औरतें रोती नहीं
जयंती रंगनाथन
एक जिंदगी और तीन औरतें
मैं हूं उज्ज्वला: जनवरी, 2006
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मामूली औरतें
जिंदगी... कल तक अगर मुझसे बयां करने को कहा जाता, तो कहती- ऊंची-ऊंची राहों पर चलकर एक ठीक से मुकाम तक पहुंचने का नाम है जिंदगी। कल यानी सोलह महीने पहले तक। आज कहने का मन हो रहा है- अनजानी गलियों से गुजरने का दर्दभरा रोमांचकारी सुख जिस अनचाहे और अनचीन्हे मुकाम तक ले जाता है, कमोबेश वही जिंदगी है।
मैं पैंतीस के आसपास पहुंची एक मामूली औरत कितनी दार्शनिक बातें करने लगी हूं। मुझे जानता कौन था। कोई नहीं। साथ काम करने वाले कर्मचारी भी नहीं। हो सकता है साथ की मेजर पर बैठने वाला क्लर्क मेरा चेहरा पहचाना हो। यह भी जानता हो कि मेरी शादी टूट चुकी है। बच्चा नहीं है। एक दूर के रिश्ते की चाची के साथ बहुत नीरस-सी जिंदगी जी रही हूं। दो सौ रुपए का सलवार-सूट पहनकर दफ्तर आती हूं। साढ़े दस से दो बजे तक बैंक के काउंटर पर उलझी रहती हूं। ठीक दो बजे घर से लाया अपना स्टील का खाने का डिब्बा खोलकर दाल-चावल या फुलका-सब्जी खाती हूं। लेडीज रूम में जाकर डिब्बा धोती हूं, घर से लाया पानी पीती हूं। एक बार कंघी से हल्के से बात संवार वापस अपनी कुर्सी पर बैठ जाती हूं। चार बजे हल्की चीनी वाली चाय पीती हूं। ठीक साढ़े पांच बजे अपना चमड़े का छोटा-सा काले रंग का हैंडबैग उठाकर चल पड़ती हूं, तीन सौ तीन नंबर की बस पकड़ने। यह बस घर से दूर मंडी के पास छोड़ती है। वहां से रोज ही सब्जी खरीदती हूं। उसके लिए भी मुड़ी-तुड़ी सेलोफिन की थैली घर से लेकर निकलती हूं, जो हैंडबैग के ऊपर वाले खाने में पड़ी रहती है। आधा किलो भिंडी, तोरई, तो कभी पाव किलो छोटे बैंगन। प्याज नहीं खरीदती। चाची को नहीं पसंद। लहसुन तो दूर की बात रही। वहां से चलकर घर पहुंचती हूं। मन्नू का तीन कमरे का मकान है। खुलते ही साथ बड़े कमरे में चारपाई बिछी है। वहीं अल्यूमीनियम की मेज पर चौदह इंजी टीवी है। मैंने ही खरीदा था पांच साल पहले। दो आरामकुर्सी। एक फ्रिज। एक बेडरूम में मैं और मन्नू सोते हैं, दूसरे में माल-असबाब भर रखा है।
मैं मन्नू के साथ क्यों रहती हूं? शायद मैंने नहीं, मेरी मां और बड़े भाई ने तय किया था। एक छोटी बहन है, जो शादी के बाद ठीक से जी रही है। कहती तो यही है। भाई की पत्नी निरीह-सी है। मां के निर्णय सब पर भारी पड़ते हैं। मेरी शादी टूटी, तो घर लौट आई। नौकरी तो कर ही रही थी। मां ने कहा, ‘इसे यहां नहीं रहना चाहिए।’ किसी ने उनकी बात का विरोध नहीं किया। मां ने फरमान जारी किया, उज्ज्वला मन्नू के साथ रहेगी, मन्नू चाची के पति को गुजरे कई बरस हो चुके थे। परिवार में ऐसी उड़ती-उड़ती खबर थी कि मन्नू का गुजारा पापा ही उठाते थे। उन्होंने ही घर बनवाया था मन्नू के लिए। पता नहीं पापा का क्या रिश्ता था अपने चचेरे भाई की पत्नी से। मां ने भी कभी खुलकर विरोध नहीं किया। कुछ तो था, इसलिए तो पापा के गुजर जाने के बाद भी मन्नू मां से दबकर चलती थी।
