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कुबेर - 36

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

36

एक नया विचार था स्टॉक मार्केट की ओर ध्यान देने का। डीपी पढ़ने लगा, समझने लगा। डे ट्रेड की वर्कशॉप में भाग लिया और प्रेक्टिस अकाउंट खोल कर, बाज़ार की चाल देखने लगा, परन्तु कुछ ख़ास सीख नहीं पाया। कुछ विविधता भरे कोर्स, कुछ विशेष सेक्टरों पर केंद्रित वर्कशाप से सीखने की कोशिश की परन्तु वांछित ज्ञान से वह बहुत दूर था। सिखाने वाले तो वही सिखाते हैं जो उन्हें आता है, यह तो सीखने वाले पर है कि वह उससे कितना लाभ उठा पाता है।

वह छोटे-मोटे सौदे करता रहा। कोई लंबी छलांग नहीं लगायी, न ही ऐसा कर पाने की हिम्मत थी उसमें। दो-तीन महीनों की लगातार पढ़ाई और शेयर बाज़ार के कई खिलाड़ियों से बात करने के बाद भी कोई उसे ऐसा फॉर्मूला नहीं बता पाया जो लाभ कमाने की गारंटी देता हो। इस मशक्कत में उसके खाते में कोई लाभ नहीं था और सबसे बड़ी बात, कोई हानि भी नहीं थी। उसे लगा स्टॉक मार्केट में कछुए की गति ही ठीक थी जब तक बाज़ार की नस-नस समझ न आ जाए।

रियल इस्टेट में भी निवेश के लिए अभी बहुत समय था क्योंकि पैसों की रस्साकशी चाहे न रही हो मगर अभी भी खुला हाथ नहीं था। यह मानकर चलना था कि अपना बचाना है बाकी में नुकसान हो तो हो। रिस्क लेने से कभी डरना नहीं है। दूध का जला तो छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। वह दूध के जले मुँह की जलन से डरना नहीं चाहता था बल्कि सीखना चाहता था। सबक तो मिला था मगर एक बहुत बड़ी क़ीमत चुकाकर।

शुरू तो शून्य से किया था लेकिन अपनी मेहनत से नंबर भी जोड़े थे उसने और शून्य के बाद कई शून्य लगाए थे। धीमी गति से चलने में जो लाभ होना था, वह या तो होता ही नहीं था या फिर बहुत कम होता। अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में विश्वास के साथ फिर से आगे आने की कोशिश करनी थी। रियल इस्टेट की बारीकियों को समझते देखा था कि छोटे-छोटे निवेश से बड़े निवेश तक कैसे पहुँचा जा सकता है। व्यापार है तो नुकसान तो होगा लेकिन कम से कम नुकसान हो और साथ ही एक सौदे के असफल होने से सारे सौदे प्रभावित ना हों इस बात का ध्यान रखने के प्रयास जारी थे।

भाईजी की सलाह थी कि शेयर बाज़ार में दस्तक देने के लिए योजना बनानी ज़रूरी है। उसी योजना के तहत इस क्षेत्र के मंजे हुए खिलाड़ियों शमी और बैन के साथ इस ख़ास चर्चा के लिए एक मीटिंग रखी गयी। शमी न्यूयॉर्क के स्टॉक मार्केट का बहुत बड़ा खिलाड़ी था। भाईजी के साथ अक्सर गॉल्फ खेलने जाया करता था। भाईजी की स्टॉक मार्केट में बहुत ज़्यादा रुचि नहीं थी। उनका पार्टफोलियो शमी ही सम्हालता था।

काफी आत्मीयता से मिला - “अरे डीपी, क्या बात है, क्या करने का इरादा है? मित्र जॉन ने बताया तुम्हारे बारे में, तुमसे मिलकर अच्छा लगा।

बैन भी मुस्कुरा रहा था – “तुम्हारे बारे में जॉन से सुना है। एनवाय सिटी में कैसा लग रहा है?”

