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कुबेर - 5

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

5

वह वहीं बैठ गया पत्थरों के टीले पर। एकटक ताकता रहा शून्य में। स्तब्ध आँखें झपकना भी भूल गयी थीं। उसके जाने के चार महीने के अंतराल से माँ-बाबूजी दोनों चले गए थे। धन्नू इतना व्यथित हुआ कि आँखों से दो आँसू भी नहीं बहे लेकिन भीतर बहुत कुछ बहता रहा। दु:ख की चरम सीमा क्रोध को जन्म दे ही देती है, वही हुआ धन्नू के साथ। इतना दु:खी था कि अपनी पीड़ा को सम्हाल नहीं पाया। ख़ुद पर गुस्सा था, बहुत ज़्यादा। एक पत्थर हाथ में और दूसरा ज़मीन पर। उस पत्थर को कूटता रहा जोर-जोर से जब तक वह चूर-चूर नहीं हो गया। उस पत्थर के चूरे से ख़ामोशी के अलावा क्या जवाब मिलता माँ-बाबू के बारे में। न पत्थर बोले, न मिट्टी। अगर कोई बोल रहा था तो वह धन्नू ही था। अपने आप से बात करता, सवाल पूछता।

“आख़िर उसने इतने दिन क्यों लगा दिए यहाँ आने में।”

“जब माँ बीमार हुई होंगी तो कितना याद किया होगा उसे।”

“माँ की आँखें उन रास्तों पर रास्ता देख रही होंगी जहाँ से वह गया था।”

“चला तो गया था पर आशा तो होगी कि उन्हीं रास्तों से वह वापस भी तो आ सकता है।”

“जो उनके जीते जी नहीं कर पाया, अब उनके नहीं रहने पर कैसे कर सकता है।”

अपने माँ-बाबू की राह तकती आँखों का हिसाब देना होगा उसे।

जीवन भर का क़र्ज़ रह गया है उस पर। ऐसे कैसे छोड़ कर चले गए माँ-बाबू। अब क्या करे वह। इस संताप को अपने दिल से लगा कर रखेगा तो कुछ नहीं कर पाएगा। बच्चे के मन को जब आघात लगा तो गुस्से में उसने एक निश्चय किया। वह क्या था पता नहीं पर इतना ज़रूर था कि अब गुप्ता जी का ढाबा ही उसका घर है, जीएगा वहीं, मरेगा वहीं।

इस ज़मीन पर जहाँ उनका अपना घर तो था नहीं सिर्फ़ छप्पर लगा कर रहते थे, अब वह भी हथिया लिया गया था। लोगों ने अपनी गायें-भैसें बाँधने के लिए उस ज़मीन पर कब्जा कर लिया था जहाँ खेलते-कूदते धन्नू का बचपन बीता था। इन छ: महीनों में मानो सब कुछ बदल गया था। कई नये लोग भी थे जिन्हें अपने गाँव के आसपास उसने पहले कभी नहीं देखा था।

एक बच्चे को इस तरह घूमते हुए देखना वहाँ के लिए कोई नयी बात नहीं थी, कोई बड़ी बात नहीं थी। ठीक वैसे ही ढाबे पर रहकर रोज़ नये लोगों से मिलकर अनजान चेहरों में रहना धन्नू के लिए भी नयी बात नहीं रही थी। उसने उन नये लोगों से कोई सवाल नहीं किया। कोई जिरह नहीं की। ज़मीन तो उनकी थी नहीं सिर्फ़ उस पर छप्पर उन्होंने बनाया था। इधर-उधर से लकड़ियाँ और खस लाकर बनाया था धूप और पानी से बचने के लिए। छप्पर के नीचे रहने वाले ही नहीं थे तो अब वह कुछ लेकर करेगा भी क्या।

उसके लटकते ताक अभी भी इस बात की याद दिलाते थे जहाँ माँ अपने खाने-पीने का सामान रखती थी। एक छेद था जहाँ उसका स्कूल का बस्ता रखा जाता था। जो सबसे सुरक्षित जगह थी। अपनी गेंद उसी के पीछे रखता था पर अब वह भी वहाँ नहीं थी।

अपना छप्पर भी अब अपना नहीं रहा था किसी और का हो चुका था। छप्पर के उस पार दिखाई देता आकाश ज़रूर उसका अपना था जो अपनी ऊँचाइयों के लिए जाना जाता था। माँ-बाबू के लिए उसे उतनी ऊँचाई तक पहुँचना होगा ताकि वे उसे देख सकें, महसूस कर सकें उनके धन्नू को जिसे अब रोटी या दूध के लिए तरसना नहीं पड़ता है। उसके हर ओर खाना ही खाना है।

