जो घर फूंके अपना - 17 - क्या क्या न सहे हमने सितम आपकी खातिर ! Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 17 - क्या क्या न सहे हमने सितम आपकी खातिर !

जो घर फूंके अपना

17

क्या क्या न सहे हमने सितम आपकी खातिर !

इलाहाबाद जाने की तय्यारी तो कुछ विशेष करनी नहीं थी. लडकी के पिताजी को फोन मंगलवार को किया था. जाने में चार दिन बाकी थे. इन चार दिनों का सदुपयोग मैंने शोभा की तस्वीर देर-देर तक निहार कर किया. शोभा की तस्वीर के साथ की जो चार अन्य तस्वीरें बूमरैंगी फिंकाई और बन्दर-नुचवाई से बच गयी थीं यदि पास रही होतीं तो रोज़ उनकी दूकान सजा कर बैठता और सोचता कि किसी के होंठ रसीले लगते हैं,किसी की आँखें नशीली हैं पर मुझे पसंद आने वाली शोभा की बात कुछ और है. पर वह इतना बोर ज़माना था कि शादी के प्रस्ताव के साथ प्राप्त होने वाली फोटो तुरंत वापस कर दी जाती थी. इसमें देर होने पर उसके घरवाले पचास सवाल पूछते थे. आज वाली बात कहाँ जब फेसबुक आदि सोशल साइटों पर लडकियां एक से एक प्यारी मुद्राओं में अपनी फोटो इतनी बेफिक्री से चिपकाती हैं जितनी बेफिक्री से लोग अपने घर का सारा कूड़ा झाड़ू लगाने के बाद पड़ोसी के घर के सामने फेंक देते हैं.

पर अपने मन कछु और है, करता के कछु और. विशिष्ट व्यक्तियों के प्रोग्राम जितनी कम सूचना पर बनते थे उस से भी कम सूचना पर बिगड़ या बदल जाते थे. इस बार स्वयं भारत के उपराष्ट्रपति ने मेरे विवाह में अडंगा लगाया. उनके जो भी कारण हों, शनिवार की सुबह, अर्थात जानेवाले दिन से एक दिन पहले उनका प्रोग्राम कैंसिल हो गया. मैं विचित्र दुविधा में फंसा. शोभा के घरवाले तो प्रतीक्षारत थे ही, मेरे जीजाजी भी बिचारे बहुत दिनों से अपनी ज़िम्मेदारी निपटाने में तन्मयता से लगे हुए थे. मेरे हीले हवाले, सुस्ती और ढीलेपन से वे तंग आ चुके थे. अब अगर एक दिन पहले उन्हें बताऊँ कि प्रोग्राम फिर बदल गया तो वे बमक पड़ेंगे. संभव है कि अपनी ज़िम्मेदारी से इस्तीफा दे दें और कहें “अपना काम अब खुद ही देखो”. मुझे हिम्मत नहीं हुई फिर टालने की. सोचा रेल से ही इलाहाबाद की यात्रा कर डालूँ. शनिवार की रात को दिल्ली स्टेशन से अपर इंडिया एक्सप्रेस पकड़ कर सुबह इलाहाबाद पहुँच जाऊँगा, दिन में सर्किट हॉउस में रुक कर शाम को लड़की देख आउंगा और रात की ट्रेन से दिल्ली वापस आ जाऊँगा. सब कुछ पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार रहेगा. बस उपराष्ट्रपति को विमान में लाने की डींग नहीं हांक पाउँगा. रही बात श्वेत एम्बैसडर की तो अब दिन भर के लिए टैक्सी ले लूँगा. फिर याद आया कि वहाँ अपना निजी घर होने के कारण उपराष्ट्रपति इलाहाबाद हर महीने जाते रहते थे. उनकी “प्राइवेट विज़िट’’ की अखबारों में विशेष चर्चा नहीं होती थी अतः उनके विषय में कुछ कहूँगा नहीं, चुप रहकर शोभा के घरवालों को अनुमान लगाने दूंगा कि अश्वत्थामा हाथी था या आदमी.

