Jo Ghar Funke Apna - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

जो घर फूंके अपना - 24 - फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

जो घर फूंके अपना

24

फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

आपको अपने साथ रूस की यात्रा करने का निमंत्रण तो मैंने दे दिया पर मेरी पीढी के लिये विदेश यात्रा का क्या अर्थ था,कितना रोमांस और तिलिस्म था इस शब्द में इसका अंदाज़ लगाना भी आज के परिवेश में आपके लिए मुश्किल होगा. संभव है आप अपनी सारी रातें विदेशियों के साथ उन्ही की भाषा में, उन्ही के क्षेत्र की ऐक्सेंट में बात करते हुए किसी कालसेंटर में बिताते हों और मानसिक रूप से विदेश में ही रहते हों. आपके कार्य से खुश होकर हर साल आपकी कंपनी आपको बैंगकाक और पुठाया में कुछ रंगीन रातें बिताने के लिए भेज देती होगी. आप फख्र से बैंगलोर, हैदराबाद,गुड़गाँव या पुणे से हज़ार दो हज़ार मील दूर रहते अपने घर वालों को बताते होंगे कि कंपनी अपने अनेकों कर्मचारियों में से केवल आपको चुनकर किसी ग्राहकसंस्था का सोफ्टवेयर सुधारने के लिए विदेश भेज रही है. इस काल्पनिक सोफ्टवेयर और अपने वास्तविक हार्डवेयर की मरम्मत करके बैंगकाक से वापस लौटने पर ध्यान आता होगा कि मौजमस्ती के चक्कर में अपने छोटे भाई,बहनों के लिए विदेश से उपहार खरीदने के लिए तो पैसे बचे नहीं. फिर आप दिल्ली के पालिका बाज़ार या बंगलौर, हैदराबाद के ऐसे ही बाज़ारों से कोई चाइनीज़ ड्रेस मेटीरियल या खिलौने लेकर अपने घर सौगात के रूप में भेजते होंगे. उधर आपकी माँ सत्संग में आयी हुई अपनी सहेलियों को गर्व के साथ बताती होगी कि कैसे अमेरिका, इंग्लैंड के रूठे हुए ग्राहकों के सॉफ्टवेयर को सुधारने के लिए आपकी कंपनी आप पर ही निर्भर है.

ज़िन्दगी की गाडी में यदि आप इससे ऊंचे दर्जे के डिब्बे में बैठकर सवारी कर रहे हैं तो शायद हेलसिंकी या कोपेनहेगन के कुहरे, बादल और हिमपात से सहमे हुए, उदास आकाश में खिलखिलाते हुए सूरज को देखने के लिए तरस रहे होंगे जो सुदूर भारत में छूट गया है.. इलेक्ट्रानिक मनीट्रांसफर से भारत में मोटे हो रहे अपने बैंक बैलेंस का ध्यान आने पर क्षणभर के लिए कुछ तसल्ली मिलती होगी पर विदेश यात्रा से आप कितनी ढेर सारी खुशियाँ समेट पा रहे हैं ये सवाल स्वयं से पूछने पर आपके मन के ऊपर अवसाद की एक तह बाहर छाई धुंध की चादर की तरह बिछ जाती होगी. मन शायद अकुला कर कहता होगा आ अब लौट चलें.

ज़िंदगी के हवाई सफ़र को अगर आप बिजनेस क्लास में बैठकर तय कर रहे हैं तो शायद अपने ही शहर के एयरपोर्ट के बिज़नेस लाउंज में बैठकर एक फ्लाईट से उतर कर दूसरी फ्लाईट पकड़ने के अंतराल को अपने लैपटोप या आई पैड पर नज़रें टिकाये हुए बिताने में व्यस्त होंगे. संभव है कि अगली फ्लाईट तक इतने घंटों का अंतराल हो कि आप घर जाकर अमेरिका या जापान से लाया हुआ नवीनतम इलेक्ट्रानिक खिलौना अपने बेटे को सौंपते हुए उससे वादा कर सकें कि कभी न कभी आप उसके साथ इस खिलौने से ज़रूर खेलेंगे पर अभी आप बहुत थके हुए हैं. इसके बाद अपनी पत्नी को एक रस्मी चुम्बन देकर आप उसे पेरिस एयरपोर्ट में ड्यूटी-फ्री से खरीदी हुई महंगी परफ्यूम भेंट देंगे जिसे वह अपनी ड्रेसिंग टेबुल पर रखी हुई अन्य दर्जनों परफ्यूम्स की खूबसूरत शीशियों के साथ रख देगी. अपने जेटलैग से थके तन और कंपनी की चिंताओं से थके मन को लेकर जब आप बिस्तर पर निढाल होकर पड़ जायेंगे तो आपको दूसरी तरफ करवट लेकर सो लेने देकर उसे महसूस होगा कि इससे अधिक और कोई खुशी इस समय वह आपको नहीं दे सकती थी.