माँ से एक बार मिलना था बस। अपनी मेहनत का फल दिखाना था। उसके लाए हुए कपड़े उसे चिढ़ाने लगे तो हीरू को जाकर दे दिए, वह भी उदास हो गया। कैसी विडम्बना थी कि अपनी मामी के लिए दे रहा था पर मामी भी तो नहीं रही थीं। अब वह ख़ास साड़ी हमेशा के लिए अपने पास रखना चाहता था। इतनी ख़ास कि माँ कहीं भी हों, वे सदा उसी के पास रहेंगी। माँ का गुस्सा, माँ का प्यार सब कुछ याद आता और एक शून्य में खो जाता वह। धन्नू के लिए उनकी सारी छुपी हुई हसरतें उनके दिल से वापस आकर धन्नू को संदेश देतीं। वह भी उनसे कहता पहले जाकर पूछो माँ से कि जाने की इतनी क्या जल्दी थी। माँ चली गयी थीं, सदा के लिए धन्नू को अपराधी बनाकर। उनका एक दिन का मौन भी धन्नू के लिए असह्य था तो यह सदा का मौन देकर जाना कैसा इंसाफ़ था उसके साथ!

इस अपराध बोध को कम करने के लिए यहाँ कुछ नहीं था करने को। सिवाय इसके कि वह वापस लौट जाए ढाबे पर जहाँ उसने अपनी एक दुनिया बसा ली है। मन खाली हो चुका था। इतना खाली कि सोचने के लिए भी कुछ नहीं था, चिन्ता करने के लिए भी कुछ नहीं। माँ नहीं, बाबू नहीं, किसकी चिंता करता। कोई सामान नहीं था वहाँ। जो कुछ फटे-पुराने कपड़े-लत्ते थे वे कब के पत्थरों के ढेर में दफ़न हो चुके थे। पुराने घिसे हुए बरतनों को नया घर मिल ही गया होगा।

बचा ही क्या था वहाँ, यादें थीं बहुत सारी जिन्हें संदूकों की ज़रूरत नहीं थी।

उन हवाओं में, मिट्टी से पुती ज़मीन के उन हिस्सों में जहाँ-जहाँ माँ के हाथ लगे होंगे दिन भर बैठा ताकता रहा, माँ को ढूँढता रहा, बाबू को भी। उस पीली मिट्टी से लीपी गयी ज़मीन को सँवारने के लिए, समतल बनाने के लिए कितनी बार माँ की हथेलियों ने उस ज़मीन को सहलाया होगा, थपथपाया होगा और एक आकार दिया होगा। कभी-कभी वहीं आँगन लीपकर माँडने भी माँडती थीं माँ। सफ़ेद खड़ी के पत्थरों का चूरा करके पीली मिट्टी पर मंडा हुआ उनका रंगोली जैसा चौक बहुत ही सुंदर लगता था। दीवाली, होली, राखी जैसे त्योहारों पर ऐसे ही सजाती थी माँ अपने घर को।

आज उनसे आशीर्वाद मिलता, डाँट नहीं। आज उनसे वह सब मिलता जो इतने दिनों से उसकी कल्पना में था कि धन्नू को इस तरह देखकर वे दोनों कितने ख़ुश होंगे। उन्हें तो जाने की इतनी जल्दी थी। शायद उसके गाँव छोड़ने से वे निश्चिंत हो गए थे कि अब धन्नू अपना रास्ता खोज ही लेगा।

कोई नहीं बचा था उसका अपना। न ज़मीन न मिट्टी। पत्थरों के ढेर में कोई अपना नहीं था। मन उचाट होता, दिन उदास होता तो ऊर्जा के लिए अनायास याद आता पत्थरों का ज़ुनून।

‘जो हमसे टकराएगा, मिट्टी में मिल जाएगा।’

मिट्टी थी कहाँ मिलने के लिए, पानी देने के लिए, सींचने के लिए।

किसानों की दशा ज़मीन से जुड़ी होती, ज़मीन की दशा बादलों से जुड़ी होती और बादल कभी अपना रास्ता उस ओर बनाते ही नहीं। आते भी तो ‘यू टर्न’ ले लेते। प्रकृति की मेहरबानियाँ बंद थीं, किस-किस पर मेहरबान होती। इतने बड़े देश में, इतने लोगों की सुनना कैसे संभव था। लगता था जैसे बादल भी राजनेताओं की तरह मनमौजी होते जा रहे थे। जहाँ मन होता चले जाते, मन नहीं होता तो नहीं जाते। बंजर सूखी ज़मीन में गड्ढे ही हो सकते थे फसल नहीं। सूख-सूख कर ज़मीन में बची-खुची मिट्टी के ढेले बनते जाते, और फिर ये ही ढेले धूप में सूख-सूख कर पत्थर बन जाते। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती और धरती का ज़ुनून मानों आवाज़ देता।

‘जो हमसे टकराएगा, पत्थर बन जाएगा।’

