कुबेर - 32 Hansa Deep द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कुबेर - 32

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

32

धीरम और ताई जब लैंड हुए तो धीरम की हालत बहुत ख़राब थी। बचने की उम्मीद शायद नहीं थी। यही वजह थी कि जीवन-ज्योत में चाचा ने धीरम को न्यूयॉर्क भेजने का निर्णय लिया था। चार साल का बच्चा था वह लेकिन उसका वजन साल भर के बच्चे के बराबर भी नहीं था। हाथों में मशीनें लग-लगकर, सुइयाँ चुभो-चुभो कर कई छेद हो गए थे जिनमें ख़ून के धब्बे सूख-सूख कर लाल-कत्थई निशान छोड़ गए थे।

इलाज की लंबी प्रक्रिया थी। छोटा बच्चा होने के फ़ायदे भी थे और नुकसान भी। फ़ायदा यह कि अगर जड़-मूल से कीटाणु ख़त्म हो गए तो बहुत जल्दी खेलने-कूदने लगेगा। नुकसान यह कि कीमो नहीं झेल पाया तो जीवन के दिन और कम हो जाएँगे। कोशिश, उम्मीद, दवा और दुआ ये सब वे सकारात्मक पहलू थे जिन पर धीरम ही क्या हर इंसान की ज़िंदगी टिकी है। बस यही सोचकर सर चाचा ने डीपी के पास भेज दिया था न्यूयॉर्क।

सुखमनी ताई पहले से स्वस्थ थीं। अपने हाथों में धीरम को उठाए ऐसे लग रही थीं जैसे उन्होंने ही इसे जन्म दिया हो। बच्चा कोई भी हो, एक स्त्री में माँ ढूँढ ही लेता है और स्त्री कोई भी हो, बच्चे के लिए उसके भीतर की ममता उमड़ पड़ती है। धीरम भी अपनी इस लड़ाई में पीछे नहीं था। इतनी रुग्णावस्था में भी वह मुस्कुराता था जब ताई कहतीं – “धीरम बेटा”

उसकी आँखें झपकतीं, कुछ कहतीं, मौन भाषा होती जो बहुत कुछ कह जाती, बहुत कुछ समझा जाती।

“मेरा राजा बेटा, धीरम जल्दी ठीक हो जाएगा।”

वह हल्की-सी मुस्कान देता मानो कह रहा हो – “मैं भी खेलना चाहता हूँ, सोते-सोते थक गया हूँ।” वह डीपी को भी देखता मानो पूछ रहा हो – “आप कौन हैं”

मौन प्रश्न का उत्तर डीपी के पास होता – “आप तो मेरे बहुत अच्छे, बहुत प्यारे बेटे हो धीरम।”

वह फिर से आँखें झपकाता। उनींदी आँखें यूँ बातें करते-करते, बातें सुनते-सुनते ही बंद हो जातीं। ताई की गोद में सोया धीरम कितनी बड़ी यात्रा करके यहाँ पहुँचा था। ताई जो कभी भारत के भी किसी शहर में नहीं गयी थीं पर इतने बड़े महानगर की आदी होने में समय नहीं लगा उन्हें। घर से अस्पताल की ट्रिप को समझ गयी थीं एक ही बार में – “ताई यहाँ टोकन डालना है।”

“बाहर निकल कर यह गली पार करके आगे जाना है।”

“सीधे दो ब्लाक चल कर अस्पताल के मुख्य द्वार से अंदर घुसना है, लिफ्ट पकड़ कर दसवीं मंज़िल के कमरा नंबर ग्यारह में जाना है।”

हालांकि ताई को वहीं अस्पताल में रहने की अनुमति मिल गयी थी लेकिन वे डीपी के लिए और अपने लिए खाना बनाने घर जाती थीं। रोज़ बाहर का खाना उनके लिए मुश्किल था। वे यह भी जानती थीं कि उनके हाथ की बनी खिचड़ी भी डीपी शौक से खाएगा। यही वजह थी कि कुछ देर के लिए वे जातीं और सुबह-शाम दोनों समय के लिए कुछ बनाकर ले आतीं। धीरम तो कुछ खाने की स्थिति में था ही नहीं। हर समय ग्लूकोज़ की बोतल लगी रहती। डीपी और ताई के लिए खाना रहता। किसी भी समय डीपी अस्पताल पहुँचता तो अपने हिस्से का खाना ज़रूर खा लेता।

