औरतें रोती नहीं - 2 Jayanti Ranganathan द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

औरतें रोती नहीं - 2

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 2

रंग धुआं-धुआं

ऐसा नहीं कि मैं शादी से पहले स्त्री-पुरुष के रिश्ते से अनभिज्ञ थी। बहुत कुछ जानती थी। पत्रिकाओं में पढ़कर, अपनी शादीशुदा सहेली से, कॉलेज की साइंस की लेक्चरर मैडम माला बनर्जी से। बल्कि उन्होंने तो एक बार इच्छुक छात्राओं को अलग से बुलाकर सेक्स एजुकेशन पर लंबी व्याख्या दे डाली थी। बहुत खुलकर स्पष्ट शब्दों में बताया कि इंटरकोर्स क्या होता है? स्त्रियां किस तरह गर्भधारण करती हैं और बचाव के उपाय क्या हैं? यही नहीं, बहुत मधुर आवाज में माला मैम ने हम सबको समझाया था, ‘सेक्स बुरी चीज नहीं। आदमी और औरत की जिंदगी की धुरी है। सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए सेक्स नहीं किया जाता। सेक्स आदमी और औरत को एक-दूसरे से बांधे रखता है। शादी के बाद अपने पतियों के साथ तुम कामसूत्र जरूर पढ़ना। खुले दिमाग से शादी के बंधन को स्वीकारो। तुम सब इक्कीसवीं सदी की युवतियां हो। अपने पति को पूरा सहयोग करो, उसकी सही मायने में सहचरी बनो।’

हम सभी बहुत प्रभावित हुई थीं मामा मैम की सेक्सोक्ति से। उसके बाद से हम सब उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगीं, अपने आपको एक पुरुष को सौंप उसकी सहचरी बनने की।

मेरी शादी पहले हो गई। बी.एससी. करते ही साथ। इक्कीस साल की पूरी नहीं हुई थी। रिश्ता आया और मां ने फौरन से निर्णय सुना दिया कि उज्ज्वला शादी के बाद फाइनल इम्तेहान दे देगी।

जिस आदमी के साथ मुझे बांधा जा रहा था, वह मुझसे आठ साल बड़ा था-ओमप्रकाश। मैं शादी के पहले दो बार उससे मिली। एक बार जब लड़केवाले देखने आए। मैं पीले रंग की साड़ी में गुड़ी-मुड़ी बैठी रही। बस एक बार आंख उठाकर देखा उनकी तरफ। ठीक सी शक्ल-ओ-सूरत। अच्छी कद-काठी। बस...

मैं शरीर की ठीक थी। थोड़ा भरा बदन था। कद भी सामान्य से अधिक। कॉलेज के जमाने में साइकिल में पीछे आने वाले आशिकों की संख्या भी कम नहीं थी। पर मां ने कभी अहसास होने नहीं दिया कि मैं सुंदर हूं। वे सदा यह कहती रहीं कि उनका रूप-रंग उनके किसी बच्चे पर नहीं पड़ा। वे इतनी सुंदर हैं और बच्चे... मैं और मेरी बहन अंतरा शुरू से इसी कॉम्पलैक्स में रहे कि हम सुंदर नहीं। हम पर कोई चीज नहीं फबती। मां हमें ऐसे कपड़े दिलातीं, जिनमें हम बदबदे नजर आते। बिना फिटिंग के कुर्ते, झब्बे जैसे शर्ट। कभी भूरे रंग के तो कभी स्लेटी रंग के।

एक बार सरला बुआ की शादी में मैंने उनकी सहेली का लाल लहंगा पहन लिया था, तो मां ने जनवाले में सबके सामने मेरी खिल्ली उड़ा दी, ‘देख लो, कोयले में आग लग गई। एक तो ये रंग-रूप, ऊपर से लाल पहनेंगी!’

मेरा चेहरा अपमान से काला पड़ गया। मैं सत्रह की हो चुकी थी। मन से कोमलांगी और तन से नवयौवना। पहली बार लगा कि जमीन फट जाए, तो धंस जाऊं। मर्मांतक पीड़ा। ऐसा घाव कि तन-मन छलनी। आंखों में पानी का उबाल लिए मैं भागकर स्टोर में छिप गई। जो रोई कि काजल, बिंदी सब पुछ गए। लगभग घंटे भर बाद बाहर आई, तो बरात आ चुकी थी। मैं भागकर कमरे में गई और झटपट कोने में पड़ी सफेद साड़ी से अपने को घेर लिया। उस एक क्षण लगा कि मैं ब्याह से पहले विधवा हो गई। सारे अरमान, जिंदगी के सारे रंग धुआं हो गए।