“बस आपके सानिध्य में बहुत कुछ सीखने की इच्छा है।”

“ज़रूर, तुम्हारे लिए हमने वर्कशाप में पंजीयन करवा दिया है।”

“धन्यवाद बैन” औपचारिक बातचीत के बाद सबने अपनी-अपनी कुर्सी संभाली।

बैन ‘डे-ट्रेडर’ था। बहुत शातिर, कम बोलने वाला और बिना बात के मुस्कुराता रहने वाला। शनिवार की दोपहर लंच पर मिलना तय हुआ था। डीपी ने अपने सारे ज्ञान और योजना के साथ तैयार की गयी बातें रखीं तो बैन और शमी ख़ामोश ही रहे। डीपी को लगा था ये लोग उसकी प्राथमिक तैयारी की प्रशंसा करेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

इस पहले ठंडे इम्प्रेशन में डीपी को लगा तारीफ़ तो बहुत सुनी थी शमी की किन्तु यह तो बड़ा ढीला निकला। बैन से भी आशाएँ तो बहुत थीं पर इस समय उसका पत्थर जैसा निर्विकार मगर मुस्कुराता चेहरा सिद्धहस्त जुआरी जैसा लग रहा था जिसके अंदर क्या चल रहा है कोई उसके चेहरे और आँखों से पढ़ ही नहीं पाए।

“तुम क्या सोचते हो शमी।” भाईजी ने शुरुआत की।

“अभी तो मैं सुन ही रहा था जॉन।”

“कुछ कहो तो पता चले तुम्हारी राय।”

“हाँ बिल्कुल” सबका ध्यान शमी के चेहरे पर था जो अब बोलने की तैयारी में था और सारे उसे सुनने की।

“तो पहली और ख़ास बात तो यह है कि यह न्यूयॉर्क शहर का स्टॉक मार्केट है। दुनिया की अर्थव्यवस्था का दिल यहीं पर धड़कता है। मैं अगर यह कहूँ कि धरती पर जितनी भी चीज़ें पैदा होती हैं और बनाई जाती हैं, वे सब यहाँ ख़रीदी-बेची जाती हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।”

“मैं सहमत हूँ शमी से” मितभाषी बैन ने शमी की बात के वजन को वजन दिया।

“यही सब कुछ तो मुझे इस सिस्टम को अच्छी तरह समझने को मज़बूर कर रहा है। मैं सब कुछ सीखना चाहता हूँ, समझना चाहता हूँ।” डीपी की निगाहों ने शमी के चेहरे को पढ़ते हुए कहा।

“ख़ास बात यह भी है कि यहाँ का मार्केट भले सुबह साढ़े नौ से दोपहर चार बजे तक चलता दिखता हो पर हक़ीकत में चौबीसों घंटे चलता है।” भाईजी, डीपी और बैन तीनों शमी को देख रहे थे, आतुर थे जानकारी लेने के लिए।

“दुनिया की सब मुद्राओं, सभी मूल्यवान धातुओं, एटमबमों से लेकर शांति तक के सौदे यहाँ होते हैं। तुम्हें डरना आता हो तो यह जगह तुम्हारे लिए ठीक है। तुम होशियार समझ कर यहाँ घुसे तो एक दिन में साफ़ हो जाओगे।”

एक के बाद एक शमी के ये तीखे कथन उसे डराने के लिए नहीं सावधान करने के लिए थे। वॉल स्ट्रीट के बारे में उसने ऐसा कहीं पढ़ा नहीं था पर शमी जो कह रहा था वह बिल्कुल सही था। डीपी का रोमांच बढ़ रहा था यह सब सुनते हुए। उसे समझ में आ रहा था कि शमी वह आदमी है जो उसका मार्गदर्शक बन सकता है। उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने के बजाय शमी उसके विचारों के विरुद्ध बोल सकता है और समय-समय पर उसे ग़लत क़दम उठाने पर आगाह कर सकता है।

“जी शमी, मैं आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूँ। कौन से उत्पाद से हमें शुरू करना चाहिए, किसी छोटी कंपनी से या बड़ी कंपनी से? ब्लू चिप कंपनियों से शुरू करें तो?”

