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कुबेर - 31

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

31

सब शिशुओं का नामकरण किया गया। मैरी ने सबको एक प्यारा-सा नाम दिया जो ध से शुरू होता था। अपने भाई डीपी के असली नाम के अक्षर धनंजय के ध से, धरा, ध्वनि और धानी तीन बच्चियाँ और धीरज, धनु, धैर्य, धीरू, धवल, धन्य, धीरम और ध्येय। मैरी ने बताया कि इन बच्चों के पालक का नाम सर डीपी लिखवाया गया है क्योंकि सर डीपी की वजह से ही इनका पुनर्जन्म हुआ है। अब भारत में क़ानूनन वही इन बच्चों का पिता है। डॉक्टर चाचा का यही सुझाव था और मैरी भी यही चाहती थी।

दादा के बाद संस्था के प्रमुख बने डॉक्टर चाचा अभी भी कुछ लोगों के लिए चाचा ही कहे जाते थे और शेष लोग सर कहकर पुकारते थे। उनकी उम्र दादा की उम्र से काफ़ी कम थी। उन्हें सभी उनके नाम से ऐके सर कहने के बजाय “सर” ही कहते थे या फिर “चाचा” कहते थे। और धीरे-धीरे सर और चाचा एक होकर “सर चाचा” भी कहकर पुकारा जाने लगा। उनके लिए डीपी का संबल बहुत बड़ी बात थी। नैन के कारण चाचा, डीपी से बहुत गहरे जुड़े थे। नैन की आकस्मिक मृत्यु से दु:खी चाचा के लिए जीवन-ज्योत एक माध्यम था नैन की इच्छाओं को पूरी करने का। और यही वजह थी कि वे जितने दिन संभव होता दादा के साथ रहकर उनकी मदद करते थे। उनकी इस समर्पित भावना के मद्दे नज़र दादा ने अपने रहते ही काफी कुछ काम उन्हें सौंप दिया था।

सबसे अच्छी बात यह थी कि वे दादा के समय की सारी परम्पराएँ निभा रहे थे। दादा का कमरा वैसा ही रखा गया था जैसा वे न्यूयॉर्क जाने से पहले छोड़ कर गए थे। उनकी एक बड़ी पेंटिंग लगा दी गयी थी जो संस्था के बच्चों ने ही बनायी थी वह अब स्वागत द्वार पर भी थी। वैसे ही मुस्कुराते, शांत चित्त, सबकी समस्याओं को सुलझाते दादा। ऐसी तस्वीर थी वह कि जो भी देखता उसका सिर झुक जाता श्रद्धा और विश्वास के साथ। जीवन-ज्योत के हर दीपक की, हर मोमबत्ती की रौशनी में चमकते थे दादा और शायद उसी के पीछे कहीं से मुस्कुराती नैन हाथ हिलाने लगती। मानो कह रही हो – “वाह डीपी, तुम तो ग्यारह बच्चों के पिता बन गए हो तो मैं भी तो माँ बन गयी हूँ न।”

नैन की याद कहीं से भी उछलती-कूदती-उमगती आ जाती और डीपी के मायूस मन को तरोताज़ा करके भरपूर ऊर्जा दे जाती। “अगर आज नैन होती तो इन ग्यारह बच्चों की माँ बन कर कैसे सम्हालती सबको, इतने सारे बच्चों से घिरी नैन कैसी लगती, कोई इधर खींचता कोई उधर...” बस यही सोचते-सोचते अचानक मुस्कुराने लगा था वह।

जब जीवन-ज्योत के कुछ ख़र्चे कम हुए तो डीपी अब टैक्सी का काम रोक कर अगली परियोजनाओं पर ध्यान देना चाहता था। आज टैक्सी चलाने का उसका आख़िरी दिन है यह सोचकर रात घर से निकला ही था कि भारत से चाचा का फ़ोन आया। उसने अनुमान लगाया कि धन्यवाद देने के लिए फ़ोन किया होगा चाचा ने।

शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था।

वे बेहद गंभीर थे और चिंतित भी – “डीपी, धीरम की तबीयत बहुत ख़राब है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें!”

“डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“डॉक्टरों ने घुटने टेक दिए हैं। यहाँ इलाज संभव नहीं है अब, अमेरिका भेजने को कह रहे हैं।”

“अमेरिका! इतना लंबा सफ़र तय कर पाएगा बच्चा?”

“उनका कहना है कि वे रास्ते के लिए सारी व्यवस्थाएँ करके भेजेंगे, सफ़र उसके लिए परेशानी नहीं है, इलाज में देरी परेशानी हो सकती है।”

“लेकिन चाचाजी, अकेला बच्चा कैसे आ सकता है इतनी दूर!”

