हथेली जो तुमने छूयी महेश रौतेला द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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हथेली जो तुमने छूयी

हथेली जो तुमने छुयी:

मुझे उसका तैंतालीस साल पहले का पहनावा याद है।क्यों ऐसा है पता नहीं! हल्के पीले रंग की स्वेटर। खोजी सी आँखें और गम्भीर चेहरा। मुस्कान अबूझ सी। मैंने उससे अन्तिम दिन पूछा था," फिर कभी भेंट होगी?" उसका उत्तर था," मुझे क्या पता।" वह लगभग दो सौ कदम मेरे साथ-साथ चली थी फिर मैंने बोला तुम लौट जाओ। यह वही स्थान था जहाँ उसने पहली बार मेरे हाथ में मूँगफली रखी थी।पेड़ों पर हल्का पतझड़ दिख रहा था। पतझड़ को याद करते चार साल की बच्ची के शब्द याद आ रहे हैं।एक जगह पेड़ों से पत्ते गिर रहे थे।वहाँ वह चिल्लाई," ऐ पेड़ गंजे हो जाओगे ऐसे तो,पत्ते मत गिराओ।" साथ-साथ एक विचार मन में घूमा।
"हथेली जो तुमने छूयी
निखरी हुई है,
दूसरे हाथ से छू
बार -बार जाँचता हूँ
कितने निकट हो तुम।"
मैं संक्षिप्त चढ़ाई चढ़ता एकबार पीछे मुड़ा, वह खड़ी थी, अगले आठ-दस कदमों के बाद मैं उसकी दृष्टि से ओझल हो गया था।और फिर हम अपने मन के रिक्त स्थान को भर नहीं पाये।
अपने अन्य दोस्तों के पहनावे का कोई आभास नहीं हो रह है। यहाँ तक की अपने कपड़ों का भी रंग याद नहीं है।धीरे-धीरे दोस्त अजनबी बन जाते हैं और अजनबी दोस्त। जिस विभाग में मैंने अपनी पढ़ायी की थी,वहाँ पहुँचा।अपने शिक्षकों से मिला। अपने शोध विषय के बारे में संक्षिप्त चर्चा की।विभागाध्यक्ष के बाहर वाले कमरे में एक बोर्ड लगा था जिसमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिखे थे जब से विभाग बना था ,उसमें एक नाम मेरा भी था।
एक दोस्त को फोन किया। बातें होती रहीं जैसे कोई नदी बह रही हो, कलकल की आवाज आ रही थी जैसी पहाड़ी नदी में आती है, पुरानी बातों की। नैनीताल आ पहुँचा। बीएससी प्रथम वर्ष की यादें झकझोर रही थीं। गणित वर्ग में हम साथ-साथ थे, पर दोस्तों के समूह तब अलग-अलग थे, एम.एसी. में आकर दोस्ती गाढ़ी हुयी। उस साल बीएससी गणित वर्ग का परिणाम तेरह प्रतिशत रहा था। वह बोला," तुम तो अपनी मन की बात कह देते थे लेकिन मैं तो किसी को कह नहीं पाया। रमा थी ना।" मैंने कहा ," हाँ, एक मोटी-मोटी लड़की तो थी,गोरी सी।तल्लीताल से आती थी।" वह बोला," यार, मोटी कहाँ थी!" मैं जोर से हँसा। फिर वह बोला," उसने बीएससी पूरा नहीं किया। वह अमेरिका चली गयी थी, उससे अपनी मन की बात नहीं कह पाया।" मैंने कहा," मुझे इतना तो याद नहीं है और मैं ध्यान भी नहीं रखता था तब।" मेरे भुलक्कड़पन से वह थोड़ा असहज हुआ।मैंने किसी और का संदर्भ उठाया, बीएससी का ही। वह विस्तृत बातें बताने लगा जो मुझे पता नहीं थीं। फिर उसने कहा कभी मिलने का कार्यक्रम बनाओ। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर ही मिल लेंगे एक-दो घंटे। मैंने कहा तब तो मुझे एअरपोर्ट से रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा या फिर रेलगाड़ी से आना पड़ेगा। उसने कहा," एअरपोर्ट पर ही मिल लेंगे।" मिलने की अबुझ उत्सुकता मनुष्य के मन में हमेशा बनी रहती है।
सोचते-सोचते सो गया।रात सपने में यमराज आये,पैदल। बोले, मुझे एक सूची बना कर दो।मैं उन्हें देखकर पहले तो बिहोश होने वाला था पर फिर संभला और पूछा कैसी लिस्ट। वे बोले उसमें केवल नाम होने चाहिए, स्वर्ग में कुछ जगह रिक्त हैं। मैंने उन्हें चाय के लिये पूछा। वे कुछ दोस्ताना दिखाने लगे। मैंने उन्हें चाय दी। चाय पीकर वे चले गये। मैं तैयार हुआ और जो मिलता उससे पूछता," स्वर्ग जाना है क्या?" जिससे भी पूछता वह मुझ पर नाराज हो जाता। जब थक गया तो अपने मन से सूची में नाम डालने लगा। नाम इस प्रकार थे-गंगा,यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नन्दा देवी, हिमालय, आदि। तभी मुझे एक लिफाफा मिलता है। जिसे खोलकर देखता हूँ। उसमें एक बड़ी फेलोशिप(छात्रवृत्ति) का निमंत्रण दिया गया था। लिफाफे पर छपा था-
"सपना देखना चाहिए
मनुष्य बनने का,
यदि मनुष्य ही न बन पाये
तो राष्ट्र कैसे बनेगा?