बहुत सुलभ हो गयी विदेश यात्रा के अब यही मायने रह गए हैं. पर एक ज़माना वह भी था कि विदेशयात्रा का सुख अलौकिक सा होता था. विदेशी मुद्रा के घोर अभाव वाले उन दिनों में विदेश यात्रा पर जाने के लिए सरकार ने इतने प्रतिबन्ध लगा रखे थे जितने सुन्दर लड़कियों पर उनके मा-बाप अपने घर की बालकनी में खड़े होने पर भी नहीं लगाते थे. भारत में भले किसी के सर पर लक्ष्मी का वरदहस्त हो पर विदेश जाने के लिए निहायत समाजवादी तरीके से सभी को केवल आठ या दस डॉलर ले जाने की अनुमति थी. एक डॉलर तब नौ या दस रुपयों के बराबर था. अब इतनी बड़ी रक़म में कोई क्या खाए, क्या पीये, क्या ले परदेस जाए? विदेश यात्रा का पूरा आनंद तो तभी था जब भारत सरकार स्वयं अपने खर्चे से भेजे. सरकारी नौकरियों में तनख्वाहे तो इस लायक नहीं होती थीं कि देश के सबसे प्रतिभाशाली और प्रखर छात्र आई ए एस और अन्य केन्द्रीय सेवाओं में आने के लिए संघ लोकसेवा आयोग की दहलीज़ पर लगातार अपना सर पटक कर फोड़ते रहें. पर एक बार इन नौकरियों में घुस लिए तो पौ बारह हो जाती थी. भाग्य और प्रतिभा दोनों के धनी साहेब लोग अन्य अनेकों तरह की उचित- अनुचित सुविधाओं पर कब्ज़ा जमाने के साथ साथ विदेशयात्रा की दौड़ में भी आगे रहते थे. सरकारी नौकरों के लिए दिल्ली में नियुक्ति मिलने पर विदेशयात्रा का जुगाड़ करना अपेक्षाकृत अधिक आसान होता था अतः दिल्ली वाले विदेश जाने के और अन्य राज्यों में नियुक्त अधिकारी दिल्ली आने के जुगाड़ में लगे रहते थे.

उच्चशिक्षा प्राप्त, प्रतिभा के धनी किन्तु भाग्य के गरीब युवा इन परीक्षाओं में लहूलुहान होने के बाद किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में लेक्चरार की नौकरी ढूंढ लेते थे. फिर बाकी का जीवन ऊंची, ऊंची, दार्शनिक और राजनीतिक बहसों में एक दूसरे का सर फोड़ते –फुडवाते हुए बिताते थे. इन्हें भी विदेशी विश्वविद्यालयों में एक्सचेंज प्रोग्राम आदि में जाकर अध्यापन करने का मौक़ा कभी कभी मिल जाता था. अतः एक सत्र में कुछ पढा लेने के बाद हर सत्र में वही कुछ पढ़ाने से ऊबे हुए इस वर्ग को विदेश जाने के लिए गुटबंदी,जुगाडबाज़ी और राजनीति करने के लिए पर्याप्त समय और ऊर्जा रहती थी.