पता नहीं कितने दिनों तक यह अपमान कील बन दिल में टीस पैदा करता रहा। शायद इसी तरह की कोचों और खिल्लियां ने मुझे कभी एक आम औरत के सपने नहीं देखने दिए।

ओमप्रकाश को देखकर भी सबसे पहले मेरी यही प्रतिक्रिया रही, ‘चलो जान छूटी।’ सोचा न था कि रिहाई इतने कम समय के लिए होगी।

फिर लौटकर आना होगा उसी कठोर दुनिया में, तानों के साथ जीना होगा और भूलना होगा स्व को। मैं मैं रह ही नहीं गई।

अपने आपको पाया, तो इतने बरस बाद, जब एक फितरू सी लड़की ने मुझे अंदर तक दहलाकर चोरी से एक खिलौना दे डाला।

पद्मजा और उसका टुटू। मन्नू चाची ने उसे किराए पर कमरा दे दिया। बेश मुझसे कुछ नहीं कहा, पर उसी रात मुझे पता चल गया कि वह हमारे घर बतौर पेइंग गेस्ट रहनेवाली है। सुबह का नाश्ता, रात का खाना हमारे साथ खाएगी। वो ही नहीं, उसका कुत्ता टुटू भी।

रात जब मैं पालक का साग पकाने में लगी हुई थी, मन्नू ने बड़े लाड़ से मेरे कंधे पर हाथ डालकर कहा, ‘‘उज्ज्वला, दो फुलके ज्यादा उतार देना। वो लड़की भी हमारे साथ खाएगी। बस आज-आज की बात है। कल से रात का खाना बनाने के लिए लड़का रख लेंगे। सुबह मैं मदद कर दिया करूंगी तुम्हारी...।’’

‘‘तुम उठती कहां हो सवेरे?’’ मैंने कुछ खीझकर कहा।

मन्नू उसी तरह मुस्कराती हुई बोली, ‘‘अलार्म लगाकर उठूंगी। चल उज्ज्वला... थोड़ा सलाद भी का दे। अच्छा नहीं लगता... चल ऐसा कर, सब्जी में थोड़ा मसाला-मुसूला डाल देसी घी का छौंक लगा दे। बड़ी सिंपल सी लग रही है सब्जी।’’

मैं भड़क गई, ‘‘मन्नू, तुम्हें जो करना हो कर लो। मेरे से तो ऐसी ही बनती है सिंपल सी सब्जी।’’ मैं तुनककर गैस बंद कर कमरे में आ गई। मन्नू पीछे-पीछे मुझे समझाने चली आई, ‘‘उज्जू, ऐसा होता है क्या भला? तू तो सच्ची में नाराज हो गई। चल कोई नहीं। मैं काट देती हूं सलाद... तू आजा। प्लेट लगा दे। कांच वाले निकाल लेंगे। बड़े दिन हो गए अच्छे से खाए हुए।’’

मैं जल गई। शुरू में जब मैं कहती थी मन्नू से कि ढंग से प्लेट, कटोरी लगाकर और डिश में परोसकर खाना खाएंगे, तो वे मुंह बिचका कर कहती थीं, ‘‘खाना प्लेट से पेट में ही तो जाना है। उसके लिए इतना झमेला क्यों करना? ऐसे ही देगची रख दे टेबल पर। ये कटोरी-उटोरी छोड़।’’ वही मन्नू कह रही हैं कि ढंग से खाए दिन हो गए।

मैंने उनकी बात का जवाब नहीं दिया। न कुछ कहा। पर चुपचाप टेबल पर आकर बैठ गई। मन्नू चाची ने ही कांच की प्लेटें निकालीं। साफ कीं और टेबल सजाई। पद्मजा आई अपने कुत्ते के साथ। मन्नू चाची को कुत्ते ज्यादा पसंद नहीं थे। लेकिन अपनी नई पैसा देनेवाली मेहमान का लिहाज करते हुए उन्होंने कुत्ते को दुलराया भी। एक प्लास्टिक की प्लेट में रोटी भी परोस दी। पद्मजा ने कहा, ‘‘कुछ सब्जी या दही है तो वो भी दे दीजिए। टुटू सूखी रोटी नहीं खाता।’’

