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अहसास.

अहसास

बरसों बाद रामेश्वर मिला। मुलाकात रेलवे स्टेशन पर हुई थी। मैं छोटे भाईको छोड़ने गया था। वही वह दिखा। किसी सरकारी काम से आया था । सुबह हीआया था और अब वापस जा रहा है। उसने यह बताया था कि उसे पता ही नहीं था किमैं यहां हूं। जबकि मैं जानता था कि उसे यह मालूम था । मेरा पता और फोननंबर नोट करके भाई को हल्का सा विश करके अगली बार आने पर घर आने का कहकरसीट पर पहुंचने की प्रक्रिया में लग गया। छोटा भाई उसे पहचानता था पर वहकुछ नहीं बोला । जब हटा तो बोला "अच्छी कमाई में लगा है" मैंने सुनकरअनसुना कर दिया और उसे भी उसकी सीट पर बिठा दिया सिग्नल हो चुका था। गाड़ीधीरे धीरे खिसकने लगी, और मैं धीरे-धीरे बहुत पुराने दिनों में जाने लगा । रामेश्वर मेरे साथ ही स्कूल में कक्षा तीन से कॉलेज की पूरी पढ़ाई तक पढ़ाथा।

पहली मुलाकात आज भी याद है उन दिनों शहर में नई फिल्म लगने पर तांगे सेमाइक पर चिल्लाते हुए पर्चे फेंके जाते थे थे । बहुत सारे बच्चे उन तांगोंके पीछे दौड़ दौड़ कर परचे इकठ्ठा करते थे, जिनमें हीरो हीरोइन के फोटोहुआ करते थे । पिताजी का तबादला हुआ था और हम लोग नए-नए ही थे शहर में । पहला या दूसरा दिन ही था तभी वह तांगा निकला और मैं दौड़ पड़ा आदतन। पर्चेबटोरने लगा तो पाया कि बहुत सारे बच्चे दौड़ रहे हैं पर पर्चे बटोरने काकाम एक ही लड़का कर रहा है । जब उसने मुझे पर्चे बटोरते हुए देखा तोतरेरा। मैंने ध्यान नहीं दिया जब बहुत दूर निकल गए और बहुत से पर्चेइकट्ठा हो गए और मैं पलटा तो उस लड़के ने मेरा कॉलर पकड़ लिया।

" चलो वापस करो "उसने धमकाया । मैंने कॉलर छुड़ाते हुए बोला "क्यों " उसने मुझे ध्यान से देखा और बोला" नए आए हो"

"हां "

"तभी"उसने कुछ सोचते हुए मुझे छोड़ दिया और बाकी बच्चों के झुंड में शामिल होकरसबको एक एक दो दो परचे थमा दौड़ पड़ा। रामेश्वर । रामेश्वर प्रसाद जिससेअगले दिन स्कूल में मुलाकात हुई। मेरा एडमिशन उसी के स्कूल उसी के क्लासमें हुआ जिसमें वह था । तेजतर्रार था पढ़ने में भी खेलने में भी और लड़नेमें भी खेलने वाले में मेरी रुचि उससे खूब मिली और उससे अच्छी घुटती थी। हम लोग पक्के दोस्त थे। वह स्कूल के पीछे वाली बस्ती में रहता था वहां रहनेका मतलब और अहसास दूसरे लड़कों ने मुझे समझाया और बताया कि वह मेहतरों कामोहल्ला है और रामेश्वर भी उनमें से एक है । पर रामेश्वर से फिर भी दोस्तीनहीं छुटी। संयोग से मुझे उसके बगल में ही बैठना था वे दिन टापपट्टियोंवाले स्कूल के थे। और वह तीसरी कक्षा थी। मैंने पाया कक्षा में रामेश्वरका एक रुतबा था आतंक था। वो पढ़ने में भी बहुत तेज था और बदमाशियों में तोउसका कोई सानी ही नहीं था । बचपन में जो चीजें आकर्षित करती हैं वह यहीबदमाशियां थीं, खेल थे जिससे मैं रामेश्वर से प्रभावित हुआ था। बगल मेंबैठने पर उसने मेरा नाम पूछा है मैंने पूरा नाम बताया और उसका नाम पूछा तोउसने सिर्फ रामेश्वर। पूरा नाम ना बताने की वजह बगल के दूसरी तरफ वालेलड़के ने बताया। वह पीछे की बस्ती में रहता था ।

