून खौल जाता था। सोचता कि अगर कैसे भी करके फीस भरने के पैसे मिल जाएँ तो सबके सामने उनकी मेज़ पर ले जाकर पटक दे। उसका गुस्सा उन नेताजी पर सबसे ज़्यादा था जो उसे इस स्थिति में छोड़ने के ज़िम्मेदार थे। इतनी उदारता दिखाने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। अपने फ़ायदे के लिए, अपने वोटों के लिए और अख़बारों में अपने फोटो छपवाने के लिए बालक धन्नू की बलि चढ़ा दी गयी थी।

अब तक का वह गुस्सा दादा के साथ अंग्रेज़ी सीखते हुए कम हुआ है। पहले से नहीं सीखी होती तो अभी कितना मुश्किल होता। मंत्री जी के लिए मन में आए वे ग़लत भाव बदलने लगते। उनकी सराहना करने लगते। माँ भी ठीक ही कहती थीं कि – “सीखी हुई कोई भी चीज़ कभी बेकार नहीं होती, एक न एक दिन काम आती है।”

गणित में उँगलियों में हिसाब कर लेता था वह। हिन्दी में तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। अंग्रेज़ी की टांग तोड़ना आने लगा था अब। एक डिक्शनरी, एक ग्रामर की पुस्तक और हिन्दी-अंग्रेज़ी शब्द भंडार, ये तीन किताबें अब उसके साथी थे।

दादा ने सिखाया था कि किस तरह बगैर कागज़ देखे बोला जा सकता है, भाषण दिया जा सकता है। वे कहते थे – “पहले पढ़ो और उसे समझो। जो हमारे दिमाग़ में है उसके लिए कुछ मुख्य बिन्दु बनाओ और उन्हें लिख लो। हर एक बिन्दु को कैसे समझाया जा सकता है यह अगर दिमाग़ में है तो बोलना आसान हो जाता है। धीरे-धीरे आपने जो समझा है वह अपने आप शब्दों में बाहर आएगा। इस तरह आपको सब कुछ देखकर बोलने की ज़रूरत नहीं होगी। एक बिन्दु को समझाने के बाद अगला बिन्दु शुरू करो तो सब कुछ समझाना बहुत आसान हो जाएगा।”

“हाँ, अगर ख़ुद ही नहीं समझे तो फिर आपका लोगों को समझाना बेकार है। वह आपकी असफल कोशिश होगी। इसलिए पहले ख़ुद समझो, अपने मन में जितने प्रश्न बन सकते हैं बनाओ और उनका हल ढूँढो। इसके बाद कभी भी, कोई भी, कुछ भी पूछेगा तो उत्तर हाजिर होंगे।”

दादा की यह समझाइश डीपी के दिमाग़ में गहरे तक पैठ गयी थी। डीपी वैसे ही करता। यूँ जिन पृष्ठों को पढ़ता उनके संदेश उसके दिमाग़ में बहुत ही स्पष्ट होते। खो जाता उन जवाबों में। उन संदेशों का सार सदैव के लिए स्मृति में जमा हो जाता। ठीक वैसे ही जैसे ‘दो एकम दो, दो दूनी चार’ पहली कक्षा में सीखा था, नींद में भी उठाकर बोलने के लिए कहा जाए तो बोल सकता है। कभी भूल ही नहीं सकता वे सारे पहाड़े जो उसने रट लिए थे। पहाड़े एक बच्चे के लिए पहाड़ चढ़ने के बराबर हैं शायद इसीलिए इन्हें पहाड़ा कहा जाता है। इन पहाड़ों की तरह और ठीक वैसे ही एक के बाद एक पढ़ी प्रमुख किताबों के अंश जमा हो रहे थे उसके दिमाग़ में।

