शायरी - 7 pradeep Kumar Tripathi द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शायरी - 7

कुछ इस तरह हो गई है ज़िन्दगी कि
मीठी तो सुगर थी और तारीफ चाय की होती रही
ये कैसा दस्तूर है दुनिया का ये देख कर प्याला भी हैरान है
लोग जिसके बिना चाय को पी भी नहीं सकता अक्सर उसे पी के तोड़ देता है

इस ज़िन्दगी से ज़िंदगी भर का इकरार करना है
अब बहुत हुई आशिक़ी कुछ यार करते हैं।।

वो बरबाद कर के खुश हो रहा था।
खुद की बरी आई तो सर पीटने लगा।।
ये आशिक़ी नहीं है प्रकृति है।
जितना भी दिया है हिसाब कर के लेगी।।


उनकी आंखों में काली घटाए उतार आई है।
काजल की तो इतनी गहराई हो नहीं सकती।।

ये नज़र तो ज़िगर के पार हो गई है।
सुक्र है कि घायल अभी गिरा नहीं है।।
ऐ हुस्न की मल्लिका इसे लवों की दवा पिला।
अगर ये गिरा तो तुझे भी ले कर डूबेगा।।

जला कर घर खुद से अब शमशान में बैठा हूं।
मोहब्बत सच्ची हैं गर तो निभाने वाला आएगा।।

किसी ने पूंछा की प्यार में धोखा बहुत देर में मिला तुमको।
मैं बोला यारो मशहूर होने में जरा वक्त लगता है।।

चलो अब मैयखने से चलते हैं शाम हो गई है।
अब मय पीना ही नहीं देखना भी हराम हो गई है।।
ये वक्त तो था उनके मिलने और बिछड़ने का।
जैसे सहर के बाद अब शाम हो गई है।।

उलझ कर के समंदर से बड़ा बेताब सा लगता हूं मैं।
जितनी भी खामोशी थी वो मुझमें चली आई है।।
अब चीख रही है हर वक्त एक लहर बन कर।
ये दरियाए सब कहां कहां से चल कर आई है।।

उलझ कर इश्क में वो भी तो हैरान हो गई होगी।
लगता है कि जान मेरी मुझसे ही परेशान हो गई होगी।।

आप कितनी आसानी से कह दिए कुछ तारीफ कीजिए उनकी।
मैंने कही बरसो देखा तब जा कर लब निकला जुंबा से मेरी।।

जनम मरण दोऊ एक है अन्तर नहीं निमेष।
दो वस्त्र के बदलन को जन्म मरण कहे देष।।

लोग कहते थे कि तुम्हारे लकीरों में नहीं है उसका प्यार।
हमने सरे बाजार अपना हाथ काट दिए।।

हमारी आंखों ने जो देखा मैंने हूबहू लिखा।
फिर न जाने लोग मुझे क्यों आशिक कहने लगे।।
कौन समझाए उन्हें ये मेरी कलम का कमाल नहीं है।
बनाने वाले ने सूरत हि कुछ इस कदर बनाई है।।

जो बेपरवाह था वो मेरी परवाह करने लगा है अचानक।
शायद कल उसकी बेटी ने पहली बार पापा कहा था।।

जो कीमत लगा रहे थे मेरी वो सब ख़ाक हो गए।
मैं समय हूं किसी की जागीर नहीं।।

"नियती" ने मेरे लिए आंसू ही मुकर्रर की है।
लोग यूं ही कहते हैं कि मैं हंसता बहुत हूं।।

अब तो मैं हवाओं से भी अपना सर बचाता हूं।
शाम से सहर होते ही अपना घर बचाता हूं।।

इस जहां में हर चेहरा नया चेहरा है,यहां किसी को पहचानना बा मुश्किल है।
अब हर आदमी यहां नया चेहरा, हर रोज बदलता है।

साकी अब पैमाने कि एक भी झलक देखी न जा रही है।
मैं नसे में झूम रहा हूं किसी के लिबास की खुशबू उड़ कर आ रही है।।

चल अब हम भी बदल जाते हैं।
तुझसे मोहब्बत भी करते हैं और तुझिसे मुकर भी जाते हैं।।

प्रदीप कुमार त्रिपाठी
ग्राम पंचायत गोपला
पोस्ट पांती रीवा मध्य्रदेश