रामेश्वरयूं भी मेरे लिए लगभग अजूबे की भांति था। उसमें दिलचस्पी बढ़ने की एक वजहयह भी थी कि वह अपने परिवार की कमाऊ इकाई भी था। वह रात पाली मिल में कामकरता था उसकी उम्र कम थी कायदे से वह मिल में काम नहीं कर सकता था। तो वहकिसी बड़े के ऐवजी में काम करता था । और उसकी आधी मजदूरी वह उसे देता था, जिसके एवज में वह काम करता था । उसमें यह जिम्मेदारी का एहसास उस उम्र सेथा जिस उम्र में हम लोग निर्भरता के चरम पर थे । हमें जो चीज सहज ही उपलब्धथी उसे रामेश्वर को हासिल करने के लिए खुद ही खपना होता था। फिर वहकिताबें हों कि कपड़े हों कि जूते हों कि कुछ भी छोटी मोटी भी। शायद इसीलिएउसे हर चीज को सहेज कर रखना बहुत अच्छे से आता था। स्कूल में उन दिनों दोकापियां नमूने के बतौर रखी जातीं, एक मेरी कॉपी और उसकी कॉपी। रामेश्वरकी कॉपी यह दिखाने के लिए की कॉपी इस तरह रखी जानी चाहिए सहेज कर कवर वगैरहचढ़ाकर करीने से और मेरी कॉपी इसलिए इस तरह नहीं ही रखी जानी चाहिए। बेतरतीब फटी हुई। जो मैं नहीं था और वह जो था इसी अंतर ने मुझे उसकी ओरआकर्षित किया था। फिर खेलने लड़ने धींगामस्ती में उससे मेरा साथ अच्छामिलता था। मेरी उससे दोस्ती को शायद इस एक विराधाभास और एक साम्य ने औरगहरा किया । उससे उस वक्त जलन होती थी उसे रोकने टोकने वाला कोई नहीं था । दिन भर धींगामस्ती खेलकूद हंगामे में रहता । कंचे, गिल्ली डंडे, पतंग, सरियिगाड़, कबड्डी में ऑलराउंडर था। सारे खेलों में उसे महारत थी। भौंराघुमाना, उसे घुमा कर हाथ में लेना उसकी उम्र के लड़के के हिसाब से बहुतआश्चर्यजनक था।

वह मेरे घर पर आता था पर बाहर ही रहता था अंदर नहीं घुसता। मैं उसके घरचोरी चोरी जाता। उन्हीं दिनों की बात है हम लोग उसके घर के सामने खेल रहेथे कि पानी बरसना शुरू हुआ हम दोनों उसके घर के बगल में बने टप्पर मेंघुसे, तभी वहां तमाम सुअर भी घुसते चले आए मैंने भगाना शुरू किया और उससेभी कहा " अरे भगा यार"

उसने ठहाकामारकर कहा "अरे यार ये हमारे सूअर हैं" उन दिनों बुलंदी से बचपने में कहागया यह वाक्य अभी भी कानों में गूंजता है । उसके बाद मैंने उसके यहां जानाकम कर दिया पर दोस्ती बरकरार रही। उसका घर के लिए कमाना जारी था, आठवीं केबाद कुछ बड़े घरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया था। बड़ा होकरउन्हीं बड़े घर मालिकों की तरह बनना चाहता था। वह एक इंजीनियर के यहां भीजाता था पढ़ाने । दरअसल उसी समय उसके ठाट बाट देखकर उसने तय कर लिया था वहइंजीनियर बनेगा। यह तय करना हमारे माता-पिता की जिम्मे था। जो रामेश्वरने तय किया और मेरे लिए यही खुशी की बात थी कि मेरी और उसकी पढ़ाई कॉलेजमें भी साथ होगी । पढ़ने में वह अव्वल था, उसके रिजल्ट भी अव्वल आते रहे । मैं भी ठीक ही था । नतीजतन मुझे और उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिलगया। उस जमाने में पीईटी वगैरा का नाटक नहीं था। मेरिट पर एडमिशन हो जाताथा , हो कॉलेज की पढ़ाई भी साथ हुई।