दादा के कहे अनुसार कुछ-कुछ अंग्रेज़ी में और कुछ हिन्दी में। दादा कहते - “जो भी भाषा बोलो चाहे फिर वह अंग्रेज़ी हो या हिन्दी, विशेषज्ञता के साथ बोलो। हिन्दी बोलो तो भी सबको ऐसा लगे कि तुम हिन्दी के ख़ास जानकार हो। श्रोताओं को देखो, पहचानो कि उन्हें कौन-सी भाषा अच्छी लग रही है। अगर अधिकांश लोग हिन्दी जानने वाले हैं और तुम अंग्रेज़ी में बोल रहे हो तो वे कुछ नहीं समझ पाएँगे। यह हम पहले से तय नहीं कर सकते। उसी समय सुनने वालों के चेहरों को देखकर हमें अपनी स्पीच की दिशा और स्पीच की भाषा तय करनी पड़ती है, उसी समय उसे बदलना पड़ता है। एक अच्छा स्पीकर यही करता, है पहले श्रोताओं को पहचानने की कला सीखता है फिर उनके ज्ञान के स्तर के अनुसार अपनी स्पीच डिलीवर करता है।”

उसके भीतर तक ये बातें पहुँचती रहीं।

महीनों की समयावधि में बाइबल और रामकथा के कई पेज ऐसे थे जो डीपी के दिमाग़ में रट से गए थे। वह सत्रह से ऊपर का हो चुका होगा शायद। अब रविवार की सभा में उसका किताबों के अंश पढ़ना शुरू करने का उचित समय लगा दादा को।

ऐसे ही एक रविवार को दादा ने पूरी सभा को उसका परिचय दिया – “ये डीपी हैं, मेरे नये शिष्य, आज आप पहली बार इनकी स्पीच सुनेंगे। ये अभी जीवन-ज्योत में नये हैं और उम्र में भी बहुत छोटे हैं सिर्फ़ सत्रह वर्ष के हैं। इन्होंने जो सीखा है वह बहुत कम समय में सीखा है। आशा है कि आप इन्हें प्रोत्साहित करेंगे।”

पहली बार जब वह पोडियम पर पहुँचा तो तालियों से स्वागत हुआ उसका। बच्चे की उम्र का सम्मान था यह। डीपी आत्मविश्वास से भरा था। उसने देखा था जब दादा वहाँ होते हैं तो अपनी स्पीच शुरू करने से पहले भगवान की ओर मुड़ कर देखते हैं। उसने भी वही किया और अपने लिखे हुए बिन्दुओं के अनुसार शुरू हो गया। दादा आँखें मूँदे उसकी सफलता के लिए प्रार्थना करते दिखे जैसे यह डीपी की नहीं स्वयं उनकी परीक्षा हो।

वह बोलता रहा। जब स्पीच ख़त्म हुई तो लोग खड़े हो गए। वह पहली प्रस्तुति इतनी आत्मविश्वास से भरी थी कि सुनने वालों ने बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उसका उत्साह बढ़ाया। धन्नू जैसे बच्चे के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। दादा ने उसे गले से लगा कर रखा बहुत देर तक।

पीठ पर थपथपाहट बहुत कुछ कह रही थी। ठीक वैसी ही अनुभूति थी जैसी ढाबे को छोड़ते हुए महसूस की थी जब गुप्ता जी ने उसे वैसे ही गले लगाया था और दादा के साथ भेजा था। एक ऐसे विश्वास के साथ कि – “मैं हमेशा यहाँ हूँ तुम्हारे लिए, जब मन करे आ जाना।” आज वैसे ही दादा का विश्वास भी जीत लिया था उसने। उनके इस प्यार से डीपी अभिभूत था। ऐसा प्यार जिसकी भाषा को पढ़ना बहुत आसान था। ऐसा स्पर्श जो ज़ेहन में सदा-सदा के लिए अंकित हो गया था।

हर रविवार को आने वाले लोगों के लिए दैनिक जीवन से जुड़ी बातें, रामकथा और बाइबल में लिखे अंशों को समझाने लगा वह। बच्चे की भाषाई चतुराई से सुनने वालों को आनंद आने लगा। शब्दों का कुशल संयोजन हो तो गंभीर बातें भी सुनने में अच्छी लगती हैं। उनका भारीपन सहजता में बदल कर रुचिकर हो जाता है। मेहनत से भाषा और निखरने लगी, ऐसी जो सुनने वालों को भाव विभोर कर देती। अपनी ज़रूरतों के अनुसार स्थानीय लोगों की ज़रूरतों को समझना आसान था। वह उनकी भाषा में बोलता। इतनी सरलता से कही गई बड़ी बात अंदर तक जाती। लोगों को जीवन-ज्योत में वह मिलने लगा जिसके लिए वे वहाँ आते थे, शांति, ज्ञान और मन का चैन।

