जो घर फूंके अपना - 23 - बार्बर बनाम नाई Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 23 - बार्बर बनाम नाई

जो घर फूंके अपना

23

बार्बर बनाम नाई

पिताजी के सर पर रुपहले बालों की जगह केवल उनकी धूमिल सी याद को देखकर मेरी तुरत प्रतिक्रिया तो यही थी कि मेरे द्वारा हुई उनके हुनर की नाक़द्री का बदला जांसन ने मेरे पिताजी से निकाला था पर राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादेमी (एन. डी. ए) के दिनो की एक घटना याद आ गयी तो लगा कि मुझे भी हंसकर इस घटना को लेना चाहिए. एन डी ए के उस बार्बर ने मेरी और मेरे एक मित्र की एक हरक़त की सूचना हमारे अधिकारियों को दी होती तो जाने कितनी सज़ा भुगतनी पड़ती.

राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादमी अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धिप्राप्त संस्था थी (आज भी है). विश्व के अनेक देशों से प्रशिक्षार्थी वहाँ आते थे. कुछ अफ्रीकी और एशियाई देशों जैसे नाइजीरिया, जाम्बिया, केन्या, मैलेसिया, श्रीलंका आदि से प्रशिक्षार्थी तो हर बैच में आते थे. हम भारतीय प्रशिक्षार्थियों (कैडेटों )की अफ्रीकी देशों से आये कैडेटों से एक क्षेत्र में ईर्ष्या-मिश्रित प्रतिद्वंदिता रहती थी. पढने लिखने में तो वे हमारे पास नहीं फटक पाते थे पर खेलकूद एवं आउट डोर गतिविधियों में वे बहुत अच्छे होते थे, विशेषकर फूटबाल, मुक्केबाजी और एथेलेटिक्स में. उनसे ईर्ष्या होने का एक बड़ा कारण ये भी था कि जहां अकादमी में पहुँचते ही हम भारतीय कैडेटों की जम कर रैगिंग होती थी वहीं विदेशी कैडेटों की रैगिंग की सख्त मनाही थी. विदेशी कैडेटों की भीषण रैगिंग के बजाये बस मासूमियत से खिंचाई होती थी.

मैं जब प्रथम सेमेस्टर से दूसरे में पहुंचा अर्थात हमसे अगला बैच हमें रैगिंग का पहला मौक़ा देने के लिए अकादमी में आया तो उसमे कई कैडेट जाम्बिया से आये. उनमे सबसे हृष्ट पुष्ट था ओवे न्गुए. सत्रह अठ्ठारह वर्ष की आयु में ही न्गुए दैत्याकार लगता था. मुक्केबाजी और फूटबाल में उसका जवाब नहीं था. फुलबैक के स्थान से फूटबाल को किक मारकर सीधे प्रतिद्वंदी टीम के गोलपोस्ट में पहुंचाने का दम रखने वाला न्गुए बहुत खुशमिजाज़ था. विदेशी कैडेटों की रैगिंग करने का मन चलता था तो हम ज्यादा से ज्यादा उनसे गाना सुनाने या नाचने के लिए कह पाते थे. इसे भी करने को उन्होंने यदि मना कर दिया तो हम केवल खिसियाकर दिखाते कि ये तो बस एक मज़ाक था. पर न्गुए को एक बार भी बोलते तो वह अपनी भाषा के गीत बहुत शौक से सुनाता. नाचने को कह दो तो बेहद खुश होकर हमें अपने युद्धनृत्य (वारडांस) इतनी जोर से धमा चौकड़ी कर के दिखाता था कि धरती हिल जाए. अपने इन्ही गुणों के कारण वह सीनियर कैडेटों के बीच सबसे अधिक लोकप्रिय हो गया था जिसके चलते हम उसे प्यार से ओवे न्गुए की जगह “ओये नंगे “ या “ओये नंगुवे “ “कहने लगे थे.