कॉलेज में एडमिशन के साथ ही रामेश्वर में कुछ बदलाव आए थे। सबसे पहलेउसने अपना मोहल्ला छोड़ा। उसने शहर में एक कमरा किराए से लिया। वह अपनेको पुराने परिवेश से एकदम अलग करना चाहता था। उसके व्यवहार दोस्त चुननेमें, चाल चलन में फर्क आया था। उसका एडमिशन अच्छे नंबरों की वजह सेसामान्य वर्ग में हुआ था। प्रथम वर्ष से ही वह आरक्षित वर्ग के लड़कों कोबेहद हिकारत से देखता और बहुत बेरुखी से पेश आता। मैं उसे टोकता, उसेसमझाता पर वह अपने परिवार मोहल्ले अपनी जात से पूरी तरह अपने को अलग करनेमें लगा हुआ था । इन्हीं दिनों उसने अपना नाम आर पी वर्मा लिखना शुरू किया । कॉलेज में सब लोग उसे आर पी नाम से जानते रहे। पढ़ना उसके लिए जिद की तरह था।

हालांकिदिनभर उधम, मटरगश्ती की आदत वही थी पर वह रात भर पढ़ता था पूरे साल। उधम ठिलवाई में तो मैं साथ था पर पढ़ने में पीछे । वह मुझे कहता भी "अरेयार पढ़ने आ जाया कर कमरे में" मैं गया भी रात भर पढ़ना मेरे बस का नहींथा। उसने ताना भी दिया " तुम्हें पढ़ने की इतनी जरूरत भी नहीं है जितनामुझे " हालांकि मैंने उसे हलके से टाला था। "अबे मैं उसका आधा भी पढ़ोजितना तू पढ़ता है तो मैं हिंदुस्तान भर में टॉप करूं साले तू हमाल्ल जैसेपढ़ता है वैसे मुझसे नहीं पढ़ा जाता "

वह ठहाका मारकर हंस पड़ता।

ज्यादातर बहस मुबाहिसों में हम लोग एक तरफ ही हुआ करते थे सिर्फ आरक्षण केमुद्दे को छोड़कर । वह घोर विरोधी था आरक्षण का और मैं समर्थक। सबके बीचलगभग लड़ते मैं उसे अकेले में एहसास दिलाता कि "यार तू तो रिजर्वेशन केविरोध में ना हो" वह मुझे अजीब सी नजरों से देखता जो आर पी की होती थीरामेश्वर की नहीं । कॉलेज के दिन भी कट ही गए । रामेश्वर ने अपनी जिद केचलते पूरी यूनिवर्सिटी में टाप किया यही नहीं वह यूनिवर्सिटी कासर्वश्रेष्ठ छात्र भी घोषित किया गया। मैं भी ठीक-ठाक पास हुआ था । अब अलगहोने का समय था। मेरी नौकरी लगी शहर के बाहर। आदिवासी जिले में पहलीपोस्टिंग मिली तो निकल आया । रामेश्वर उन दिनों आईएएस की तैयारी में लगा था। गुजारे के लिए नगर निगम में नौकरी कर ली जो उसे उसकी पोजीशन की वजह सेआसानी से मिल गई । जिला बदर होने से मुझसे मुलाकात लगभग खत्म हो गई थी । एक बार घर आने पर मिलने की कोशिश की, तो पता चला वह बहुत व्यस्त है। सुबहजल्दी निकलता है रात को देर से आता है । घर उसने शहर की अच्छी कॉलोनी मेंलिया था। बहुत सारे काम चल रहे थे उसके पास और वह उन्हें बहुत संजीदगी सेअंजाम दे रहा था इसका मुझे भरोसा था और खबर भी इसी तरह की मिलती। हालांकिबहुत लंबे अरसे तक कोई खबर नहीं मिली तो आश्चर्य हुआ । फिर पता चला कि किसीलड़की के चक्कर में है । अच्छा लगा चलो ठिकाने लग जाएगा । फिर दो सालतक कोई खबर नहीं । मैं भी अपने काम धंधे में लग गया इसी दरमियान रामेश्वरकी एक चिट्ठी मिली यह एक अचरज था। हम लोगों के बीच कोई पत्र व्यवहार कभीनहीं रहा । उसे पढ़कर मैं भौचक्का था । गुस्से और दुख दोनों का ही अजीब काभाव आ रहा था था, हालांकि उसकी ओर से वह चिट्ठी उत्साह से लबालब भरी थी। इस पहली और आखिरी चिट्ठी में अपना हाल बताने या मेरे हाल पूछने कीऔपचारिकताओं को परे हटा वह सीधे मुद्दे पर था। वह बात उसके लिए बहुत खुशीकी थी पर मेरे लिए कतई उलट था और दुखदायी थी।

