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जो घर फूंके अपना - 18 - आग के दरिया से संगम के शीतल पानी तक

जो घर फूंके अपना

18

आग के दरिया से संगम के शीतल पानी तक

ट्रेन चल पड़ी तो मैं भी कुछ मिनटों में किसी तरह उठ कर खड़ा हो गया. पहले एक अंगूठे के ऊपर, फिर दो मिनट के बाद पूरे एक पैर पर और फिर आधे घंटे के बाद दोनों पैरों पर खड़ा होने की जगह बनती गयी. बैठने का प्रश्न नहीं था. माथे से पसीना पोंछ कर, अस्त व्यस्त कपडे ठीक करके जब सहयात्रियों पर नज़र डाली तो देखा कि अधिकाँश पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग थे -दिल्ली में छोटी मोटी नौकरियाँ करने वाले. एकाध मिनट गहरी सांस लेने के बाद मैंने पूछा “किस को धन्यवाद दूं इस मेहरबानी के लिए, किसको समोसा खिलाऊँ?” तो जोर से ठहाका लगाकर हंस पड़े सब के सब. बोले “छोडो,तुम्हारी तो पहले ही बहुत मरम्मत हो गयी है. अच्छा ये बताओ इसी गाडी से जाने की ऐसी क्या मुसीबत थी? ससुराल जा रहे हो क्या?” मैंने टालने की गरज से कह दिया “यही समझो” तो तीन चार एक स्वर में बोले “अरे वाह! फिर तो समोसे ज़रूर खायेंगे. चलो अब अलीगढ में गाडी रुकेगी वहीँ ससुराल जाने की ख़ुशी में दावत दे देना. ” मेरी टांगों को तोड़ने में जिन्होंने अपनी ओर से कुछ उठा नहीं रखा था और अब जो मेरी टांगें खींचने का आनंद ले रहे थे उन लगभग समवयस्क लड़कों से धीरे धीरे दोस्ती हो गयी. परिणामस्वरूप थोड़ी देर में एक सीट पर शरीर के अधोभाग के एक छोटे से हिस्से को और उसके बाद उस पूरे क्षेत्र को बैठने की जगह मिल गयी. अलीगढ पर उनकी आशा के विपरीत मैंने वास्तव में उन सबके लिए दस समोसे औए दस चाय मंगाई तो खुश हो गए. मैं अपने एयर फ़ोर्स अफसर होने की बात छुपा गया था. अपनी दयनीय दशा से एयर फ़ोर्स अफसरों की शान में बट्टा नहीं लगवाना चाहता था. सहयात्री लड़कों को मेरी ससुराल जाने वाली बात में मज़ा आ गया था. खोद खोद कर ससुराल के बारे में पूछते रहे. एक ने पूछा “अभी शादी हुए ज्यादा दिन न हुए होंगे?” मैंने बात टालने की गरज से हामी में सर हिला दिया. वह खुश होकर अपने बारे में बातें करने लगा वर्ना मेरी काल्पनिक शादी के बारे में न मालूम कितने सवाल और पूछता. उसकी शादी को अभी एक साल हुआ था. चांदनी चौक की एक कपडे की दुकान में सेल्समैन की नौकरी इतनी सशक्त नहीं थी कि पत्नी को दिल्ली में साथ रख सकता. न रख सकने का उसे मलाल था पर अपनी पत्नी पर उसे गर्व बहुत था, बताता रहा कि वह मैट्रिक पास थी जबकि वह स्वयं मैट्रिक फेल था. अपनी मोती सी लिखावट में बड़े प्यारे पत्र लिखती थी. मुझसे अनुहार करते हुए बोला “तुम तो काफी पढ़े लिखे लगते हो. दो चार अच्छे शेर बता दो तो मैं भी अपने खतों में उनका इस्तेमाल कर लूँगा” मैंने पूछा उसकी पत्नी को कैसे शेर पसंद थे. उसने बताया कि पिछले पत्र की शुरुआत उसने इस पंक्ति से की थी “खूने जिगर से लिखता हूँ सियाही न समझना,“ इसके बाद वह अपने दाहिने हाथ की तर्जनी दाहिने कान में डाल कर जोर जोर से खुजली करने लगा. मैंने एकाध क्षण प्रतीक्षा की, फिर पूछा “क्या ये उंगली अन्दर ही अन्दर बाएं कान तक पहुंचाने के बाद शेर की अगली लाइन सुनाओगे तो शर्मा कर उसने उंगली कान से निकाल ली और झेंपता हुआ बोला “असल में अगली लाइन बहुत मुश्किल सी थी,पत्र लिखते समय भी भूल गयी थी. ” पर उसकी नवविवाहिता पत्नी जो अपनी जवानी के उमंग भरे दिन ससुराल में अकेले कसमसाते हुए बिता रही थी इस अधूरे शेर पर ही मर मिटी थी.