फर्राटेदार अंग्रेज़ी ने डीपी के दिमाग़ में अपनी जगह आसानी से बना ली थी। बड़ा हो रहा था वह। तन से ही नहीं मन से भी, दिमाग़ से भी। चौड़े कंधे और हष्ट-पुष्ट भुजाओं के साथ वह अपने साथ वालों से कहीं अधिक आकर्षक दिखता था। किशोर से नवयुवक बनने की सीढ़ी पर पहुँचते-पहुँचते लोगों के लिए प्रेरणादायी भाषण देने वाले दादा के सहायक के रूप में उसकी ख़ूब चर्चा होने लगी। धार्मिक कभी नहीं था वह, कभी किसी भगवान की फोटो नहीं थी घर की दीवार पर। होती भी कैसे दीवार तो वहाँ थी ही नहीं वहाँ तो सिर्फ़ छत थी, पानी और धूप से बचाने के लिए।

वह सीख रहा था सब कुछ। कभी-कभी दादा को कहीं जाना होता और कन्फेशन रुम की घंटी बजती तो उसे जाकर फ़रियादी को सुनने की अनुमति होती। दादा के द्वारा उसे दिए अधिकार बढ़ते रहे, साथ ही साथ उसकी ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ती रहीं।

एक दिन दादा की तबीयत ख़राब थी। वे अपने कमरे में आराम कर रहे थे। एक लड़की ‘कनफेस’ करने आई। उसे नहीं पता था कि अंदर दादा के बजाय एक युवा लड़का है। वह बोलती चली गयी, अपने अंदर की वेदना को आँसुओं में बहाती वह इस क़दर खो गयी थी कि बस रोती रही, कहती रही। जब कुछ क्षणों का मौन हुआ तो उसे अहसास हुआ कि अब तक दादा ने एक शब्द भी नहीं कहा है।

“आप कहिए दादा, मैं कैसे इस अपराधी भावना से मुक्ति पाऊँ, कैसे आगे का जीवन जीऊँ, मैं कहाँ जाऊँ...?”

फिर भी उधर से उत्तर नहीं मिला तो वह बोली – “आप कुछ बोल नहीं रहे दादा, शायद मेरी ग़लती है। ठीक है दादा, मैं जाती हूँ।”

उस लड़की ने जो कुछ कहा। उसकी व्यथा से दिल भर आया था डीपी का। उसे सांत्वना तो देनी ही थी - “जिसका कोई नहीं उसका तो भगवान होता है।”

दादा के बजाय किसी और की आवाज़ सुनी तो घबरा गयी वह।

“घबराओ मत, मेरा नाम डीपी है, दादा की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए मैं यहाँ हूँ। चलो मैं तुम्हें दादा से मिलवाता हूँ।” उसे दादा के पास ले गया डीपी। दादा को उसके बारे में बताया तो वे भी द्रवित हो गए। उनकी शरण में जाने के बाद किसी बेघर व्यक्ति को घर न मिले संभव ही नहीं था।

“तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है बेटी, तुम यहीं रहो आज से।”

वह रोने लगी धार-धार। सुना था कि भगवान होते हैं पर आज देख भी लिया था उसने। दादा ने एक नया नाम दिया उसे ‘मैरी’, ईश्वर की माँ मैरी।

उस लड़की में डीपी को गुप्ता जी की बेटी दिखी जो अब इतनी बड़ी तो हो ही गयी होगी। डीपी ने उसे अपनी बहन बनाया। रिश्ते बने, दिल के भी और दिमाग़ के भी। मैरी ने भी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। मैरी और डीपी अब दादा के दो हाथ थे। दोनों मिलकर उन सारे बच्चों का ध्यान रखने लगे जो दादा की शरण में थे। सारे बच्चे भाई डीपी और ताई मैरी को बहुत चाहते थे। पढ़ाई से लेकर उनके खेलकूद तक की ज़िम्मेदारी डीपी और मैरी की थी।

वह काम के समय काम करता और मैरी को जी भर कर हँसाता भी। उसके बाल बहुत घने और लम्बे थे। मोटी-सी चोटी बनाती थी। वह मैरी की चोटी को खींचता और कहता – “तुम्हारी चोटी में चुहिया है!”