उसने लिखा था

" यार इधर मुझे एक लड़की से प्यार हो गया है । वह भी मुझे चाहती है । तुममिलोगे तो जल जाओगे साले। लड़की का नाम है मिनाली कपूर । आओ तो मिलवाउंगाउससे। बड़ी मुश्किल से शादी के लिए राजी किया है शादी 28 जून की है । कार्ड वगैरा आते रहेंगे। तू आना जरूर"

रामेश्वर

मैंने लड़की का नाम फिर से पड़ा मिनाली कपूर। पढ़कर मैं सकते में था। उसशहर में यह नाम ऐसा था जिसे हर वयस्क जानता था। उसका संपर्क बड़े-बड़ेलोगों से था। उस छोटे से शहर में वह बड़े-बड़े अफसरों के लिए अय्याशी कासामान थी और दर्शनीय तो थी ही। फिल्म वगैरह में भी ट्राई मार आई थी। एकफिल्म में 1 मिनट के लिए नर्स के रोल में दिखी भी थी, पर रामेश्वर उसकेचक्कर में कैसे फंसा यह मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था। एक हद तक समझमें आता भी था क्योंकि शहर के छोटे बड़े अफसरों में उसकी गिनती तो थी ही। जान पहचान नयनसुख और थोड़ा आगे तक तो ठीक था पर शादी। शादी एक ऐसा शब्द हैजिसके जो मायने रामेश्वर के दिए थे वे मायने मिनाली के लिए तो कतई नहींथे। अपने परिवेश अपनी जात से कटने की कोशिश में वह इस दलदल में फंस रहा था। मैंने चिठ्ठी के जवाब में लिखा

" रामेश्वर क्या कर रहा है । जिस लड़की से तू शादी कर रहा है उसके चाल चलन , आदतों के बारे में तो पता कर ले। वह तेरे लायक नहीं है मेरी सलाह मान कितू यह शादी मत कर और मेरे आने का ख्याल तो तो दिमाग से निकाल दे। मुझेबहुत अफसोस है। "

चिट्ठी लिखकर कुछहल्का लगा पर साथ ही मुझे यह भी पता था कि इसका कुछ असर नहीं होगा। मैंपरेशान था मुझे उसके साथ हुई बहसबाजी याद आने लगी। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक स्थितियों पर बहुत बहस होती थी। वह बहुत तेज और जहीन था सो उससेबहस में जीत पाना मुश्किल । रामेश्वर जो कि कॉलेज में आर पी के नाम से जानाजाता था अक्सर बहसों में उलझा रहता । आरक्षण के मुद्दे पर उसके तीखीअसहमति सारे कॉलेज को जाहिर थी। अकेले में मैं उसे लताड़ता था। उसके घर सेअलग होने अपनी जात से कटने पर उससे लड़ता था । मैं उससे अक्सर कहता था किजड़विहीन होकर कहां जाओगे। अकसर वह कन्नी काट जाता था । पर एक दिन जब बातबहुत तीखी हो गई थी और मैं उसके परिवार उसके भाइयों की स्थितियों कोलेकर लड़ रहा था कि इसमें उनका क्या कसूर तू क्यों उनसे कटता है । तब उसनेठंडा सा उत्तर देकर मुझे निरुत्तर कर दिया था

"तुझे तो उन हालातों को भुगतना नहीं पड़ता इसलिए तुम वकालत करते हो जात कीजात के एहसास की जड़ों की । तुम्हारी जड़े तुम्हारे पुरखे तुम्हारा अतीतबहुत गरिमामयी है इसलिए तुम चिपकना चाहते हो अपनी परंपरा से अपनी जात सेपर मैं किससे चिपटूं। मैं अपनों को वहां से बिल्कुल अलग कर लूंगा। मुझेशर्म है कि वे मेरे मां बाप भाई बहन हैं पर यह मेरे बस का नहीं था । "

इसधांसू डायलॉग के आगे मैं तालियां बजाकर झेंप मिटाने के सिवा कुछ नहीं करसकता था। मैं वहां उस रामेश्वर को तलाश रहा था जिसने एक रोज नासमझी में हीसही बहुत बुलंदी से कहा था "अबे यह हमारे सूअर हैं" हालांकि मेरी यह भीमंशा नहीं थी कि वह सूअर ही पाले । पर अपनी जात के एहसास पर अपने मां बापभाई बहन पर शर्मिंदा ना हो । खैर अब जो शादी का फैसला है वह तो उसे डुबो हीदेगा।

