सितौलिया Amitabh Mishra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सितौलिया

सितौलिया

वे पांच थे, बहुत कम उम्र के लड़के । सबसे बड़े कीउम्र 8 साल होगी तो सबसे छोटा सिर्फ 4 साल का ही होगा । उन पांचों की पीठपर अक्सर थैले लदे रहते थे। भूरे मटमैले थैले। उन थैलों में शहर भर का कचरेका निचोड़ भरा रहता था । उस निचोड़ में पन्नी, डिब्बे, लोहा लंगड़, रबड़, एलुमिनियम प्लास्टिक के डिब्बे और भी न जाने क्या-क्या भरा रहता था। इतनासब वे दिन भर कचरों के ढेरों से बटोरते और शाम को अपने-अपने घरों के सामनेलाकर रख देते थे। उसके बाद उसका क्या होता था उन्होंने न जानने की कोशिशकी और ना ही उन्हें बताया गया। उन्हें तो बस रोज सुबह खाली थैले मिलते थेजिन्हें वे दिन भर में मुंह तक भरकर ले आते थे । इसी बीच में किसी होटल मेंबर्तन साफ कर जूठा खाना खा लिया या कार या स्कूटर साफ कर लिया । उनका दिनकचरे के ढेर से शुरू होकर कचरे के ढेर पर खत्म होता था। उनका सूरज कचरे केढेर के एक ओर से उग कर दूसरी ओर डूब जाता था । वही उनके पूरब पश्चिम थे। सूरज के कचरे के ढेर से ऊपर होते ही उन पांचों को अपने-अपने दड़बों से बाहरनिकाल दिया जाता था । दिन भर कचरे के ढेर से काम की चीजें बटोरते हुए वेअपने-अपने परिवारों की कमाऊ इकाई बने हुए थे । जिस उम्र में उनकी उम्र केबच्चों की पीठ पर किताबों का से भरा बस्ता होता है, उनकी पीठों पर था कचरेसे भरा थैला।

वे पांचों रोज दिखते थे कूड़े के ढेरों को खंगालते। सूअरों कुत्तों कोहड़काते वे साथ ही दिखते थे। सबसे छोटा चंपू था जिससे अपनी चड्डी तक तोसंभलती नहीं थी। उसके दोनों हाथों से भी जब उसका थैला बंद नहीं होता था तबबाकी चारों मिलकर जैसे तैसे थैले का मुंह बंद कर उसके हाथों में थमा पीठ परलाद ही देते थे।

वेपांचो अकसर कचरे के ढेर पर बैठ अपनी उम्र के बच्चों को यूनिफॉर्म में सजास्कूल जाता देखते थे और मन मार कर कचरे में गुम हो जाते थे । बच्चों काखेलना भी देखते थे और थैले में कचरे से डिब्बा लुढ़का देते थे। खेलने औरस्कूल जाने के बारे में सोचना उनके सपनों से भी बाहर था। उन्हें सपने मेंभी कचरे का ढेर दिखता था । हां वह ढेर ज्यादा पन्नी ज्यादा डब्बे ज्यादाप्लास्टिक ज्यादा लोहे से भरा होता और उस ढेर के आस-पास सूअर और कुत्ते भीनहीं होते थे इससे आगे क्या होता है वे पांचों सोच भी नहीं पाते थे।

पर उस दिन अचानक वह हुआ। हालांकि दिन कोई खास नहीं था आम दिनों जैसा दिन । कचरे के ढेर से शुरू होता हुआ दिन था वह भी। पर उस दिन कचरा खंगालतेखंगालते चंपू के हाथ में एक गोल सी चीज फंस गई। पृथ्वी के आकार वाली छोटीसी गेंद। फूटी हुई गेंद। फेंकी हुई गेंद । उन लोगों के लिए वो थी पृथ्वी की अनंत संभावनाओं वाली गेंद। चंपू ने वह गेंद लेकर उठा ली और झेलने कीकोशिश की । बाकी चारों ने अचरज से देखा चंपू को । चंपू ने वह गेंद उछाल दीउनकी ओर। उनमें से एक ने झेला, फेंका । मजा आया ।