पहली बार वह सचमुच ही डर गयी थी। अपने हाथों से चोटी को झिंझोड़ने लगी तो डीपी हँसने लगा। उसे हँसते देख समझ गयी कि भाई ने मज़ाक किया है – “आपको मैं छोड़ूँगी नहीं, भाई” कहती उसके पीछे दौड़ती तो डीपी दौड़कर सुखमनी ताई के पीछे छुप जाता।

“पकड़ सको तो पकड़ लो, मैं चाईना वॉल के पीछे छुपा हूँ।”

“मैं तुम्हें चाईना वॉल जितनी बड़ी लगती हूँ, ठहरो तुम।” सुखमनी ताई उसे पकड़तीं तो वह फटाक से कहता – “ताई दूध उबल गया।” बेचारी दौड़ कर जाती तो पता चलता कि दूध तो था ही नहीं चूल्हे पर।

राखी के अवसर पर मैरी ने जब उसकी कलाई पर राखी बाँधी तो भाई डीपी सचमुच में बड़ा भाई बन गया। मैरी बोलती बहुत थी, उसके बड़बोलेपन को एक नाम दिया उसने कि – “चोटी की चुहिया बहुत चींचीं करती है।” प्यार से चींचीं कहता, चिढ़ाता और फिर हँसाता। यह सब तब होता जब दादा किसी काम से जीवन-ज्योत से बाहर होते या फिर कुछ दिन के लिए कहीं गए होते। दादा के रहते उनके सम्मान का पूरा ध्यान रखता डीपी।

एक भाई की तरह मैरी की चिन्ता करता। उसे पढ़ाता-लिखाता। अपने सीखे हुए पाठ को उसे समझाता। नहीं समझती तो कहता – “तुम तो बुद्धू हो।” वह भी पीछे नहीं रहती कहती – “हाँ हूँ, क्योंकि आपकी बहन जो हूँ।”

धीरे-धीरे भाई डीपी बड़ा भाई लगने भी लगा। पतली-सी मूँछें और दाढ़ी पर बालों की भीड़ बनने लगी, एक युवक की निशानी। शालीन व्यक्तित्व का धनी, अपने काम का दीवाना। एक ऐसा युवक जो दादा का शिष्य था, ऐसा शिष्य जिसके लिए भगवान कहीं और नहीं उसके पास ही रहते थे, वे थे उसके अपने दादा। इन दो शब्दों में पूरी दुनिया सिमटी हुई थी उसकी। दादा उसके ऐसे गुरू थे जिन्होंने कुम्हार बनकर अपने शिष्य को घड़ा था।

भाई डीपी और बहन मैरी दोनों बड़े हो रहे थे। मैरी भी इतनी बड़ी लगने लगी थी कि आसपास के लड़के उस पर नज़र डालने लगे। भाई डीपी देखता, समझता और उसका ध्यान रखता। उसे समझाता भी कि अपना ध्यान रखे। कोई भी फैसला करे, यह उसकी अपनी ज़िंदगी है पर सोच समझ कर करे। मैरी आँखों से ओझल होती दिखाई देती तो उसकी चिन्ता होने लगती डीपी को। उसे आश्चर्य होता भाई की चिन्ता पर – “यहीं तो थी भाई, आप भी न बस गुस्सा करते रहते हैं मुझ पर।”

“कितनी बार कहा है कि जहाँ भी जाओ कहकर जाया करो।”

“जीवन-ज्योत से बाहर नहीं गयी थी, मैं तो बस बच्चों के साथ खेल रही थी।”

डीपी की चिन्ता भी वाजिब थी, दादा सदा कहते थे - “असामाजिक तत्व कहीं भी असामाजिकता फैलाने से बाज नहीं आते हैं, चाहे वह जीवन-ज्योत हो या कोई और संस्था, कोई चर्च हो या कोई भी मंदिर-मस्जिद।”

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