मन्नू की जिंदगी का जिक्र बाद में करूंगी। पहले मेरी बात। जब यह तय हो गया कि मुझे मन्नू चाची के साथ रहना है, तो मैं अपने कुछ कपड़े, किताबें, सिलाई की मशीन, अपने हाथों से काढ़े टेबल कवर, कुशन कवर आदि लेकर उनके घर आ गई। मन्नू को मेरा साथ रहना अच्छा लगा या बुरा, इसका अंदाज नहीं लगा पाई। पर उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। वे अपने ढंग से जिंदगी जीतीं। सुबह आराम से सोकर उठतीं। शाम तक सुबह के कपड़ों में लदर-फदर कमरे में फिरती रहतीं। अधिकांश समय उनका टीवी के सामने गुजरता। खाना मैं ही पकाती थी, इसलिए कि मन्नू का बनाया खाना निगलना मुश्किल था। वे बड़े आराम से मेरा बनाया खाना खा लेतीं। बैंक में कुछ पैसे थे उनके, या मुझसे मांग लेतीं। दोपहर को चटर-पटर न जाने क्या-क्या खाती रहतीं। शाम को नहाकर पूजा करतीं। रात देर तक टीवी देखते हुए सो जातीं।
इस बीच कभी-कभार हम दोनों बात कर लिया करते। मसलन किसी टीवी धारावाहिक के बारे में, आलू के बढ़े हुए दाम के बारे में। वे कभी मेरे ऑफिस के काम में दिलचस्पी नहीं लेतीं। मैं भी उन्हें कुछ बताती नहीं।
इतनी नीरस और बदरंग जिंदगी थी मेरी कि दूर-दूर तक बदलाव का कोई आसार नहीं दिखता था। खाना-पीना, नौकरी पर जाना, रूटीन निभाना, फिर सो जाना। इससे अधिक, इसके आगे-पीछे कुछ नहीं।
दिन, महीने, साल गुजर गए। फिर आई हमारी जिंदगी में पद्मजा रेड्डी।
मैंने बताया था न कि मन्नू के घर में एक कमरा खाली था। एक दिन मैं दफ्तर से लौटी, तो उस कमरे की सफाई हो रही थी। कॉलोनी का जमादार झाड़ू लगा रहा था, मन्नू खुद कमर कस, साड़ी को घुटनों तक उठाए पर्दे झाड़ रही थीं। पलभर यह नजारा देख मैं खाना बनाने में जुट गई। मुझे दफ्तर से आते-आते जोरों की भूख लग जाती थी। खाना बनाते ही मैं तुरंत खा लेती थी।
हालांकि कमरे की सफाई देख थोड़ा डिस्टर्ब मैं जरूर हुई। लेकिन मन्नू की आदत थी, घर में कोई भी रद्दोबदल करते समय वे कभी मेरी राय नहीं लेतीं। उन्हें कभी नहीं लगा कि मैं किसी हक से उनके साथ रह रही हूं। मैं बाहरवाली थी, तो थी।
अगले दिन मैं वक्त से दफ्तर चली गई। एक मामूली, हर रोज का सा दिन था। शुक्रवार था। सुबह मौसम अच्छा था। मैंने नीचे रंग का सूती सलवार-सूट पहन रखा था। बालों की चोटी। मन कुछ ठीक सा था। बस में जाते समय कुछ गुनगुनाने का भी मन हुआ। बाग में कली खिली, बगिया महकी, पर हाय रे अभी इधर भंवना नहीं आया... याद आया, कॉले में मेरे साथ शोमी दत्त पढ़ती थी, अपने मधुर बांग्ला लहजे में वह बड़े मन से यह गाना गाती। लंच टाइम में कॉलेज के लाँन में बैठकर हम सभी लड़कियां फौरन सपने देखने लगतीं- भंवरे का। कैसा होगा? फिर पता नहीं क्यों इतनी लाज आती कि मैं तो फौरन ख्यालों को झटक भंवरे को दूर धकेल देती।
इतने दिनों बाद मन हुआ हल्का सा गुनगुनाकर गाऊं। मन ही मन शायद मैं गाने भी लगी। दफ्तर गई, तो काम भी हल्का लगा। तय किया कि लौटते में शर्मा चाट भंडार से खूब मिर्च डलवाकर आलू की टिक्की खाऊंगी।
दिनभर अहसास न हुआ कि आज मेरी जिंदगी बदलने वाली है। तो क्या उस दिन का मिजाज मुझे चेता रहा था आनेवाले दिनों के लिए? जिनकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी?