धीरम के सिरहाने बैठे-बैठे ही कई बार ताई की रात गुज़रती। कभी अपने पलंग पर जाकर सो भी जातीं तो रात में उठना ही पड़ता था। कभी नर्स आती थी चेकअप के लिए, या फिर कभी धीरम की चिन्ता से उन्हें नींद नहीं आती थी। कई बार धीरम के पास कुर्सी लगा कर बैठ जातीं, कभी अपने बचपन के शिशु गीत गातीं तो कभी सोते हुए धीरम को देखते-देखते मीठी-सी लोरी सुनातीं –

“लल्ला मेरा लल्ला, चंदा मेरा चंदा, छुप गया बादलों में, छुप गया तारों में

फूल ढूँढ रहे तुझे, कलियाँ भी ढूँढ रहीं तुझे,

निंदिया की गोद में तू, परियों के साथ तू

बबुआ मेरा तू, लल्ला मेरा तू, चंदा मेरा तू, धीरम मेरा तू....

छुप गया बादलों में, छुप गया तारों में....”

गाते-गाते शायद वे भी अपने बचपन में खो जाती होंगी। तभी तो आँखें मूँदे देर तक गुनगुनाती रहतीं। धीरम सोते हुए, अपने चेतन-अवचेतन मन में सुन रहा है या नहीं सुन रहा है पर कम से कम उनके मन को तसल्ली मिल जाती कि उन्होंने लोरी सुना दी है और बच्चा शांति से सो रहा है। डीपी ने एक फ़ोन भी दे दिया था ताई को। कभी रात-बिरात ज़रूरत हो तो फ़ोन कर दें। दिन में तो हर घंटे की जानकारी लेना आसान था पर रात में वह ताई को जगाना नहीं चाहता था। यह आर्थिक संकटों से जूझता हुआ समय था वरना वह ताई को पूरे दिन अस्पताल में अकेले बिल्कुल नहीं छोड़ता।

वक़्त-बेवक़्त ताई कहतीं – “बबुआ इतना काम मत किया करो।”

“एकदम सूख गए हो, छोटा-सा मुँह हो गया है।”

“थोड़ा आराम करा करो, मुझे मालूम है कि जीवन-ज्योत को तुम अपनी ज़िम्मेदारी समझते हो पर अपना ध्यान नहीं रखोगे तो ज़िम्मेदारी कैसे निभाओगे।”

ताई को यह कैसे बता पाता डीपी कि वह थोड़ा भी आराम करेगा तो उतना पैसा कम आएगा - “ताई, आप अपना और धीरम का ध्यान रखो, मेरे खाने-पीने, सोने की चिन्ता बिल्कुल मत करो।”

डीपी का मस्तिष्क इन दिनों एक ही नाम लेता था, एक ही नाम गूँजता रहता था – धीरम, धीरम, धीरम। एक नन्हा-सा बालक जो इस महानगर में डीपी के लिए एक चुनौती लेकर आया था – “बचा सको तो बचा कर दिखाओ सर डीपी।”

“तुम्हें तो मैं बचा कर ही रहूँगा धीरम, बस थोड़ा और धीरज रखो बच्चे, दवा से या दुआ से जो भी काम कर जाए।”

मौन सवालों के मौन जवाब देकर स्वयं को संतुष्टि दे सकता है इंसान, किसी और को नहीं। यह डीपी के ख़ुद के आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक ख़ुराक थी। सकारात्मक सोच ही इसका एकमात्र उपाय था। दादा कहते थे – “न और नहीं से कोई काम शुरू किया जाए तो ‘न’ ही होता है उसका अंत।” यह किसी थ्योरी को प्रस्तुत नहीं करता बल्कि मन के आशावादी रवैये को प्रस्तुत करता है।