मन्नू ने टुटू की प्लेट में दही भी डाल दिया।

मैं परख रही थी पद्मजा को। मुलायम आवाज में बोलती थी। आदेशात्मक लहजा। खाने से पहले उसने ही बोलना शुरू किया, ‘‘मैं थोड़ा सा अपना परिचय दे दूं। मैं पद्मजा रेड्डी। मेरी मां कोलकता की हैं और डैडी आंध्र के हैं। दोनों सालों से अलग रहते हैं। मैं किसी के साथ नहीं रहती। कई साल हो गए, अकेली रहती हूं। मैं लंदन गई थी पढ़ने। लौटकर कोलकता में यूनीवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया। मन नहीं लगा, तो अब अपना खुद का काम करती हूं। फाइनेंस से संबंधित विषयों पर सर्वे करती हूं, रिसर्च करती हैं। ठीकठाक पैसे मिल जाते हैं। आपके पड़ोस में रहने वाली मिसेज दत्ता की बेटी कभी-कभी मेरे लिए काम करती है। जब उसने मुझे बताया कि आप एक कमरा किराए पर देने में इंट्रस्टेड हैं, तो मुझे लगा कि आपके साथ रहना सही होगा। सो आई एम हिअर। अब आप लोग बताइए... आप क्या करती हैं?’’

मन्नू ने मेरी तरफ देखा। मैंने जरा हकलाकर कहा, ‘‘मैं उज्ज्वला हूं। ये... मेरी चाची... सगी नहीं। मैं कॉरपोरेशन बैंक में काम करती हूं। बस...’’

‘‘बस? और? मैरिड ऑर अनमैरिड?’’ उसने निस्संकोच पूछ लिया।

‘‘मैरिड... मतलब डाइवोर्सी...’’

‘‘ओह, तब तो हम दोनों में बहुत पटेगी। मैं भी अलग रहती हूं अपने पति से। तीन ही साल चला पाई... इसके बाद लगा वर्थ नहीं। कुछ कमाता-धमाता नहीं था। मेरे पैसे से ऐश करना चाहता था। एक दिन तय किया, बहुत हो गया। इस तरह जिंदगी नहीं चलेगी और मैं अलग हो गई।’’ उसने बड़ी सहजता से अपनी पूरी जिंदगी का खाका खींच कर रख दिया।

मैं चुप थी। इतना सब कहने के लिए था ही नहीं। पद्मजा अब मन्नू की ओर मुखातिब हुई, ‘‘और आप आंटी? आपके हजबैंड...’’

मन्नू चाची ने भी सपाट स्वर में उत्तर दिया, ‘‘डैड।’’

पद्मजा चुप हो गई। मैं पूछना चाहती थी, हजबैंड के अलावा और कौन? पापा के साथ तुम्हारे रिश्ते की बात सुनी है, उसमें कितनी सचाई है? क्या वाकई पापा का दिल तुम पर आ गया था? पर पूछ नहीं पाई।

पद्मा ने बहुत सादगी से पूछ लिया, ‘‘आप दोनों ने दोबारा शादी करने की नहीं सोची? आप लोगों की उम्र बहुत ज्यादा तो नहीं। बिना आदमी के जीने में दिक्कत नहीं आती? वी नीड मैन.. इमोशनल, इकोनॉमिकल, फिजिकल सपोर्ट तो चाहिए ही...’’

हम दोनों ने एक-दूसरे का चेहरा देखा। बोलीं मन्नू, ‘‘इन सबके लिए शादी करने की क्या जरूरत है?’’

मैं हक्की-बक्की रह गई। पद्मजा हंसी, ‘‘ठीक कहती हैं आप। मर्दों को तो इतनी ही दूरी पर रखना चाहिए कि आपकी जरूरतें भी पूरी होती रहें और वे आप पर हावी भी न हों।’’

मन्नू का यह रूप मेरे लिए नया था। इतना बोल्ड वक्तव्य! लगभग पैंतालीस साल से ऊपर की महिला का। यानी उनके बारे में जो कहा जाता था, सच कहा जाता था। पापा ही थे वो आदमी जो तन-मन-धन से उनकी जरूरतें पूरी किया करते थे।

मैं स्तब्ध थी। पद्मजा ने खाना शुरू किया और मेरी बनाई सब्जी की दिल खोलकर तारीफ की। साथ ही यह भी कहा कि कल से मैं भी आपकी मदद कर दिया करूंगी। मुझे खाना बनाने का बड़ा शौक है। आप लोग तो वेज हैं न? क्या करूं मछली के बगैर जीभी लपलपाती रहती है। अगर आपको आपत्ति न हो तो कभी-कभार रसोई में मछली बना सकती हूं क्या?

मैंने न में सिर हिलाया लेकिन मन्नू ने तुरंत कहा, ‘‘हां, कोई बात नहीं। अलग बर्तन कर लेना...’’