अब इन महोदय की फरमाइश थी कि या तो इस शेर को पूरा कर दूं या कुछ ऐसे ही धमाकेदार शेर और बता दूं जिनका वह दस दिन की छुट्टी बिता कर वापस जाकर अगले पत्रों में इस्तेमाल कर सकें. मैं उस ठसाठस भरे हुए डिब्बे में आधी सीट पर टंगा हुआ, कभी बाएं वाले और कभी दायें वाले अधोभाग को बदल बदल कर सीट पर टिकाये हुए रात किसी तरह गुजारने की कोशिश कर रहा था –शेरो शायरी के नफासत भरे ख्याल मुझसे उस समय कोसों दूर थे. बिचारे की कोई मदद नहीं कर पाया. डिब्बे में लोग अपने दायें बाएं बैठे यात्रियों पर रह रह कर झटके के साथ झपकियाँ लेते हुए भहराने, फिर उनके द्वारा धकिया दिए जाने पर एकाध क्षण के लिए आँखे खोल कर इधर उधर देखकर, जम्हाई लेकर, दुबारा आँखे बंद करके, फिर से भहराने के अखंड कार्यक्रम में व्यस्त थे. पर इस बेचारे को बीबी की याद नहीं सोने दे रही थी और मुझे अपनी बेवकूफी पर गुस्सा आ रहा था. अगले सप्ताह कायदे से रिज़र्वेशन करा के आ जाता तो कौन सी क़यामत आ जाती. ऐसा इलाहाबाद में कौन घात लगाए बैठा था कि मुझे ज़रा सी देर हुई और वो लड़की ले उड़ता. सौभाग्य से इटावा में कई सारे लोग उतर गए, डिब्बे के अन्दर कुम्भ मेले वाला आलम कुछ सुधर गया. कुछ घंटों में सुबह हो गयी और जिस आग के दरिया में डूब के जाना था उसका दूसरा किनारा नज़र आने लगा. इलाहाबाद स्टेशन पर उतरते ही एम सी ओ से वापसी का रिज़र्वेशन करा लिया. सर्किट हॉउस में कई बार पहले भी ड्यूटी पर आकर ठहर चुका था अतः कमरा तुरंत मिल गया. दिन भर मैं तान कर सोया. रात की थकान मिट गयी.

चार दिन पहले फोन पर शोभा के पिता को अपने लिए कार भेजने को मना कर दिया था कि मेरे पास सरकारी कार होगी. बाद में उपराष्ट्रपति का प्रोग्राम कैंसल होने की सूचना नहीं दी थी कि ग़लतफ़हमी बनी रहे तो इम्प्रेशन अच्छा पड़ेगा. अब क्या रिक्शे पर जाऊं उसके घर? सर्किट हॉउस के मेनेजर ने बताया कि एक प्राइवेट कार पूरे दिन के किराए पर मिल जायेगी. सोचा सरकारी सफ़ेद एम्बैसडर न सही,कार तो कार ही है. दिन भर का किराया दूंगा तो वसूल करने के लिए शाम को कन्यादर्शन के बाद संगमदर्शन कर लूँगा. फिर वहीं से स्टेशन चला जाऊंगा. शाम को कार समय से आ गयी.