डीपी ने सुखमनी ताई को जरा भी अहसास नहीं होने दिया कि इस समय वह कैसी मुश्किल से गुजर रहा है। हाँ, कई बार ताई को डीपी का चेहरा देखते हुए ऐसा लगा था कि जिस तरह पहले डीपी हँसता-बोलता था अब उसमें वह बात नहीं रही पर फिर वे सोचती थीं कि शायद धीरम की बीमारी की वजह से डीपी बबुआ इतने तनाव में है। यह भी तो हो सकता है कि देश के बाहर है और काम के दबाव में, समय के दबाव में शायद हँसना-बोलना कम ही हो गया हो। वे तो कल्पना भी नहीं कर पायी थीं कि डीपी इस समय किन परिस्थितियों से गुज़र रहा है। पाई-पाई को इकट्ठा करता एक-एक क़र्ज़ को चुकाता, लगा हुआ था अपनी ग़लतियों को सुधारने में।

पूरा जीवन-ज्योत परिवार उस बच्चे के लिए प्रार्थना कर रहा था। डीपी के दिमाग़ में भी इस समय एक ही ध्येय था - “पहले धीरम का इलाज, बाकी सब बाद में।” बच्चे को बचाने के लिए जो भी वह कर सकता था, कर रहा था। उसे देखने दिन में सिर्फ़ एक बार ही जा सकता था, सवेरे जब डॉक्टर राउंड पर आते थे। ताई अंग्रेज़ी समझ लेती थीं, टूटी-फूटी से बेहतर बोल भी लेती थीं। अस्पताल का काम चल रहा था।

डीपी की जबर्दस्त परीक्षा थी यह। एक से तीन लोग हो गए थे घर में, उनमें से दो अस्पताल में थे और एक सड़क पर गाड़ी दौड़ाता रहता था, एक सवारी से दूसरी, दूसरी से तीसरी के इंतज़ार में। दिन के किसी पहर में जैसे-जैसे व्यस्तता कम होती, वैसे-वैसे सोच बढ़ती जाती। दिमाग़ के पास करने को कुछ ख़ास नहीं होता तो वही घिसी-पिटी फ़िल्म चालू हो जाती, व्यापार में घाटा, बैंकों का क़र्ज़, इसका क़र्ज़, उसका क़र्ज़। जीवन-ज्योत जैसे बड़े परिवार की ज़िम्मेदारी, ये काम, वो काम। हज़ारों चिन्ताओं के बावजूद, धीरम का ध्यान रखने में कभी कोई कोताही नहीं होती।

मन के रिश्तों के मजबूत धागे कभी कमज़ोर नहीं पड़ते।

यह इतना मजबूत रिश्ता था उस बच्चे से कि डीपी जी-जान से जुटा हुआ था उसकी बीमारी से जुड़ी सारी आवश्यकताओं को पूरा करने में। एक दिन के ख़र्च की बड़ी राशि वहन करना आसान नहीं था। टैक्सी, रियल इस्टेट, अनुवाद, कॉपी एडिटिंग सब कुछ करने के बाद भी आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया था। कभी-कभी आमदनी चवन्नी होती थी और ख़र्च रुपया होता था। न चाह कर भी लाइन ऑफ क्रेडिट की शरण में जाना पड़ता। दादा कहते थे – “ख़राब दिन हमेशा नहीं रहते, देर-सबेर दिन पलटते ही हैं। तब तक अपने ऊपर लगातार विश्वास करके ही आगे बढ़ा जा सकता है, थक-हार कर बैठ जाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।”