इस बार शमी और बैन दोनों मुस्कुराए।

“डीपी, कंपनी छोटी हो या बड़ी, सबके अपने मार्केट मेकर्स होते हैं। झूठा-सच, अफवाहें सच्चाई, सबकी इतनी बढ़िया भेलपूरी बनाकर लाते हैं ये कि खाने वाला बड़े स्वाद से ठसाठस पेट भर ले। ये अपने शेयरों के दाम उठाते हैं, विरोधियों के दाम गिराते हैं। हक़ीकत क्या है यह मालूम कर पाना नामुमकिन है। चाहे पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटा जाता हो पर यह ताशमहल जैसा खेल है, ज़रा-सा खिसका तो सब धड़ाधड़ गिरते जाते हैं। रियल इस्टेट में सब कुछ ठोस रूप में आपके सामने होता है, आपको ज़मीन और बिल्डिंग दिखाई देती है कि ‘हाँ, यह हमारी प्रॉपर्टी है’, ‘यह हमारा निवेश है’। इसके ठीक विपरीत स्टॉक मार्केट में ऐसा कुछ भौतिक नहीं दिखता, इन्वेस्टर भी घर में बैठ कर चुपचाप रोते हैं।”

बैन ने हामी में सिर हिलाया तो डीपी की जिज्ञासा और बढ़ी। शमी बोलता जा रहा था और वे तीनों सुनते जा रहे थे। तकरीबन आधे घंटे की उस मीटिंग में कॉफी और हल्का-सा नाश्ता भी था।

“मैं चाहता हूँ कि सोमवार को सवेरे साढ़े आठ बजे तुम मेरे दफ़्तर आ जाओ, नाश्ता वहीं करेंगे, लंच भी वहीं। हम क्या करते हैं और कैसे करते हैं, अपनी आँखों से देखो। उसके बाद फिर किसी दिन बैन के दफ़्तर में चले चलेंगे, वहाँ उनकी रिले रेस भी देख लोगे।” शमी ने अपनी बात ख़त्म करते हुए उसके अगले पाठ के लिए मीटिंग रखी।

भाईजी बता रहे थे कि दोनों स्टॉक मार्केट के बड़े खिलाड़ी हैं। किस तरह से नयी जानकारियाँ उसके सामने आएँगी, उसकी बेहद उत्सुकता थी मन में। बच्चा जब पहले दिन स्कूल जाता है तो जितना जोश होता है उसके मन में, जितनी जिज्ञासाएँ होती हैं, ऐसा ही कुछ डीपी महसूस कर रहा था। इस नए काम को सीखने और अमल करने के पहले मन का उत्साह बहुत आशावादी था। उसका नया काम आगे बढ़ाने के लिए बहुत ज़रूरी था इन विशेषज्ञों की बातें सुनना और उन पर गौर करना।

पूरे सप्ताहांत शमी ही छाया रहा डीपी के दिमाग़ पर और स्टॉक मार्केट भी। जब स्टॉक मार्केट में ऐसी ही जबरदस्त पिटाई होती है तो अधिकांश लोग शेयर बाज़ार में अपनी पूँजी क्यों निवेश करके रखते हैं। सकारात्मकता भी तो है कि अगर चाल सही है तो लाभ भी उतना ही जबरदस्त है। एक बार भाईजी जॉन ने बताया था कि वे भी रियल इस्टेट में ही ध्यान दे पाते थे। अभी तक वे स्टॉक मार्केट में बड़े निवेश के पोर्टफोलियो वाली श्रेणी में नहीं थे। उनके छोटे-मोटे निवेश शमी ही देखता था। अब वे भी डीपी की उत्सुकता को देखकर – “एक बार कोशिश कर लेने में क्या बिगड़ता है” की धारणा लिए इसमें काम बढ़ाने के बारे में मन बना चुके थे।