सिविल लाइंस के एक पुराने बंगले के पोर्टिको में पहुंचकर जब मैंने कालबेल बजाई तो शोभा के पिता और बड़े भाई लगने वाले दो व्यक्ति साथ साथ बाहर आये और बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. शोभा के पिता का पहला वाक्य था “उपराष्ट्रपति जी तो ऐसे चुपचाप आये कि पता ही नहीं लगा. ” मैंने धीरे से कहा “जीहाँ. ” बिना मेरे झूठ बोले अगर वो समझ रहे हों कि मैं उप राष्ट्रपति को लेकर आया हूँ तो हर्ज़ क्या है, आखीर प्रोग्राम तो यही था. तभी भाई साहेब बोल पड़े “अरे यह कार तो प्राइवेट है, कहाँ से मिल गयी?”पिताजी ने सवाल बीच में ही कैच कर लिया, बोले “अरे भाई जब वी आई पीज़ आते हैं तो सरकारी गाड़ियां कम पड़ जाने पर लोकल ऐडमिनिस्ट्रेशन प्राइवेट गाड़ियां किराए पर ले लेता है” मेरी ओर देखकर इलाहाबाद के पिछड़ेपन पर थोडा लज्जित होते हुए बोले “अब दिल्ली जैसा तो है नहीं. यहाँ टैक्सियाँ भी हैं ही कितनी” पर भाई साहेब अड़ियल थे. इतना समझाने के बाद भी मानने को तैयार नहीं हुए. कहीं से कोई गोपनीय दस्तावेज़ हाथ लग जाए तो उसे लेकर अपनी टी. वी. चैनेल पर अर्नब गोस्वामी जिस तरह किसी मुसीबतज़दा मंत्री की जड़ें खोद देने पर उतारू हो जाते हैं कुछ उसी अंदाज़ में वे मेरे पीछे पड़ गए बोले “पर यह गाडी तो मेरे दोस्त त्रिपाठी की है. बहन की शादी पर पिछले कलक्टर ने मांगी थी तो आनाकानी करने लगा. बस कलेक्टर साहेब ने उसके पचास-साठ हज़ार के बिल रोक दिए. उसके बाद से वो सरकारी काम के लिए गाडी देता नहीं है, आज ये सर्किट हॉउस के हत्थे कहाँ से चढ़ गयी?” गनीमत थी कि पिताजी को ऐसी बातें घर आये संभावित दामाद की शान के खिलाफ महसूस हुईं. सुपुत्र को समझाते हुए बोले “ये इतनी दूर से आये हैं. तुम इन्हें बैठने के लिए भी कहोगे या सर्किट हाउस की गाड़ियों का ब्योरा लेते रहोगे. ” मुझे मन ही मन इन भाई साहेब के क्रास-एक्जामिनेशन से दहशत सी हो रही थी. ये इंसान तो लड़की के भाई के रूप में साक्षात सी ए जी (Comptroller and Auditor General) का अवतार लग रहा था. कहीं इस आफत के परकाले को ये न पता चल जाए कि उपराष्ट्रपति इलाहाबाद आये ही नहीं. मैंने मन को दिलासा दी कि कोई स्पष्ट झूठ तो अबतक मैंने बोला नहीं था. बहस तो पिताजी के कयास को लेकर हो रही थी और अब विषय बदल गया था