मन हुआ मन्नू को चीर के धर दूं। मैं इस घर में पिछले बारह साल से रह रही हूं। घर में खाने-पीने का खर्चा खुद उठाती हूं। यही नहीं टेलीफोन का बिल, बिजली का बिल भी मैं ही भरती हूं। घर के काम भी करती हूं। मन्नू को चीजें भी दिलवाती हूं। मुझे तो सख्ती से कह रखा था कि घर में लहसुन-प्याज वर्जित है। अब इस छोकरी के लिए मछली पकाना भी सही हो गया?

बिस्तर पर मुझसे पहले मन्नू पहुंची हुई थी। मैं नाइटी बदलकर आई, तब तक वह बत्ती बुझा चुकी थी। मैंने बड़ी हिंसक मुद्रा में बत्ती जलाई और उसके बाजुओं को खींचकर पूछा, ‘‘इरादा क्या है तुम्हारा?’’

वो शांति से उठकर बैठ गई। रात को वह पुराने दुपट्टे से सिर ढक लेती थी। इस समय वह चीनी गुड़िया लग रही थी। चपटी नाक, सूजी आंखें और पीछे कसकर बांधे गए बाल। मुझे अजीब नजरों से देखती हुई वह बोली, ‘‘क्या आफत आ गई?’’

मैं भड़क गई, ‘‘मन्नू, तुम खुद आफत से कम नहीं। मुझे बिना बताए एक लड़की को घर ले आईं। फिर उससे कह रही हो कि मछली बना लो... और क्या-क्या बक रही थीं तुम? होश में तो हो?’’

मन्नू थोड़ा खामोश रही, फिर भमक कर बोली, ‘‘मेरा घर है, चाहे जिसे लाऊं, चाहे जो करूं? तुमसे ये तो नहीं कहा कि तुम अपना बिस्तर खाली करो। मुझे पैसे चाहिए। ये लड़की दे रही है मुझे। हर महीने साढ़े तीन हजार देगी। बुरे लगते हैं क्या पैसे? इसके बदले मछली ही तो बनाने को कह रही है। वो तो तेरे पापा भी जब आते थे यहां, बनाते थे। खूब खाते थे मांस-मच्छी। तो इस लड़की को भी खाने दे।’’

मैं अवाक मन्नू का चेहरा देखती रह गई। वह जैसे अफीम की पिनक में बोल रही थी। पहली बार मेरे सामने स्वीकार किया था मन्नू ने कि मेरे पापा यहां आते थे।

मैंने कुछ नहीं कहा। मन्नू समझ गई कि मुझे सदमा पहुंचा है। अचानक वह उठकर मेरे पास आ गई, ‘‘देख उज्ज्वला, मैं तेरा दुख समझती हूं। मैं भी ऐसी ही स्थिति से गुजरी हूं। तू तो पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है। मेरे पास क्या था? दसवीं भी नहीं कर पाई थी, जब शादी हुई। तुझे पता नहीं मेरी शादीशुदा जिंदगी कितनी बदरंग रही है। जिंदगी में थोड़ा सा सुख मिला, जब तेरे पिता ने मुझे सहारा दिया। मैं तेरी मां को फूटी आंख नहीं देख सकती। इतनी घमंडी और अड़ियल औरत है कि... बर्दाश्त किया तो तेरे पापा की वजह से। कहते थे, ‘उसी की वजह से तुझसे संबंध रख पा रहा हूं। वो जिस दिन न कहेगी, यहां नहीं आ पाऊंगा।’ तेरी मां को सब पता था। जानकर भी अपने पति को वो मेरे पास आने देती थी।’’

‘‘फिर तेरे पिताजी गुजर गए। एक बार फिर मैं अकेली रह गई। तेरी मां ने मुझसे कहा, ‘उज्ज्वला को साथ रख।’ मैं मना करना चाहती थी, नहीं कर पाई। फिर तुझसे एक मोह भी हो गया। सोचनी लगी, जिस आदमी को मैंने चाहा, तू उसी की तो बेटी है। तेरा दर्द, मेरे दर्द से कम थोड़े ही है?’’

एक बरस नहीं... पूरे तेरह बरस बाद मेरा दर्द टीस उठा रहा है। मन्नू क्या समझ पाएगी मेरा दर्द? क्या मैं ही समझ पाई कि उसके अंदर क्या है? उसकी जरूरतें क्या हैं और कैसे एक बेनाम रिश्ते के सहारे उसने काट ली एक लंबी जिंदगी?

क्रमश..