शेयर मार्केट में कुछ भी करने के लिए भाईजी शमी पर पूरा विश्वास जता चुके थे। उन्होंने शमी को बुलाया है तो एक बात तो तय है कि ज़रूर शमी ही वह व्यक्ति होगा जिसके जरिए इस व्यवसाय में महारथ हासिल की जा सके। सोमवार को शमी के ऑफिस पहुँचना था और इस काम का श्री गणेश होना है या नहीं होना है इसका निर्णयात्मक फैसला भी उसी समय हो पाएगा।

ब्रॉड-वे और पाइन स्ट्रीट पर स्थित ‘अपटिक रिसर्च एंड इंवेस्टमेंट’ के ऑफिस जाना था, यही नाम था शमी की कंपनी का। ‘अपटिक’ का मतलब समझना भी नया था डीपी के लिए। जब बताया गया कि खरीदे गए भाव से अगर एक सेंट भी अधिक मिलता है तो उस छोटी-सी लाभ की राशि का भी महत्व है, उसे ‘अपटिक’ कहते हैं। वैसे ही खरीदे गए भाव से अगर एक सेंट भी कम मिलता है तो उस छोटी-सी हानि की राशि को ‘डाउनटिक’ कहते हैं। “नाम में बहुत कुछ रखा है” के विचार से देखा जाए तो ऐसे में इस कंपनी का नाम ही हर किसी के मन में लाभ की ख़्वाहिश जगाने का माद्दा रखता था।

विशालकाय इमारत की दसवीं मंज़िल पर इनका दफ़्तर था। पूरी की पूरी दसवीं मंज़िल इनके कहने में थी। एलीवेटर से बाहर निकल कर जब डीपी ‘अपटिक’ के द्वार पर पहुँचा तो स्वागत कक्ष का द्वार स्वत: खुल गया। उसने ठीक पहचाना कि आगंतुक का चेहरा देख रिसेप्शनिस्ट रिमोट से संचालित द्वार खोल देती थी। औपचारिक बातें करते हुए रिसेप्शनिस्ट ने एक आईपैड थमाकर उसे अपने बाएँ हाथ के अंगूठे का इम्प्रेशन देने के लिए कहा तो चौंक गया वह।

उसने पूछा – “क्यों”

“सर, यह आपकी पहचान है। इस दफ़्तर में आप अपने फिंगर प्रिंट से किसी भी सुविधा को चालू कर सकते हैं और उपयोग कर सकते हैं।”

वह अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुरा दिया। दिमाग़ की दौड़ अपने गाँव का चक्कर लगाकर वापस आ गयी क्योंकि यह थंब इम्प्रेशन अपने बाबू के नीली स्याही से अंगूठा लगाने के काम की याद दिला गया। मजदूरी के बाद जब पैसे लेने की लाइन में लगते थे बाबू तो अंगूठा लगाकर पावती की प्रक्रिया पूरी होती थी। जब घर आते तो उनके अंगूठे में नीली स्याही देखकर धन्नू पूछता था – “यह क्या है बाबू?” तो वे उसे समझाते थे – “तेरे बाबू को तेरी तरह लिखना नहीं आता है न इसलिए अंगूठा लगाना पड़ता है।” इसी यादों भरी मुस्कान के साथ सामने देखा तो शमी दिखाई दिया।

“गुड मॉर्निंग डीपी” शमी अपनी चिर-परिचित आवाज़ के साथ अपने दफ़्तर में डीपी का स्वागत करने के लिए उसकी ओर बढ़ रहा था। ‘हलो-हाय’ और औपचारिक बातों के साथ वे किचन में पहुँचे, अपनी पसंद की चीज़ें अपनी प्लेट में लीं और गर्म कॉफी के साथ एक थिएटरनुमा कमरे में पहुँचे। कुछ और लोग भी थे वहाँ। डीपी को उनसे बात करते हुए मेल-जोल बढ़ाते हुए अच्छा लग रहा था। वे सभी निवेश कंपनियों के स्ट्रेटेजिस्ट थे। शमी इस कंपनी में योजनाकार था और भागीदार था।

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