बाप बेटे दोनों मुझे लेकर ड्राइंग रूम में आ गए. इलाहाबाद की सिविल लाइंस के पुराने बंगलों का क्या कहना. ड्राइंग रूम इतना बड़ा था कि उसमे राहुल गांधी के सारे प्रशंसक एक साथ समा जाते. तीन बड़े बड़े आरामदेह सोफासेट पड़े हुए थे. कोई मुख्यमंत्री बहन मायावती का कार्यालय तो था नहीं कि कुर्सी पर वे स्वयं बैठें और प्रदेश के मुख्य सचिव से लेकर उनके दल के महामंत्री तक सब सामने फर्श पर आसीन हों या खड़े रहें. मैं पहले ही थोडा घबराया हुआ था अपने मिशन को लेकर. उसपर अकारण झूठ बोलने से उत्पन्न अपराध-बोझ और भाई साहेब की जिरह से उत्पन्न असुरक्षा की भावना! सोफे पर बैठा तो इतना तनाव था मन में कि शोभा के पिताजी को कहना पडा “अरे आप आराम से तो बैठिये. ” ध्यान दिया तो देखा कि सोफे के अगले छोर पर ऐसे बैठा था कि अगर नितिन गडकरी जैसा कोई व्यक्ति जोर से फूँक भी मारता तो नीचे गिर पड़ता. बुजुर्गवार की अगली बात और भी समझदारी की लगी. बोले “हमने शोभा को ये नहीं बताया है कि आप उसे शादी के विचार से देखने आये हैं. पहले सब लोग मन बना लें फिर उसे बताएँगे. उसकी माँ अभी आ रही हैं. हमने अभी अपने नौकरों को भी ये ही कह रखा है कि आप हमारे एक दोस्त के बेटे हैं और यूंही मिलने आये हैं. ”

मुझे बात पसंद आयी. ‘एरेंज्ड मैरेज’ में लड़की देखना-दिखाना एक अपरिहार्य आवश्यकता होती है, उसका ढोल क्या पीटना! अभी मैं उनके दृष्टिकोण और समझदारी की मन में सराहना कर ही रहा था कि एक ट्रे में पानी के गिलास रखे उनके नौकर ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. शकल उसकी पहचानी सी लगी पर याद नहीं आया कि कहाँ देखा था. मैं दिमाग पर जोर दे रहा था कि तभी वह तपाक से बोल पडा “अरे भैया आप हो? चलो कौनों तरह चहूंप गए! ससुराल तो हुई आये होगे?”

शोभा के भाई साहेब जो कुछ देर से चुप बैठे थे एकदम से जागरूक हो गए. बोले “रामदीन, तुम इनको कैसे जानते हो ?”

वह शायद इस घर का काफी पुराना नौकर था. बड़े आराम से, अधिकारपूर्वक बोला “लो,और सुनो,अरे हमरिन साथ तो भैया आये हैं. इटावा में जब हम डिब्बे माँ चढ़ें तो ओहमाँ पहिले से बैठे हुए थे हम चढ़ें तो डिब्बा माँ कुछ जगह हुई गई थी पर और लोगन से सूना कि दिल्ली से चले के वखत ठस्सम-ठस भीड़ थी. सब कहित रहेन कि ई भैया बहुत बहादुर हैं. इन ही का बूता रहा कि कुलियन के सर पर चढ़ कर खिड़की से धंस लिए. और कोई होवत तो पहले ही मैदान छोड़ के भाग जात. ”

पहले तो एक क्षण तक सन्नाटा गूंजता रहा उस बड़े से कमरे में, फिर बुजुर्गवार बोले “तेरा दिमाग तो ---“. वे कहने वाले थे “-नहीं चल गया है” पर बात को भाई साहेब ने बीच में ही लपक लिया. बड़े प्यार से रामदीन को पुचकारते हुए बोले “अच्छा ऐसा ?और क्या क्या कह रहे थे वे लोग?”

रामदीन खुश हो गया. बाबूजी के तेज़ स्वर से शायद कुछ ढीला पड़ता पर भाई साहेब के स्वर में अवश्य ही उसकी याददाश्त और चौकन्नेपन की तारीफ़ का अंदाज़ था. बोला “सब इनही की तारीफ़ करत रहेन. बतावत रहेन पहिले लड़भिड कर जगह छीन लिए, फिर सबका ससुराल जावे का खुसी में चाह समोसा दिलवायेन”

ऐडवोकेट जेनरल के अंदाज़ में भाई साहेब ने पूछा “उन्हें कैसे पता कि इनकी शादी हो चुकी है?”तो बड़े आत्मविश्वास से बोला “ई खुद ही सबको बताये रहेन. न हुआ होत तो ऐसे ही सबको चाह समोसा खिलवाये रहते?”