“एक ही रास्ता नज़र आता है डीपी, सुखमनी ताई को भेज सकते हैं साथ में, थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी आती है उन्हें, वही धीरम को रास्ते में सम्हाल सकती है।”

“तो क्या सोचा आपने, सुखमनी ताई आने को तैयार हैं? उन दोनों के वीज़ा-पासपोर्ट सब कुछ बनने में भी तो समय लग जाएगा...”

“उसके लिए मैं बात कर चुका हूँ, शीघ्र ही सब कुछ हो जाएगा क्योंकि यह मेडिकल आपातकालीन स्थिति है। हमारे सरकारी संबंधों के होते इन सब बातों की चिन्ता नहीं है। चिन्ता तो सिर्फ धीरम की है कि एक बार वह उड़ान का समय पार कर ले और इलाज शुरू हो जाए तो आशा कर सकते हैं। मैं सोचता हूँ कि कोशिश करते हैं अगर तुम वहाँ की ज़िम्मेदारी ले लो तो। फिर जो भी हो हमें यह नहीं लगे कि हमने कुछ नहीं किया। तुम हो वहाँ और न्यूयॉर्क से अच्छी जगह तो हो ही नहीं सकती इलाज के लिए, बाकी तो तुम सम्हाल लोगे।”

“जी हाँ, यही सबसे अच्छा उपाय होगा।”

“जितनी जल्दी हो सके मैं उन दोनों के जाने की व्यवस्था करता हूँ।”

“तो क्या मुझे डॉक्टरों के बारे में तलाश करनी है या उनके पास रेफरेंस है?”

“यहाँ के नर्सिंग होम के डॉक्टर रेफरेंस के साथ, उनसे समय लेकर भेजेंगे। उन्होंने ये सारी जानकारी दे दी है मुझे, मैं तुम्हें ई-मेल कर देता हूँ।”

“जी चाचाजी, मैं उन्हें लैंड होते ही एयरपोर्ट पर मिल जाऊँगा और सीधे अस्पताल ही ले कर जाऊँगा।”

कह तो दिया डीपी ने, कहने में कुछ नहीं जाता पर उसका दिमाग़ और दिल दोनों मिलकर एक दूसरे से झगड़ रहे थे व हाथ अपने स्टीयरिंग व्हील पर कंपकंपा रहे थे। कुछ देर के लिए गाड़ी रोकी क्योंकि सामने जो दिख रहा था वह था एक गहरा धुँधलका, इधर कुआँ उधर खाई को इंगित करता। मस्तिष्क का विचलन एक दुर्घटना में बदले उससे पहले रुककर सोचना ज़रूरी था।

यही तो समय है जब वह किसी के लिए मसीहा बन कर दिखाए।

एक निर्णय तो लिया जा चुका है कि धीरम न्यूयॉर्क आ रहा है इलाज के लिए। एक निर्णय अब उसे लेना है कि क्या, कैसे, कब, व कहाँ से इतने पैसे लाएगा। कोई योजना कैसे काम करती जब कुछ था ही नहीं। ठंडे दिमाग़ से बैठकर कुछ जुगाड़ लगाए तो भी क्या। जीवन-ज्योत के लिए जो कुछ भी कर सकेगा, करेगा। चाहे ख़ुद को भी बेचना पड़ जाए। सोचना सिर्फ़ इतना था कि पैसों का जुगाड़ इस समय कैसे हो सकता है। इसके अलावा न कुछ सोच पा रहा था न ही शायद सोचने की कोई ज़रूरत थी।

डीपी ने ‘हाँ’ तो कर दी थी पर अब अस्पताल के ख़र्चे और हर रोज़ के लिए खाने-पीने की व्यवस्था, आना-जाना सब मिलाकर तो इतना ख़र्च होगा कि एक दिन के हज़ार डॉलर से कम नहीं होंगे। बाहर से इलाज के लिए आने वाले लोगों के लिए यहाँ कोई बीमा व्यवस्था है नहीं। तिस पर एक दिन की बात नहीं है, लगभग एक महीना तो हो ही जाएगा।