बादमें पता चला अंततः उसकी शादी हुई मिनाली कपूर से। घर से उसका कोई भीशामिल नहीं हुआ। कुछ अफसर थे शहर के, कुछ मित्र पोजीशन वाले । शहर केसबसे बड़े होटल में पार्टी थी खासा हंगामा रहा।

खबरेंमिलती रही रामेश्वर ने नया मकान बना लिया । सबसे पाश कालोनी में। बीवीसमेत रहता है। अच्छा पैसा बनाने में लगाहुआ है। मैं इन सब बातों को सुनकरनिरपेक्ष बना रहा।

छःमहीने बीत गए। अचानक अखबार की हेड लाइन में ध्यान खींचा। खबर थी सिटीइंजीनियर और उनकी पत्नी के बीच खूनी संघर्ष । मैं चौका रामेश्वर ना हो कहीं। पढ़ा तो वही था सिटी इंजीनियर आर पी वर्मा और उनकी पत्नी के बीच शराबपीकर झगड़ा हुआ और बीच सड़क पर मारपीट भी हुई। नौबत यहां तक थी कि दोनों कोअस्पताल में भर्ती करना पड़ा । इस झगड़े में कुछ असामाजिक तत्व भी शामिलहुए जिन्होंने सिटी इंजीनियर पर प्राणघातक हमला किया।

मैं डर रहा था पर इतनी जल्दी यह नौबत आ जाएगी ऐसा नहीं सोचा था । समझ नहींपा रहा था कि क्या करना चाहिए उधेड़बुन में था कि मिलना ठीक रहेगा किनहीं। पर बरसों की दोस्ती जोर मारी और बस पकड़कर रवाना हो ही गया। सीधेघर न पहुंचकर, अस्पताल पहुंचा तो पाया उसके सिर में चोट थी पैर मेंफ्रैक्चर था और भी जगह-जगह छोटी मोटी चोंटें थी । सिरहाने उसकी मां बैठीथीं। पास में भाई थे। पिता भी बैठे थे बगल में कुर्सी पर , मोहल्ले केऔर भी दो चार लोग थे। मुझे देखते ही एकदम खुश हो गया और फिर बुक्का मार कररो पड़ा। मैंने उसे चुप कराया उसने रोते-रोते बताया कि किस बुरी तरहगुंडों से पिटवाया और गंदी गंदी गाली बकता रहा कहता रहा " यार तूने तो मुझेचेताया भी था पर मुझे तो वह उस वक्त परी लग रही थी । फंसी मेरे चीफ से थीऔर चीफ ने उसे मेरे लिए तैयार किया था । फिर मेरे ही घर पर रंगरेलियांमनाने का प्रोग्राम रहता था । सारे कुलच्छन मेरे ही घर पर चल रहे थे। वहतो मैं जल्दी समझ गया और मना किया तो देख लिया मेरी हालत । अब तलाक नहीं देरही है पर उसे पता नहीं हमारी जात में तो दूसरी की जा सकती है। मेरीमुस्कुराहट देखकर वह समझ गया कि मैं उसे खींचना चाह रहा था। पर चुप रहा। ढांढस बंधा कर वापस आया ।

बादमें खबरें मिलती रही उसकी दूसरी शादी अपनी ही बिरादरी के लड़की से की । बहुत धूमधाम से जात बिरादरी, यार दोस्त सब शामिल हुए । कार्ड मेरे पास भीआया था पर मैं बीच में कहीं बाहर था हालांकि होता तो भी शायद नहीं जाता ।

परपिछले दिन गया। एक लंबे अरसे बाद उसके घर । उसके घर में धमा चौकड़ी मचीथी। तीन बच्चे थे उसके मां बाप भी वही थे भाई भी था । बहुत खुश लगा। गलेमिल गया ।

" भाई को बी ए करवा करआइएएस की तैयारी करवा रहा हूं। पढ़ने में ठीक है फिर आरक्षण के बदौलत तोहो ही जाएगा। मैं ज्यादा बात नहीं कर पा रहा था। पर मुझे भी अच्छा लग रहाथा। चाय नाश्ता किया डटकर। उसके ना मिलने पर गाली गलौज हुए। लगा कि मेरायार मुझे फिर मिल गया बाहर निकलते हुए उसकी नेम प्लेट पर ध्यान गया उसमेंआर पी वर्मा नहीं था बल्कि था रामेश्वर प्रसाद गोथवाल।

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