धन्नू भी उनके बीच ढूँढता रहा अपनों को। कभी अपने घर की छत के नीचे तो कभी पंचायत के टापरे के नीचे जो सारे गाँव की एक सबसे सुरक्षित जगह थी। किसी जमाने में लगायी गयी मंत्रीजी की फोटो अब टूटी फ्रेम थी बिना काँच की। फोटो कहीं नहीं दिखता। कोई रुकता नहीं था यहाँ। एक दिन ख़ुद वह भी छोड़ कर चला गया था, माँ भी छोड़ कर चली गयीं और बाबू भी।

उसका दबा हुआ गुस्सा बाहर आने लगा। कुछ इस तरह कि ख़ुद को तकलीफ़ पहुँचाने का मन करता। इतना दिमाग़ चलता है उसका, कभी यह क्यों नहीं सोच पाया कि एक बार जाकर माँ को देख आए। क्यों इतने दिन लगाए उसने। पैसे तो उसके पास कई दिनों से थे तो क्या वह मालिक गुप्ता जी से छुट्टी लेने में डर रहा था। आख़िर सोचा क्या था उसने जो इतने दिन लग गए लौटने में। कहाँ गया था उसका वह शातिर दिमाग़।

धन्नू का गुस्सा बढ़ता माँ की मजबूरी को महसूस कर, यह सोच-सोच कर कि कैसे वे बीमारी में अकेली रही होंगी। बाबू के पास पैसे नहीं होंगे इलाज के लिए। दोनों मिलकर उसकी राह तकते रहे होंगे। उसके रहते भी जब कभी माँ की तबीयत ख़राब होती थी, वह बहुत बेचैन हो जाता था। माँ की हालत बहुत परेशान करती थी उसे, बहुत चुभती थी भीतर तक माँ की पीड़ा। यही सोचता रहता था कि बस थोड़ा बड़ा हो जाए, थोड़ा काम करने लगे तो पैसा कमाकर माँ को पूरा आराम देगा।

अपनी औक़ात से आगे माँ ने उसे अंग्रेज़ी स्कूल में डाला था, फीस के पैसे नहीं जुटा पायीं तो अपनी बेबसी को आँसुओं में बहने दिया। गुस्सा अब हर दम उसकी नाक पर ही रहता। किसी और पर नहीं ख़ुद पर। हालात को भी ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकता था। बेबसी के क्षणों में कई बार तो ख़ुद को सज़ा देना चाहता था पर शायद यह सोचकर ठहर जाता कि माँ को उसका ऐसा करना भी तो अच्छा नहीं लगता। उनके धन्नू को कोई चोट पहुँचाए तो माँ को और अधिक दु:ख होता चाहे फिर चोट पहुँचाने वाला स्वयं धन्नू ही क्यों न हो।

स्कूल का ऐसा बच्चा जो बहनजी के पूछने से पहले अपना जवाब तैयार रखता। सब साथ वाले लड़के अंग्रेज़ी से डरते थे लेकिन धन्नू को अंग्रेज़ी बहुत सरल लगती थी। एबीसीडी के छब्बीस अक्षर सीखने में बहुत तेज़ी दिखाई थी उसने। तीसरी कक्षा तक आते-आते अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान होने लगा था उसे। कई लड़के उसकी तरफ़ देखते मदद के लिए, वह अपना काम ख़त्म न करके दूसरों को काम ख़त्म करने में मदद करता। ये सब बातें एक-एक करके बहनजी के पास जातीं तब उनका क्रोध और भी बढ़ता जाता। बहनजी का क्रोध, माँ-बाबू का क्रोध और उसका ख़ुद का क्रोध, एक के बाद एक, परत दर परत जमते हुए सहनशीलता के रास्ते बंद कर चुके थे। सबने मिलकर धन्नू को घर से भागने पर मज़बूर किया था।

एक प्रण, एक निश्चय, उस आकाश के नीचे जो हमेशा उसका रहेगा, कभी कहीं नहीं जाएगा। वह जो कुछ नहीं कर सका उनके लिए अब करेगा। हर कहीं किसी भी ज़रूरतमंद की मदद करके अपने इस अपराध बोध से वह मुक्ति पा सकता है वरना इस व्यथा को झेलते-झेलते ख़ुद ही ख़त्म हो जाएगा। माँ-बाबू के प्रति अपना फर्ज़ पूरा करना है, वह क़र्ज़ चुकाना है जिसके लिए आया था मगर आने में देर कर दी।

आज जब गाँव वापस आया इतनी ख़ुशियों के साथ तो यहाँ कोई अपना नहीं मिला। तकदीर में शायद यही लिखा था। कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि लौट कर वापस ढाबे पर आ जाए उन लोगों के पास जो अब उसके अपने थे।

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