हमारे सुझाव पर उसने अधिकारियों को छोड़कर अन्य किसी के भी पूछने पर अपने नाम का यह देशी संस्करण बताना शुरू कर दिया था. नाम पूछने वाले की हंसने की प्रतिक्रया उसे इतनी अच्छी लगने लगी कि उसके मन में हिन्दी के प्रति सहज प्यार पनप गया. उसने ठीक से हिन्दी भाषा सीखने की इच्छा प्रकट की और हम सब उसके हिन्दी शिक्षक बन गए. एक दो सप्ताह के अन्दर ही ओये नंगे ने बहुत सारे हिंदी के शब्द सीख लिए. अपने हिन्दी ज्ञान से उसने कैडेट्स मेस के वेटरों, अर्दलियों आदि को बहुत प्रभावित किया. उनसे छोटे छोटे वाक्यों में वह अपने काम की सारी बातें कर पाने योग्य हो गया. पर एक दिन जब उसे हेयरकट लेना था तो उसे ध्यान आया कि बार्बर और हेयरकट दोनों ही शब्दों की हिन्दी उसे नहीं मालूम थी. असली आश्चर्य उसे तब हुआ जब कई भारतीय कैडेट भी बार्बर शब्द की हिन्दी नहीं बता पाए. ओये नंगुए “बार्बर मुझे,हेयरकट दे दो” सीख कर संतुष्ट नहीं था क्यूंकि इस छोटे से वाक्य में आधे शब्द अंग्रेज़ी के थे. उसे पता था कि हिन्दी मेरी अच्छी है अतः वह मेरे पास पूछने के लिए आया कि हिन्दी में हेयरकट कैसे मांगे. दुर्भाग्य से मेरे साथ मेरा एक बहुत शैतान दोस्त यश बैठा था. उसने मेरे उत्तर देने से पहले ही नंगुए से कहा एकदम शुद्ध हिन्दी में बोलना है तो बार्बर से जाकर बोलो ”भाई साहेब, मेरी वहाँ --- वह ----कर दो“ नंगुए प्रसन्न मन “बार्बर शॉप” की तरफ चल दिया. यश ने मुझसे कहा ”चल यार,तमाशा देखते हैं” मुझे डर लग रहा था कि अगर बार्बर ने अधिकारियों तक बात पहुंचाई तो हम परेशानी में फँस जायेंगे, पर यश ने मुझे कायर और डरपोक कहकर मजबूर कर दिया कि हम नंगुए के पीछे जाकर देखें कि उसका हिन्दी प्रेम क्या रंग लाता है. तो हम दोनों नंगुए के पीछे चल पड़े और बार्बर शॉप की खिड़की से झाँक कर तमाशा देखने लगे. नंगुए ने अपनी ट्रेडमार्क मुस्कान बार्बर की ओर फेंककर जब उससे अपना नम्र निवेदन किया तो यश और मैं बार्बर के चेहरे पर विस्मय, गुस्सा और सबके पीछे हंसी, के बदलते हुए रंग देख कर हंसी से लोट पोट हो गए. बार्बर ने एक बार ऊपर से नीचे उसके छह्फुटे मुक्केबाज़ शरीर को निहारा और फिर गुस्सा करने का इरादा बदल कर बड़ी विनम्रता से किसी तरह उसे अंग्रेज़ी में समझाने की कोशिश की कि जो काम नंगुए करने को कह रहा था वह उसके बस का नहीं था. नंगुए ने अपनी बात दो तीन बार शायद उच्चारण बदल बदल कर कहने की कोशिश की कि बार्बर को समझ में आ जाए. पर उसके बाद चुपके से हम वहाँ से खिसक लिए. मामले ने जियादा तूल नहीं पकड़ा. स्पष्ट था कि बार्बर महोदयं ने इसे नौजवान कैडेटों का खिलंदड़ीपन समझ कर भुला दिया था.

वायुसेना में जब मैं गया तब वह पूरी तरह अंग्रेजीदां थी. अगले दशकों में वहाँ हिन्दी का प्रयोग और लोकप्रियता बहुत पनपते हुए दिखी फिर भी बार्बर को बदलकर नाई, नापित या हज्जाम बनते नहीं देखा. यद्यपि बार्बर शब्द में जो बर्बरता झलकती थी उसे हेयरस्टाइलिस्ट और हेयरड्रेसर के संबोधन से कोमल बनाकर उस पर आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा दिया गया है पर उस खानदानी साथ निभाने वाले नाई की बात उसमे कहां जो हमारे जन्म लेते ही पूरे गाँव,मोहल्ले में यह शुभ समाचार दे आता था. कभी सिर्फ मुंहजबानी, तो कभी कागज़ पर हल्दी, रोली अक्षत छिड़ककर उल्लासमय निमंत्रण की पाती बनाकर. जन्म लेने के बाद उससे हुई पहली भेंट अर्थात मुंडन संस्कार पर वह इतने प्यार से क्षौरक्रिया करता था कि दुधमुंहे बच्चे उसकी मजेदार बातों और मिठाई खिलाने के वादों में उलझकर रोना भूल जाते थे. जब अंत में दर्पण में अपनी शकल देखकर चीत्कार करते थे उस समय अपने नन्हे जजमान को चुप कराने की उसे फुर्सत कहाँ होती थी. वह समय तो होता था शिशु के दादा, दादी, बुआ. ताऊ आदि से अधिकाधिक नेग वसूल करने का. विवाह संस्कार में उसकी क्या शान रहती थी. दूर दराज के परिवारों की “अन्दर की बात” भी पता नहीं कैसे उसे मालूम हो जाती थी. विवाह के लिए उपयुक्त रिश्ते लाने, सुझाने में मेट्रीमोनियल कालम और मैरेज ब्यूरो का समय आने से पहले उसी का बोलबाला था.