विदेशयात्रा करने का जन्मसिद्ध अधिकार आज की तरह ही उन दिनों भी उस भाग्यशाली वर्ग के पास था जो पढाई-लिखाई की चिंता से बहुत जल्द मुक्त होकर राजनीति के अखाड़े में दंड पेलने में लग जाते थे. लोकसभा,विधानसभा, कहीं भी एक बार दांव लग जाए तो तरह तरह के शिष्ट मंडलों के सदस्य के रूप में दुनिया भर में घूमने के सारे दरवाज़े खुल जाते थे. कोई लोकसभाई शिष्टमंडल न्यूयोर्क जाकर गरीबी दूर करने के उपायों का अध्ययन करता था तो कोई ब्यूनस-आयर्स जाकर दक्षिण भारत में दक्षिण अमेरिकी ढंग से पशुपालन करना सीखने जाता था. मंत्रियों की बात छोड़ें, उनके संतरियों को भी किसी गूढ़ समस्या का अध्ययन करने के लिए विदेश भेजा जा सकता था. हमारे जिले से जो सज्जन लोकसभा के सदस्य थे उन्होंने चुनाव जीतने के पश्चात गाँव में खेती करने वाले अपने हलवाहे को भी पुश्तैनी स्वामिभक्ति के पुरस्कारस्वरूप किसानों के एक शिष्टमंडल के साथ खेती का आधुनिकीकरण समझने के लिए कनाडा भेजा था. लगातार दूसरी बार चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने खानदानी धोबी भिक्खीराम को जो पूर्वी उत्तर प्रदेश का धोबियों का पारंपरिक लोकनृत्य अच्छा करता था गणतंत्र दिवस लोकनृत्य समारोह में भाग लेने के लिए दिल्ली भिजवाया था, वहां से उसे लोकनृत्य करने वाले कलाकारों की एक सरकारी मंडली के साथ जमाइका जाने का अवसर भी उन्होंने दिलवाया. जमाइका जाकर भिक्खी ने बहुत सा नया ज्ञान प्राप्त किया. परिणामस्वरूप उसने गाँव में महुए और पुराने जूतों के अद्भुत मिश्रण से बनी कच्ची शराब खींचने के लिए अपनी कपडे उबालने वाली भट्टी के प्रयोग का पुराना तरीका त्याग दिया और उसी भट्टी से नयी इम्पोर्टेड टेक्नोलोजी का प्रयोग करके गन्ने के रस से जमाईकन् रम बनाने में अद्भुत सफलता पाई. दुर्भाग्यवश हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं में उसके योगदान पर इसका एक दुष्प्रभाव पडा. भिक्खीराम अपनी भट्टी पर खींची हुई रम को पीने के बाद पारंपरिक लोकनृत्यों को छोड़कर रोक एन रोल तथा साम्बा नृत्य करने लगा. “भूमंडलीकरण” शब्द पहली बार सुना तो मुझे भिख्खी की रम चढ़ाकर रॉक एन रोल करने की ही याद आयी थी. तीसरे लोकसभा चुनाव में हमारे सांसद जी की लोकप्रियता ने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिए. इस जीत के पीछे भिक्खी की बनाई रम का वितरण और चुनाव सभाओं में आमंत्रित बड़े बड़े नेताओं के आने तक पब्लिक को लुभाए रखने के लिए उसके धोबीनृत्य और रोक एन रोल के हाइब्रिड प्रदर्शन की महत्ता को स्वीकारते हुए आभारी सांसद महोदय ने एक बड़ा अनुग्रह उसपर किया. विधानसभा के चुनाव आने पर सांसद महोदय की सिफारिश पर चुनावक्षेत्रों का नया खाका तैयार हुआ, भिक्खी के गाँव के आसपास का क्षेत्र पिछड़ी जातियों के लिए सुरक्षित चुनाव क्षेत्र घोषित कर दिया गया और सांसद महोदय की पार्टी ने भिक्खी को अपना प्रत्याशी बनाया. स्वयं तो वह लोकप्रिय था ही पर एक मज़बूत पार्टी के प्रत्याशी के रूप में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली. उसकी लोकप्रियता के चलते उसे मंत्रिपद भी मिलना ही था पर उसके अनुभव के आधार पर जब उसे आबकारी विभाग सौंपा गया तो प्रदेश में मुख्यमंत्री की सूझबूझ की भी काफी धाक जमी. आबकारी मंत्री की ही तर्ज़ पर उन्होंने अधिकाधिक बार आपराधिक मामलों में जेल गए विधानसभा सदस्य को जेलमंत्री और सबसे अधिक बार स्कूली परीक्षाओं में फेल हुए सदस्य को शिक्षामंत्री बनाकर सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा के मूल्यांकन में देर हो सकती है पर अंधेर नहीं. आबकारी मंत्री का पद संभालने के बाद भिक्खीराम को शुरू में लगा था कि स्वयं अपनी भट्टी पर काम जारी रखने की अपेक्षा दूसरों को इस पुण्यकार्य में प्रोत्साहन देना अधिक लाभदायक होगा. पर उनके बेटों ने दूरदर्शिता दिखाई और कहा कि जैसे बुढापे में कमसिन पत्नी के पातिव्रत्य का कोई भरोसा नहीं वैसे ही मंत्रिपद और विधानसभा सदस्यता की अवधि पूरे पांच वर्ष होने की कोई गारंटी नहीं. बेहतर होगा कि जो धंधा परिवार में चुपके से चुराए हुए विदेशी ज्ञान की बैसाखी लगाकर प्रारम्भ किया गया उसे अब डंके की चोट पर खुल्लमखुल्ला जारी रखा जाए. बल्कि विदेश से तकनीकी सहयोग लेकर और बड़े पैमाने पर किया जाय ताकि समृद्धि पीढ़ियों तक टिके.