लेकिन दफ्तर में शाम होते-होते एकदम से काम निकल आया। मेरे मैंनेजर ने आग्रह किया कि मैं थोड़ा रुककर काम निबटा लूं। मैं कभी-कभार रुक जाया करती थी।
काम निबटाते-निबटाते पौने सात बज गए। अब चाट की दुकान में जाने का समय ही नहीं रह गया था। सो मैं बस पकड़कर और सब्जी खरीदती हुई सीधे घर आ गई।
मन्नू के घर के बाद एक टैम्पो खड़ा था। टैम्पो में से सामान नीचे उतारा जा रहा था। दो मजदूर, तीसरा शायद टैम्पो का ड्राइवर। बेंत की तीन कुर्सियां, कुशन लगी हुई। बेंत की ही एक गोल मेज। मध्यम कदम की स्टीज की बनी बड़ी सुंदर सी अलमारी, लाल रंग का बड़ा फ्रिज, कार्टन में बंद टीवी, जो आकार में काफी बड़ा लग रहा था। लकड़ी के तीन कार्टन। मजदूर सामान कुछ लापरवाही से अंदर-बाहर कर रहे थे। अचानक टैम्पो से चमड़े का एक ब्रीफकेस उछाला गया और सीधे मेरे कदमों के पास आकर खुलकर बिखर गया।
जो चीजें गिरीं, उनसे मैं जनजानी नहीं थी। पर इस तरह यहां देखकर मैं सहज नहीं रह पाई। गले से अजीब सी चीख निकली। शायद सांप या बिच्छू को देखकर भी मेरी ऐसी पतली हालत नहीं होती।
पसीने से तरबतर सो अलग। उसी क्षण वह मेरे सामने प्रकट हुई, हाथ में टुटू को लिए। हल्के भूरे रंग का कुत्ता। गले में नीले रंग की पट्टी। नीले ही रंग की जैकेट।
कुत्ते की मालकिन पर नजर बाद में पड़ी। वह मेरा हाल देख जरा पुचकारते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ आंटी? आपके ऊपर गिर गया क्या ब्रीफकेस?’’
वह मुझे आंटी बुला रही थी। पैंट-शर्ट में एक दुबली-पतली युवती। बालों को ऊपर बैंड से लापरवाही से बांध रखा था। इधर-उधर उड़ते बाल उस पर फब रहे थे। चेहरा-मोहरा ठीक। आत्मविश्वास से लबालब। मुझसे उम्र में उतनी तो छोटी नहीं, पर मेरी वेशभूषा देख तो मेरे हमउम्र भी मुझे आंटी ही कह और समझ सकते थे। मेरी प्रतिक्रिया न पा वह अचानक जमीन पर झुक गई।
‘‘ओह... ब्रीफकेस खुल कैसे गया? नंबर तो लॉक किया था।’’ वह बुदबुदाई। उसका कुत्ता मालकिन के जमीन पर बैठते ही सड़क पर दौड़ गया। वह वहीं से चिल्लाई, ‘‘प्लीज... कोई टुटू को पकड़ो।’’
किसी को दौड़ता न देख, वह खुद ही उठ गई, ‘‘आंटी, आप प्लीज ये खिलौने ब्रीफकेस में रख दीजिए। मैं जरा अपने डॉगी को पकड़ लूं। गाड़ी के नीचे आ जाएगा तो मुसीबत हो जाएगी।’’
मेरा जवाब जाने बिना ही वह टुटू के पीछे भाग गई।
मुझे उठाने को कह गई-जमीन पर पड़े खिलौने... आकार में लंबे-छोटे, बैटरी से चलने वाले टॉयज... सेक्स टॉयज। मैंने कांपते हाथों से लंबे आकार का बेलननुमा खिलौना उठाया। चिकनी सतह। हाथ पड़ते ही शरीर झनझना उठा। किसी तरह सारे ‘खिलौने’ मैंने ब्रीफकेस में भर दिए। बस एक रह गया जमीन पर। तब तक वह आ पहुंची अपने टुटू के साथ। मेरे हाथ से ब्रीफेस ले ‘थैंक यू’ कर अंदर चली गई।
जमीन पर पड़ा वो अंतिम खिलौना मुझसे सवाल करने लगा। मुझे दो पल भी नहीं लगे उसे अपने हाथ में उठाकर अपने काले हैंडबैग में रखने में। लेकिन इतने में ही मेरा दिल ऐसे कांपने लगा कि आंखों के आगे पर्दा सा छा गया।
मैंने चोरी की। पहली चोरी। वह भी एक ऐसी चीज की, जिसकी वजह से मैं अपने पति ओमप्रकाश से अलग हुई थी। शादी की पहली ही रात अपने बिस्तर पर यही खिलौना पाकर मैं कुछ असमंजस में थी।
कुंआरे... अछूते और पुरुष के अंग-प्रत्यंग के व्याकरण से अनभिज्ञ मेरे शरीर में जब उस खिलौने ने प्रवेश किया, तो अंदर से चीत्कार उठी। ओमप्रकाश कहते रहे, ‘यह सब तो होता ही है। आदत डाल लो। इससे तुम्हें कम दिक्कत आएगी।’ खत्म हो गई मेरी शादीशुदा जिंदगी। चार महीने भी नहीं हुए कि ओम मुझे मायके छोड़ गए। खुले खब्दों में कहा, ‘आपकी बेटी ठंडी है। सीखना-समझना भी नहीं चाहती। मुझे अपना परिवार बढ़ाना है। मैं एक नॉर्मल आदमी हूं। मेरी जरूरतें... मेरी जिंदगी में इसकी कोई जगह नहीं। यह तो औरत ही नहीं....’
सुन लिया सब चुपचाप। औरत नहीं मैं? और कौन होती है, जिसे पुरुष औरत माने वो? वो नहीं जो अपने अंदर के स्त्रीत्व से किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहती?
क्रमश..