अफ़सोस कि बिना रिज़र्वेशन की रेल यात्रा कैसी होती है इसका अनुमान मुझे नहीं था. ये उन दिनों की बात है जब कैल्क्यूलेटर को एक महान विस्मयकारी आविष्कार समझा जाता था. कम्प्यूटरीकृत रिज़र्वेशन की तबतक कल्पना भी नहीं हुई थी. पर फौजियों को एक सहूलियत थी. हर बड़े स्टेशन पर एक MCO (मूवमेंट कंट्रोल अफसर )होता था जो फौजियों को रेल आरक्षण दिलाने में मदद करता था. मैंने दिन में फोन पर एम सी ओ कार्यालय से संपर्क करके एक प्रथम श्रेणी की बर्थ मांगी पर उन्होंने असमर्थता जताई. फौजी कोटे की सभी बर्थें भर चुकी थीं. प्रथम श्रेणी और स्लीपर क्लास दोनों की. सुझाव मिला कि ट्रेन के समय आकर संपर्क करूं, कोई निरस्त बर्थ रही तो दे देंगे. गाड़ियां उनदिनों बहुत सारी नहीं थीं. अपने फ़ौजी स्वाभिमान के चलते सोच नहीं पाया कि भीड़ के डर से जीवन के इतने महत्वपूर्ण मिशन पर न जाऊं. फिर भाग्य ने साथ दिया तो फौजी कोटे की कोई बर्थ शायद कैन्सिल होने के बाद मिल जाये. मैं ट्रेन के समय से एक घंटा पहले स्टेशन पहुँच गया. सीधे एम् सी ओ के दफ्तर में गया. पर कमबख्त मेरे फौजी भाईबंद कोई प्रोग्राम बनालें तो उसे क्यूँ बदलने लगे? सारे के सारे आरक्षण वाले आ धमके. एम सी ओ ने ट्रेन छूटने से आधा घंटे पहले टका सा जवाब दे दिया.

प्लेटफार्म पर गया तो होश उड़ गए. लगा कि हैमलिन के बांसुरीवादक के बांसुरी बजाने पर शहर के सारे चूहे जैसे अपने बिलों से निकलकर उसके पीछे चल पड़े थे वैसे ही इस प्लेटफार्म पर किसी अदृश्य बांसुरीवादक की तान सुनकर सारा दिल्ली शहर उमड़ पड़ा था. मैंने बदहवासी में पूरे प्लेटफार्म के दो चक्कर लगाए पर ये आलम था कि बिना आरक्षण वाले डिब्बों के पास फटकना भी मुश्किल था. हमारी उन दिनों की फौजी ट्रेनिंग का दुष्परिणाम था कि उस 26 साल के अफसर के दिमाग में ये बात आई ही नहीं कि किसी टी टी आदि की जेब गरम करके कुछ ‘ऐडजस्टमेंट’ की जुगत बैठाये और अन्य कुछ नहीं तो किसी स्लीपर डिब्बे में ही घुस ले जबकि जेब में प्रथम श्रेणी का फौजी डी फार्म अर्थात कन्सेशन वाला टिकट भी पडा था. बस यही सोच पाया कि अगर धक्कामुक्की करके ही सब घुस रहे हैं तो अपनी एन. डी. ए. की ट्रेनिंग कब काम आएगी?