मुझे काटो तो खून नहीं था. उपराष्ट्रपति की उड़ान और सरकारी गाडी के विषय में पिताजी ने खुद ही अटकलें लगाई थीं मैंने तो कोई झूठ नहीं बोला था पर स्वयं को विवाहित बताने और ससुराल जानेवाली बात का क्या करूं जिसका बयान ये नालायक पेशेवर गवाह की तरह कर रहा था जैसे अभी अभी मेरी बरात से लौटा हो. मेरा गला सूख रहा था. सर में लग रहा था दर्जनों मधुमक्खियाँ घुस गयी हों. जिस सोफे पर मैं पहले ही उचक कर बैठा हुआ था अगर उसके हत्थे को जोर से पकड़ न लिया होता तो नीचे गिर पड़ता. शोभा के पिताजी हक्केबक्के होकर अपने बेटे की ओर देख रहे थे और बेटे की निगाहों में गज़ब की चमक थी. पिताजी से उसकी निगाहें चुप चाप कह रही थीं “मुझे तो तभी शक हो गया था जब ये त्रिपाठी की कार में आया जिसे वो किसी सरकारी विभाग को दे नहीं सकता. ” रामदीन को लगा कि वह कुछ गलत कह गया है. ट्रे टेबल पर रखी और बोला –“माताजी अन्दर बुलाएँ है चाह लाने को, अभी आयत है”और वह चुपके से खिसक लिया.

विमानचालन की परीक्षा लेते हुए परीक्षकों ने दर्जनों बार मुझसे कहा होगा कि तुम्हारा एक नंबर का इंजन फेल हो गया है, दो नंबर में आग लग गयी है, रेडिओ कम्युनिकेशन युद्धकालीन स्थिति के कारण उपलब्ध नहीं है, कोपाइलट घायल और बेहोश है. अब करो जो करना है. और सब कुछ बड़े धैर्य और शांतिपूर्वक संभाल लेता था तभी वी आई पी स्क्वाड्रन में था. पर ऐसी विपत्ति में कभी नहीं फंसा था. डर लग रहा था कि दोनों बाप बेटे कहीं मुझे पुलिस को न सौंप दें एक नंबर का फ्राड बताकर जो लड़कियों के घरवालों को झूठी झूठी बातें बताकर शादी के जाल में फंसाता है. ड्राइंगरूम में सुइपटक सन्नाटा छाया हुआ था. दोनों बाप बेटे अनिश्चय की स्थिति में लग रहे थे कि मेरे साथ क्या सलूक करें. शोभा व उसकी माँ अभी तक इस नाटक को नहीं देख पाए थे. कुछ क्षणों के बाद पिताजी ने साथ वाले कमरे में जाते जाते पर्दा उठाकर अपने बाएं हाथ की तर्जनी को मोड़कर अपने बेटे को अपने पीछे आने का इशारा किया. पता नहीं पिस्तौल लाने जा रहे थे या पुलिस को फोन करने. उनके दूसरे कमरे में जाते ही मैं लपक कर उठा, बाहर प्रतीक्षा करती हुई कार के ड्राइवर से कांपती आवाज़ में कहा “सर्किट हॉउस चलो” और झटके से कार में घुस गया. गाडी चल दी तो डर लगा कि दोनों पीछे पीछे कहीं सर्किट हाउस न आ जाएँ. फिर ध्यान आया कि मैं सर्किट हॉउस से चेक आउट करके आया था और ब्रीफकेस गाडी में ही पडा था कि शाम के कार्यक्रम के बाद संगम की सैर को निकल जाउंगा और वहां से सीधे स्टेशन. अतः ड्राइवर से फिर कहा “सर्किट हाउस नहीं, संगम चलो. ”

संगम पहुंच कर जबतक त्रिवेणी के ठन्डे पानी में डुबकी नहीं मारी मेरा सर भन्नाता रहा. स्नान के बाद धीरे धीरे परेशानी कुछ कम हुई.

क्रमशः --------

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