वेउसे टप्पा खिला रहे थे, फेंक रहे थे, झेल रहे थे, खिलखिला रहे थे। उनकेगंदगी से पुते चेहरे पर उस खेल की चमक दिख रही थी। कचरे के ढेर को ठेलकरसूरज उनके हाथों के बीच में था। वे बहुत देर तक उस फूटी गेंद को उछालतेरहे । तभी रमेश ने गेंद पकड़कर सबको अपने पास बुलाया । सबसे बड़ा था वह। उसकी आंखों में अजब चमक थी। पांचो उस चमक के आसपास । रमेश ने उनसे सातपत्थर ढूंढवाए। सात चपटे पत्थर। एक से बड़े एक पत्थर। एक के ऊपर एक जमनेवाले पत्थर। उन्होंने वे सातों पत्थर ऐसी जगह जमाए जहां से उस मोहल्ले केकूड़े के ढेरों पर नजर रखी जा सके । देखा जा सके कि किस घर से कचरा फेंकाजा रहा है । यह सब बिना तय किए ही तय हो चुका था । वे पांचों तीन और दो कीटीम में बंट गए थे। रमेश, कल्लू एक तरफ तो अनवर, चंपू, राजू एक तरफ। चंपूठीक से पकड़ भी नहीं पाता था गेंद पर उसने तो ढूंढी थी वह गेम जो उन्हेंकोई नहीं दे सकता था। सो सबसे मजे में वहीं था।

बस फिर क्या था खेल शुरू हुआ । खेल सितोलिया का । बहुत कायदे से अपनीपारी के खेल में सितोलिया फोड़ते भागते फिर जमाते । इस दरमियान दूसरी पारीके लड़के उन्हें गेंद से निशाना बनाकर आउट करने की कोशिश करते और अपनी बारीलाने की जुगाड़ में रहते। इस बीच कहीं धप्प से आवाज होती या कचरा फेंकाजाता तो वे खेल को वहीं रोकते और अपने काम की चीजें बटोरते, थैले में भरतेऔर फिर खेल वहीं से शुरू कर देते जहां से छोड़ा था ।

यहसब कुछ इतना मजेदार था एक फूटी गेंद सात बेडौल पत्थर उन्हें उस कचरे सेभरी जिंदगी के उन क्षणों में भी वह दे रहे थे जिसे खेलकूद कहा जाता है। वेहंस रहे थे गिर रहे थे, लड़ रहे थे, एक दूसरे को धकिया रहे थे, गालियां बकरहे थे। यह सब मजे में था मौज में था । दिन कब खत्म हुआ यह उन्हें पता हीनहीं चला। उन्हें सूरज पर बहुत गुस्सा आया, गुस्सा आया उस कचरे के ढेर परजिसके पीछे सूरज छुप रहा था। पर वे उस सूरज का क्या करें जो फूटी जिनकीशक्ल में उनके पास था, उनके हाथों के बीच में था। उन सात पत्थरों का वेक्या करें दिन के डूबने पर। खैर उन्होंने उस गेंद को कचरे के ढेर के पासबने चबूतरे के नीचे छुपाया, सातों पत्थरों को भी वहीं ठिकाने लगाया। अबदेखा अपने अपने थैलों की तरफ । वे रोज से स ज्यादा भारी थे भरे थे ठस्समठस्सयानी कि ज्यादा काम की चीजें थीं उनके थैलों में । वे अब कल फिर आएंगे रोजकी तरह सिर्फ कचरा बटोरने नहीं बल्कि अब जाएंगे सितौलिया खेलने के लिए। गोल फूटी गेंद की शक्ल में अब रोज उनकी ही पृथ्वी होगी । उनकी ही दुनियाहोगी।

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