एक बड़ी राशि की सख़्त आवश्यकता है। अस्पताल के ख़र्चे एक के बाद एक मुँह फाड़ कर खड़े हो रहे हैं उसके सामने। अस्पताल के ख़र्चे जो भी हों, यहाँ अस्पताल पहले इलाज करते हैं, बिल बाद में देते हैं। अग्रिम रूप से पैसा जमा करने की बाध्यता होती तो इतना महँगा इलाज कभी संभव नहीं हो पाता। एक-दो दिन में डॉक्टर और अस्पताल से संबंधित जानकारी मिलेगी तब ही अस्पताल के प्रशासन तक पहुँचने की कोशिश कर सकता है। हाँ, एक बात तो तय थी वह यह कि अब सिर्फ़ टैक्सी चलाने से काम नहीं होगा। कई और मोर्चे खोलने होंगे मगर क्या और कहाँ, कुछ पता नहीं था।

पता करने के लिए डीपी का दिमाग़ भन्नाया, चकराया और गोते लगाने लगा महानगर के सागर से कैसे पैसे खोज कर लाए जाएँ। काश उसे सपने में लॉटरी के नंबर दिखाई दे जाते पर शायद तब भी वह लॉटरी लेने में एक डॉलर ख़र्च नहीं करता। किस्मत को साथ देना ही होता तो उसका बेटा धीरम भारत में ही ठीक हो जाता। अस्पताल के अलावा ताई के रहने की व्यवस्था, खाने-पीने की और भी अन्य चिन्ताएँ सताने लगीं। ताई और धीरम के लैंड होने से पहले पैसों की व्यवस्था करनी ही होगी।

जहाँ से भी, जैसे भी पैसे मिले लेने का प्रयास करने में कोई बुराई नहीं है। दिन में जब छुट-पुट समय मिले तो विज्ञापन एजेंसियों से विज्ञापन लिखने, कॉपी एडिटिंग करने के फुटकर कामों के लिए बात करे। उसकी कंपनी जिन अनुवाद संस्थानों को काम भेजती थी, उनसे अपनी विशेषज्ञता में काम माँगे। आख़िर रात एक से पाँच बजे का समय अब भी है उसके पास। भले जो मिलेगा वह हाथ से मुँह तक का खर्चा ही होगा। आगे के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। कोई ऐसी प्रॉपर्टी नहीं थी जिसे बेच सके। कुछ ज़मीनें थीं जो डूबत में थीं। इस समय उन्हें कोई ख़रीददार नहीं मिलने वाला था, कौन अपना पैसा पानी में बहाना चाहेगा।

बैंक वालों से भी नहीं ले सकता था। इस समय उसकी साख को बनाए रखना ज़रूरी था। एक ही उपाय था, निजी उधारदाताओं से बात की जाए, ब्याज़ दर ज़रूर ज़्यादा होगी, पर जान बचाना हो तो लोग बाढ़ में भी उफनती नदी पार कर जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति थी डीपी के लिए। यहाँ के अस्पताल का ख़र्च पूरा करने के लिए ऊबर की कमाई कहीं से कहीं तक पर्याप्त नहीं थी और ना ही विज्ञापन, एडिटिंग या अनुवाद के काम में एक मुश्त पैसा मिल सकता था।

भाईजी जॉन का संदर्भ देकर कई लोगों से बात की। कुछ लोगों ने अपनी मुश्किलों का बयान किया तो कुछ ने अपनी मजबूरी का। आख़िरकार एक ने हामी भर दी। वह रकम अस्पताल की फीस के लिए पैसों का इंतज़ाम करने में बहुत बड़ा सहारा थी। अभी इतना ज़रूरी था बाकी बाद में देखेंगे, यह सोचकर थोड़ी-सी राहत मिली। यद्यपि दैनिक ख़र्चों में भी काफी बढ़ोतरी होने वाली थी। ताई का रहने का, आने-जाने का और अस्पताल में सार-सम्हाल करने का ख़र्च सामने था, साथ ही स्वयं डीपी का भी इधर से उधर दौड़-धूप करने में पैसा तो लगना ही था। आने वाला समय आवश्यक ख़र्च और ज़िम्मेदारियों का एक चक्रव्यूह रच रहा था डीपी के लिए जिससे घबरा कर नहीं बल्कि धीरे-धीरे संयम से ही बाहर निकला जा सकेगा, यह तय था। सारे वैकल्पिक सहायक मार्ग एक-एक करके पहले ही बंद हो चुके थे।

चिन्ताएँ कोई समाधान नहीं देतीं, समय के कुचक्र का सामना ही समाधान देता है।

वही किया डीपी ने। शांत और आशावादी रवैये के साथ तैयारी की धीरम और ताई के आने की। इसके अलावा अब कोई चारा भी नहीं था। बस एक बार धीरम का इलाज शुरू हो जाए। दादा हमेशा कहते थे – “परिणाम की चिन्ता मत करो, प्रयास करते रहो।”

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