पर वह समय था बड़ा विकट. सही ढंग से, कायदे कानून का पालन करते हुए किसी व्यापार उद्योग को बढाने की कामना भी गुनाह समझी जाती थी. मठों,मंदिरों आदि के महंतों को और समाजवाद का दम भरनेवाले नेताओं को छोड़कर अन्य किसी की पैसे कमाने की इच्छा को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था. उद्योगपतियों को समाज का दुश्मन माना जाता था और जो बेवकूफ उद्योगपति अपनी पूरी आमदनी घोषित कर देते थे उनके ऊपर नब्बे प्रतिशत तक का आयकर लगाकर समझाया जाता था कि इस देश को उनके जैसे मूर्खों की ज़ुरूरत नहीं थी. पर बेचारे करते भी क्या? देश छोड़कर भागना चाहते तो बस वही आठ-दस डॉलर साथ ले जा पाते. स्विटजरलैंड की स्वास्थ्यवर्धक आबोहवा में पनपने वाले बैंकअकाउंट तबतक नेताओं को छोड़कर अन्य लोगों को सुलभ नहीं हुए थे.

बहरहाल, भिख्खी ने बेटों को समझाया कि फिलहाल समाजवाद की माला जपते हुए चुपचाप अपनी हाइब्रिड भट्टी में दारू खींचे जाओ और बाजारभाव मंदा न होने पाए इसलिए शराबबंदी को गुजरात से बाहर बाकी पूरे देश में भी लागू करने के अभियान में जोर शोर से जुटे रहो. गांधीजी पूरे देश के थे. गुजरात में पैदा हुए तो इसका ये मतलब तो नहीं कि शराब की तस्करी का पूरा पूरा लाभ अकेले गुजरात वाले ही उठायें. यदि सभी राज्यों में शराबबंदी लागू हो गयी तो शराब की मांग इतना बढ़ेगी कि वक्त आने पर उत्पादन वृद्धि और उसके लिए आधुनिकीकरण एक अनिवार्य आवश्यकता बन जायेगी. इस नेक सलाह को मानते हुए लायक बेटों ने 1991 तक गाँव में अपने धंधे को चुपचाप जारी रखा और जब सरकार की आर्थिक सोच ने अचानक सर्कस के कलंदर की तरह उदारीकरण वाली कलाबाज़ी खाई तो देखते ही देखते उनके सपने साकार हो गए. भिक्खी डिस्टीलरीज की ‘धोबी ब्रांड रम’ और ‘गोल्डन-डंकी ब्रांड की ब्रांडी’ आज विदेशों में भेजी जा रही है. इस समृद्ध परिवार ने सीख लिया है कि जैसे लेखक बनने की अपेक्षा सम्पादक बनना कहीं अधिक लाभदायक और सुविधाजनक होता है वैसे ही स्वयं मंत्रिपद स्वीकार करने के बजाय कई सारे मंत्रियों को अपनी जेब में रखने में अधिक समझदारी है.

क्रमशः --------

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