जो घर फूंके अपना - 21 - कई कई अवतार बापों के Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 21 - कई कई अवतार बापों के

जो घर फूंके अपना

21

कई कई अवतार बापों के

बापों की इस चर्चा से याद आया कि जीवन के हर क्षेत्र में लोगों को कोई न कोई मिल जाता है ‘जो मान न मान तू मेरी संतान’ कह कर सिंदबाद जहाजी के कंधे पर चढ़ कर बैठ जाने वाले बुड्ढे की तरह हाबी हो जाए. लाख अनुशासित पर्यावरण हो फ़ौजी जीवन का लेकिन वहां भी बाप बनने और ज़रूरत पड़े तो किसी को बाप बनाने का चलन खूब है. वायु सेना में हम जूनियर अफसरों को सी. ओ (कमान अधिकारी), फ्लाईट कमांडर इत्यादि अवतारों में बाप के दर्शन हो जाते थे पर पालम के बेस पर नियुक्त वायुसेना की वी. आई. पी. स्क्वाड्रन में एक अदद अतिरिक्त बाप थे. उन्होंने “ना जाने किस भेष में बाप मिल जाए” को सार्थक करते हुए वहाँ के टेलर मास्टर जी के रूप में अवतार लिया था. अति विशिष्ट व्यक्तियों की हवाई उड़ान भरने वाली यूनिट में नियुक्ति होने पर भी हमें उसके विमानों को उड़ाने में अपनी दक्षता सिद्ध करने के बाद ही विशिष्ट उड़ान भरने का अवसर मिलता था. पर कड़क परीक्षकों से प्रमाणित होने के बाद भी एक अड़चन बची रह जाती थी. इस विशिष्ट स्क्वाड्रन में विमानचालकों को जो वर्दी मिलती थी वह सिविल एयर लाइंस के पाइलट की वर्दी की तरह श्वेत टेरी काटन की और सर्दियों के लिए नेवी ब्ल्यू रंग की टेरी वूल की होती थी. वायु सेना की अन्य यूनिटों के पाइलट जो फ़्लाइंग ओवर-आल पहनते थे उनसे यह कही अधिक स्मार्ट लगती थी. कारण ये था कि हमारी स्क्वाड्रन में ये पहनने वाले अफसर के नाप के अनुसार सिल कर मिलती थी जबकि अन्य यूनिटों में प्रामाणिक साइज़ के ओवरआल मिलते थे जो प्रायः ढीले ढाले लबादे जैसे लगते थे. हमारे विशेष युनिफोर्म की महत्ता इसलिए भी थी कि उसको पहन कर विमान चालन करता हुआ अफसर वायुसेना के कुशलतम वैमानिकों में से एक है- इसका यह वर्दी मौन उद्घोष करती थी और उसे धारण करते ही हमारा सीना भी “छप्पन इंची” हो जाता था.. पर भगवान् ने मज़ा खराब करने के लिए जैसे मिठाई के साथ मधुमेह, सिगरेट के साथ कैंसर, जनतंत्र के साथ भ्रष्टाचार, पत्नी के साथ सास और साली के साथ हम्-ज़ुल्फ़ अर्थात सांडू की रचना की है वैसे ही वी. आई. पी. स्क्वाड्रन की इस विशिष्ट वर्दी के साथ ही उसने एयर फ़ोर्स स्टेशन पालम के टेलरिंग कांट्रेक्टर मास्टर श्यामप्रसाद जी की भी रचना कर रखी थी जिनके विषय में ये किसी को ठीक से मालूम नहीं था कि भारतीय वायु सेना के अस्तित्व में आने से पहले ही से वे पालम के टेलर मास्टर थे या बाद में आये.