सामान के नाम पर मेरे पास केवल एक ब्रीफकेस था अतः थोडा आश्चर्य हुआ जब दो कुलियों ने मेरे चेहरे पर आये पसीने को देखकर एक साथ पूछा “साहेबजी,गाडी में चढ़ा दें?”मैंने चिढ़कर कहा “अरे एक ब्रीफकेस तो है क्या इसे चढाओगे?” उन्होंने मेरी मूर्खता पर तरस खाकर मुस्कराते हुए बड़ी मीठास से कहा “न जी, हम तो आपको चढ़ावे की कहवें हैं, सामान की नहीं. तभी तो दो मिलकर पूछ रहे हैं. इकल्ले तो हम भी आपको ना चढ़ा पावेंगे” मुझे इस प्रस्ताव पर आश्चर्य तो हुआ पर जेनरल कम्पार्टमेंट में घुस लिया तो किसी तरह से यात्रा भी पूरी कर लूँगा सोचकर हामी भर दी. मुझ अकेले को डिब्बे में चढाने के जब उन्होंने पचास रूपये मांगे (ध्यान रहे ये 1970 की बात है) तो भी उज्र नहीं किया पर पैसे उन्होंने एडवांस में मांगे तो मुझे नागवार गुज़रा. मैंने नाक चढ़ा कर कहा “तुम्हारे पचास रूपये लेकर भाग जाऊंगा क्या?” तो मेरी अज्ञानता पर तरस खाते हुए एक बोला “न जी भाग तो तुम पाओगे नहीं पर अन्दर पहुँच गए तो तुमसे पैसे लेने के लिए हम अन्दर ना आ पायेंगे” भीड़ को देखते हुए बात तर्कसंगत लगी अतः रुपये मैंने दे दिए. अब कुश्ती लड़ने की तय्यारी कर रहे हों कुछ इस अंदाज़ से दोनों कुलियों ने अपने लाल कुर्तों की बाहें चढ़ाईं, फिर मेरी शर्ट की बाँहें भी चढ़वाईं फिर तृतीय श्रेणी के एक जेनरल कम्पार्टमेंट की दीवाल से लग कर हम खड़े हो गए. तब उस श्रेणी के डिब्बों मे लोहे की सलाखें नहीं होती थीं. इन खिडकियों का प्रयोग डिब्बे के अन्दर घुसने के लिए और दरवाजों का प्रयोग बाहर निकलनेवाले रेले में अपनी चप्पलें, जूते पैरों से उतरवाने के लिए होता था. डिब्बे के अन्दर लोग ठसाठस भरे हुए दिख रहे थे. मैं सोच ही रहा था कि इस चक्रव्यूह में कैसे प्रवेश दिलाएंगे मेरी फौज के ये सिपाही कि उन दोनों ने अगल बगल खड़े होकर मेरी एक-एक जांघ पकड़कर मुझे ऊपर उठा लिया. आदेश दिया “अब सर खिड़की में घुसाओ और दोनों हाथों को आगे करके सामने जो कुछ भी हो उसे धक्का दो. ” हीला हवाला करने का मौका नहीं था. उनके आदेशानुसार मैंने सर अन्दर घुसाकर खिड़की के सामने अन्दर वाले लोगों को धकियाने के लिए जब हाथ आगे बढाए तो अन्दर वालों ने इतनी जोर से उल्टा धक्का दिया कि मेरे सर, धड, कमर, सब कुछ प्लेटफार्म पर खड़े कुलियों के चरणों में आकर नत हो गए. इस बार मेरी फौज के दोनों बहादुरों को गुस्सा आ गया. मैं लगभग घिघियाते हुए उनसे प्रार्थना करने लगा कि वे मोर्चा छोड़ दें पर बात अब उनकी इज्ज़त की थी. मेरे अनाड़ीपन और अनप्रोफेशनलिज्म से क्षुब्ध होकर दोनों ने पहले तो डिब्बे के अन्दर वालों के परिवार की महिला सदस्यों से अपने गुप्त संबंधों को जगजाहिर किया और फिर मुझसे बोले ‘देखें बहन ---- कैसे नहीं घुसने देते हैं! इस बार ऐसा करो कि पहले पैर अन्दर डालना. सर डालोगे तो चोट लग सकती है” मेरी सारी बहादुरी हवा हो रही थी. मैंने कहा “अरे अंदरवाले चोट पैरों में भी तो मार सकते हैं” पर एक कुली ने मेरी बात एकदम अनसुनी कर दी और दूसरे ने जोर से डांटते हुए कहा “चुपचाप रहो और जैसा हम कहते हैं वैसा करो. हम हराम की कमाई नहीं खाते हैं. जब पैसा लिया है तो जबतक चढ़ा नहीं लेते न हम जायेंगे न ये साली गाडी” इसके पहले कि मैं कुछ और ना नुकुर करता उन दोनों ने मुझे अपने कन्धों के ऊपर हवा में उठा लिया जैसे मुझे नहीं मेरी अर्थी उठा रखी हो और आदेश दिया “अब एकदम लकड़ी की तरह से तन जाओ” उनकी आवाज़ एन. डी. ए. के मेरे ड्रिल सार्जेंट से भी जियादा कड़क थी. बरसों की मेरी फौजी ट्रेनिंग का ही नतीजा था कि इनके कड़क आदेश पर मैंने वाकई शरीर लकड़ी की तरह कडा कर लिया और सांस रोक ली. कुलियों ने मुझे हवा में घुमाया और फिर खिड़की की तरफ मेरे दोनों पैर करके ऐसे धक्का दिया जैसे किसी किले के सुदृढ़ मुख्यद्वार को चालीस पचास योद्धा सागवान के शहतीर की रेलमपेल से तोड़ने के लिए संघर्षरत हों. ऐतराज़ करने की स्थिति से मैं आगे पहुँच चुका था अतः आँखें बंद कर लीं. अब दोनों पैरों से डिब्बे के अन्दर वालों को ज़ोरदार धक्का मारा तो मेरे पैर धड समेत अन्दर आ गए पर सर अभी भी बाहर था. धड और पैरों वाले हिस्से को अंदरवाले बाहर धक्का दे रहे थे और इधर इन दो यमदूतों ने क़सम खा रखी थी कि पचास रूपये हराम के नहीं लेंगे. अतः मेरे सर को बाहर की ओर न निकलने देने के लिए उन्होंने अपने चौड़े सीनों से मेरे सर के पीछे दीवार सी बना ली. मैं बिलबिलाता हुआ डिब्बे के अन्दर वालों और अपने कुलियों अर्थात दोनों ओर से दया की भीख मांगने लगा कि अन्दर या बाहर किसी ओर तो गिरूँ. कुलियों ने तो एक न सुनी. पर अन्दर वालों को शायद डर लगा कि कहीं दफा 302 का केस न बन जाए और मेरी ह्त्या के जुर्म में सब के सब धरे जाएँ. अतः एक मनचले ने अन्दर से आवाज़ दी “अन्दर आने दें तो सबको चाय समोसे खिलायेगा?” मैंने कराहते हुए कहा “जो कहोगे सो खिलाऊंगा पर अन्दर आने तो दो,”