अब वे क्षण थे जब कुछ न कर पाने की स्थिति में आकर आदमी सब भगवान के भरोसे छोड़ देता है कि – “मैं जितना कर सकता था, उतना कर लिया, अब मैं थक चुका हूँ।” डीपी के लिए यह वैसा ही समय था। शरीर में ताक़त ही नहीं बच रही थी कुछ करने की, कुछ सोचने की। चार घंटे की नींद के अलावा अधिकतर टैक्सी ही चला रहा था वह। फिर भी ज़्यादा कुछ नहीं मिल रहा था। बाज़ार में जान आने की सबको उम्मीद थी पर बाज़ार कब किसी की उम्मीद के हिसाब से चला है भला।

भाईजी जॉन समय-समय पर फ़ोन करके पूछते तो वह कह देता – “सब ठीक है।” लेकिन अब तन, मन और धन सब एक साथ दगा देने लगे थे। आज बेहद हताशा के क्षणों में पहली बार गाड़ी में बैठे-बैठे ही उसने दादा से प्रार्थना की – “दादा मेरे सामने अंधेरा है, कुछ करिए। रौशनी दिखाइये मुझे। मैं धीरम के लिए जो कुछ कर सकता हूँ, कर रहा हूँ पर मेरे प्रयास अब जवाब दे रहे हैं। पैसों की कमी की वजह से धीरम के इलाज में कोई कमी रह गयी तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा।”

दादा की छवि से कभी नकारात्मकता मिली नहीं तो आज भी कैसे मिलती। उम्मीद की किरण जागने लगती। यह वैसा ही था कि भगवान की मूर्ति के सामने अपनी अरदास कर दो और भूल जाओ, अब सब कुछ भगवान के हाथ में है। डीपी ने भी अपनी वेदना को अपने आराध्य के सामने व्यक्त कर दिया था और चल पड़ा था अपने प्रयासों को अंजाम देने।

अभी तक तो अच्छे से अच्छा इलाज चल रहा था। लेकिन धीरम की सेहत में कोई ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आ रहा था। सुखमनी ताई का भरोसा उसे थोड़ा ढाढस बंधाता। लेकिन डीपी किस तरह की आपत्ति में फँसा हुआ है इसका अहसास तक नहीं था उन्हें। ताई को बिल्कुल भी पता नहीं था कि कुछ दिनों पहले तक तो यह सब कितना आसान था डीपी के लिए पर आज उसे पैसे-पैसे के लिए तरसना पड़ रहा है। हर सुबह एक नयी उम्मीद लेकर आती और ख़ामोश-सी गुज़र जाती। फिर से काली स्याह रात घेर लेती, बाहर का अंधेरा भीतर तक पहुँचा देती। अगली सुबह का फिर से इंतज़ार होता, इंतज़ार और इंतज़ार। हर दिन की जी-तोड़ मेहनत डीपी को तन से ही नहीं मन से और धन से भी तोड़ रही थी। तन-मन-धन से टूटता वह अपने धैर्य को टूटने की कगार पर देख रहा था।

कहीं वह पागल न हो जाए संकट के इस दौर में, कहीं ख़ुद उसे कुछ न हो जाए, कहीं किसी दिन वह घुटने न टेक दे।

आशंकाएँ बगैर किसी आमंत्रण के आसपास मंडराने लगती हैं तो अच्छे खासे हिम्मत वाले व्यक्ति का संयम भी डोलने लगता है।

आख़िर वह भी तो इंसान ही था। सुना था, इस महानगर में किसी की आशाएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं इसीलिए आशा की डोर को थामे हुए था। सब सपने ख़ाक में मिलते नज़र आ रहे थे। महानगरीय चकाचौंध के पीछे की सच्चाई का सामना करना था। अपनी छोटी-छोटी ग़लतियों के लिए बहुत बड़ी सज़ा भुगतनी थी। नींद का समय कम करने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। अब यह हालत थी कि सिर्फ़ दो से तीन घंटे की नींद ही हो पा रही थी उसकी। कॉफी पीता रहता, टैक्सी चलाता रहता या डिस्पेचर के संदेश के लिए गाड़ी में सुस्ता लेता। बस उस पल का उस घड़ी का इंतज़ार था जब कोई तो अच्छी ख़बर सुनें उसके कान।

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