मास्टरजी का असली नाम भी कम लोगों को मालूम था. हम सबके लिए जगतपिता की तरह वे जगतमास्टरजी थे. बहरहाल इतना तो तय था कि हम नए नए अफसरों के लिए मास्टरजी एयर क्रू एकजामिनिंग बोर्ड, जो हमारी विमान चालन में कुशलता की परीक्षा लेता था, से कम महत्वपूर्ण नहीं थे. एकजामिनिंग बोर्ड से “ए” श्रेणी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद भी पाइलट किसी अति विशिष्ट सवारी को लेकर उड़ान तभी भर सकता था जब मास्टर जी उसे विशिष्ट फ़्लाइंग युनिफोर्म सिल कर दे दें. मास्टर जी इस बात को मज़े में जानते थे और इसीलिये हमारी स्क्वाड्रन में नवनियुक्त अफसरों के लिए सी. ओ. और फ्लाईट कमांडर के अतिरिक्त तीसरे बाप का रोल वे बखूबी अदा करते थे. जबतक हमारी नए विमान पर कन्वर्जन ट्रेनिंग चलती थी मास्टर जी हम से बात करने को भी तैयार नहीं होते थे. साफ़ कहते थे “अभी अभी आये हो, पहले सेटल तो हो लो”. फिर जब विशिष्ट उड़ानों के लिए प्रमाणित होकर हम मास्टरजी के यहाँ दौड़ लगाना शुरू करते थे तो वे बताते थे कि अभी तो वायुसेनाध्यक्ष का सिरिमोनियल युनिफोर्म जो गणतंत्र दिवस परेड पर उन्हें पहनना है सिलने में वे व्यस्त हैं, या फिर एयर आफिसर कमांडिंग इंन चीफ, पश्चिमी वायुसेना कमान, की बेटी की शादी के पहले जल्दी से जल्दी उनका सूट सिलकर देना है. एक बार मास्टर जी बहुत विनम्रता के मूड में थे तो बताया कि पालम के स्टेशन कमांडर जो एयर कमोडोर (अर्थात ब्रिगेडियर )रैंक के थे, की वर्दी सिलने में व्यस्त थे. पर ऐसा मैंने केवल किसी और से सुना था. स्वयं तो मैंने उन्हें इतने घटिया स्तर अर्थात एयर मार्शल रैंक के नीचे उतरते उनके श्रीमुख से कभी न सुना. मज़े की बात ये थी कि ये सारी समस्याएं हम जूनियर अफसरों को भी बताते समय मास्टरजी बेहद विनम्रता से बात करते थे. एक वाक्य में वे इतनी बार ‘सर जी’ कहते थे कि उनकी आयु को देखते हुए हमें संकोच होने लगता था. अपनी कलाकारी दिखाने के लिए कपड़ा ही उनका माध्यम था. इससे ही वे कभी किसी की जेब काटते थे कभी किसी का गला. वर्दियां वे खाकी जीन या टेरीकाट के कपडे की सिलते थे पर वास्तव में मखमल उनका प्रिय कपड़ा था. हमें फिट करने के लिए वे कभी जूतियों का प्रयोग करते थे तो अपने इसी प्रिय कपडे अर्थात मखमल में लपेट कर करते थे. विशिष्ट उड़ानें भरने के लिए आतुर हम विमान चालक अपने इन बाप के प्रसन्न हो जाने की बेचैनी से प्रतीक्षा करते थे कि कब वे प्रसन्न हों, कब नया युनिफोर्म मिले. हमारे और भारत के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के बीच मास्टरजी एक ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी थे जिससे निजात पाना संभव नहीं था.

पर कभी कभी घूरे के दिन भी फिरते हैं. मास्टरजी ने मुझे भी अपनी आहत ईगो की मरहम पट्टी करने का एक मौका दे दिया. अपनी स्क्वाड्रन में आये हुए जब दो साल हो गए थे और अपने दोनों नए युनिफोर्म सिला कर मैं मास्टरजी के चंगुल से छूट चूका था वे एक शाम आफिसर्स मेस के मेरे कमरे में पधारे. बहुत विनम्रता से अभिवादन करने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा “ सर जी,एयर फ़ोर्स रिकार्ड आफिस में आपके कोई दोस्त हैं क्या ?” इस सवाल से मैं फूला नहीं समाया. एयर फ़ोर्स रिकार्ड आफिस वो मुख्य कार्यालय है जहाँ से पूरी वायुसेना के जवानों (नॉन कमीशंड अधिकारियों और कार्मिकों ) की नियुक्ति और स्थानान्तरण से लेकर सेवानिवृत्ति तक सभी मानव संसाधन सम्बंधित कामकाज नियंत्रित होते हैं. मास्टरजी के प्रश्न से स्पष्ट था कि वे किसी वायुसैनिक के प्रमोशन या स्थानान्तरण की सिफारिश लेकर आये थे और जांच रहे थे कि मैं उनकी कितनी मदद करने को तैयार हूँ. मैं प्रसन्न हुआ कि आज ऊँट पहाड़ तले आ ही गया. चुटकी लेते हुए मैंने कहा “मास्टर जी, आप का तो वायुसेनाध्यक्ष से रोज़ का मिलना जुलना है, ए. ओ. सी. इन सी. साहेब की बिटिया की शादी आपने अभी अभी निपटवाई है. मेरे जैसे साधारण फ्लाईट लेफ्टिनेंट के पास मदद लेने आप कैसे आ गए?” मास्टर जी ने अपने प्रिय मखमल में लपेट कर जो जूती लगाईं उसकी चुभन आज तक के चार दशकों में भी मुझे नहीं भूली है. बड़ी निस्पृहता से बोले मास्टर जी “सर जी,किसी बड़े अफसर की पोस्टिंग करानी होती तो मैं अबतक कभी चीफ साहेब (वायुसेनाध्यक्ष) से कहकर करा लेता. अब सर किसी एयरमैन की पोस्टिंग कराने के लिए तो आप ही ठीक हो “. मुझे उनके जुमले का कोई जवाब नहीं सूझा. बस हें हें कर के रह गया.

क्रमशः ----------