अचानक ऐसा लगा जैसे अली बाबा ने चालीस चोरों वाली गुफा से कहा हो “खुल जा सिमसिम!” अन्दर का प्रतिरोध गायब हो गया और कुलियों ने मुझे पूरी तरह खिड़की के अन्दर धकेल दिया. इसके बाद गुस्से से एक ने मेरा ब्रीफकेस सीटों के बीच फ़ेंक दिया जहाँ मैं स्वयं आधा गिरा, आधा बैठा हुआ औंधा पडा था और हिकारत से मुझसे बोला “जो ये लड्डू समोसे की रिश्वत ही देनी थी तो हमारी बेईज्ज़ती खराब करवाने की क्या ज़रुरत थी?”मैं अपने घुटनों, टांगों, कुहनियों को सहलाते हुए उठने की कोशिश कर रहा था कि उठकर उन्हें समझाऊँ कि क्यों ख्वाहमख्वाह मुसाफिर को अन्दर घुसाने को इज्ज़त का सवाल बनाते हो? क्या मी टू प्रसंगों में मशहूर हो गए बड़े बड़े लोगों ने कभी इज्ज़त की परवाह की? तभी गाडी को इंजन ने एक हल्का सा धक्का दिया और गाडी धीरे धीरे सरकते हुए प्लेटफार्म से चल पड़ी.

क्रमशः --------