इन अवसरों पर अपनी जीवनसंगिनी के साथ कदम से कदम मिला कर चलने में नाई की जैसी प्रतिबद्धता रहती थी वैसी पुरोह्तों की नहीं होती थी. विवाह की अनेकों रस्मों में किसी न किसी रूप मे अकेले नाई की नहीं बल्कि नाई - दम्पति की सेवाओं की आवश्यकता बनी रहती थी और हर संस्कार या रस्म पर नेग मांगने की उनकी अदाएं भी देखने योग्य होती थीं. संपन्न घरों में नापितयुगल को नेग में क्या दिया जाएगा इस पर भी गंभीरता से विचार होता था. विवाह संस्कार में कुलपुरोहित का आतंक कुछ कम नहीं होता था. पंडित जी सात वचन बुलवाने और सात फेरे लगवाने में सात घंटे भी लगवा दें तो कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था. समझदार लोग इस आशंका से त्रस्त होकर पहले ही पंडितजी के साथ मोलभाव कर लेते थे. ये भी एक विचित्र सौदा था जिसमे जितनी कम देर सेवा ली जाए सेवाशुल्क उतना अधिक देना पड़ जाता था. पर पुरोहित जी अकेले अपने दमखम पर जजमान की जेब में गहरे तक प्रवेश करते थे उनके साथ पुरोहितानी जी को नहीं देखा जाता था.

फौजियों को टोपीदार छोटे हेयरकट देने वाले बार्बर’ की जगह यदि ‘नाई‘ की सेवा मिलती तो उनके यहाँ विवाह्प्रस्तावों का ऐसा सूखा न पडा रहता. कितना सुगम होता यदि यूनिसेक्स सैलून के हेयर स्टाइलिस्ट हमारे समय के रिश्ते लगवाने वाले नापित्वर की तरह ये ज़िम्मा अपने कन्धों पर उठा लेते. फिर किसी लडकी विशेष तक किसी लडकेविशेष का या इसकी उल्टी दिशा में ये सन्देश पहुंचा सकते कि फलाने या फलानी का चेहरा तुम्हारी प्रेमाग्नि में विदग्ध होकर इतना काला हो गया है कि अब उसके ऊपर फेयर एंड लवली / फेयर एंड हैंड्सम ने असर करना बंद कर दिया है. रीतिकालीन नायिका भंवरे और काग से संदेशा भिजवा लेती थी “पिय से कहेउ संदेसडा हे भंवरा हे काग,ता बिरहिन दुःख जर मुई तेहिक धुंआ हम लाग”. पर पिछली पीढी में नायिकाएं क्या करती थीं, कैसे अपने सन्देश भिजवाती थी, वह सब सीखने समझने का अवसर हम फौजवालों की किस्मत में कहाँ. प्रेमपाती न ले जाते, हमारे ब्याह के लायक सजीले जवान होने की खबर ही ठीक से फैला सकते, इस लायक नाई भी फ़ौज में न मिले. मिले तो बार्बर! अब तो शायद फ़ौज में महिला अफसरों की आमद के कारण बार्बर शॉप यूनिसेक्स सैलून में बदल गयी होगी. खैरियत थी कि वह बार्बर शॉप थी, यूनिसेक्स सैलून नहीं, जहां हमने नंगुए को हिन्दी में हेयरकट मांगना सिखा कर भेजा था. अब भाषा और संभाषण की बात चली है तो बता दूं कि मैंने एन डी ए में ही रूसी भाषा सीखी थी. लेकिन भाषा का किताबी ज्ञान और होता है; उसमे सहजता से बात करना कुछ और. अपने अधपके रूसी भाषाज्ञान के कारण कैसे उस बहुत खूबसूरत, लावण्यमयी रूसी युवती को मैंने नाराज़ कर दिया वह भी आपको बताने लायक है. पर उसे सुनने के लिए आपको मेरे साथ सोवियत रूस (1971 का शक्तिशाली यू एस एस आर, आज की उसकी क्षीण परछाईं नहीं!) चलना होगा.

क्रमशः -------