राम बने थे
तभी राम राज्य आया था।"
जागने पर पास पड़ी एक पत्रिका उठायी और उसमें छपी कहानी पढ़ने लगा।उसमें लिखा है कि,"जिस दिन मैं अपने प्यार का इजहार करना चाहता था वह दिन अद्भुत था।उस दिन सुबह चार बजे उठ गया था।नहा-धोकर तैयार हुआ।नाश्ता किया।शीशे में चेहरा देखा दो-तीन बार।बाहर रिमझिम बर्षा हो रही थी।कुछ देर बाद बारिश थम गयी।कोट पहना और चल पड़ा अपूर्ण कहानी को पूर्ण करने।उस दिन मुझे रास्ते में न पत्थर दिखे और न मोड़।कब्रिस्तान जो रास्ते में पड़ता था वह बहुतों की कहानियां दबाये था। एनसीसी के कार्यालय पर भारत का झंडा फहर रहा था जो वीरता का प्रतीक लग रहा था।मैं तेज कदमों से सब कुछ पीछे छोड़ता ,बांज के पेड़ों के सौन्दर्य को पढ़ता चला जा रहा था।सुबह के नौ बजे थे।सूरज सारी जानकारियां ले चुका था। मेरी परिच्छाई अभी मुझसे लम्बी ही दिख रही थी।झील की ओर ध्यान नहीं गया।
सीधे महाविद्यालय के पूरब के द्वार से निकल कर प्रशासनिक भवन से होता हुआ अपने विभाग की ओर बढ़ा।मन में था कि आज कह दूँगा।विभाग में तब तक कोई नहीं आया था।वह सबसे पहले आयी और अपनी सीट पर खड़ी हो गयी।मैं उसके पास गया और उससे बोला कि," मैं तुमसे प्यार करता हूँ।" वह अपनी किताबों को देख रही थी। कुछ नहीं बोली।मैं अपनी कक्षा की ओर चला गया।उसकी कक्षा से,मेरी कक्षा का कमरा और प्रयोगशाला लगभग तीन फीट की ऊँचाई पर थीं।सीढ़ियां चढ़ा।अपनी कक्षा में गया।मन नहीं लग रहा था।भूकंप के बाद के झटके लग ही रहे थे।उस स्थान पर गया जहाँ से वह दिखती थी, आँखें मिलीं और झुकीं, बार-बार।उस दिन छ घंटे में चालीस बार उस जगह पर गया माना तीर्थ हो वह हमारा।मुझे तो उस दिन अच्छी नींद आयी थी। प्यार हमारे जीवन का सच है और इतिहास भी।दूसरे दिन नौ बजे अपने विभाग में पहुँचा, वह उस समय अकेले अपनी कक्षा में थी।उसके पास गया और बोला," कल जो मैंने कहा...।" वह बोली," क्या।" मैं फिर बोला," कल जो कहा। वह बोली," क्या।" मैं फिर बोला," कल जो कहा। वह बोली," क्या।"
कहानी को यहाँ तक पढ़, मैंने पत्रिका बंद कर दी।
ऊपर आकाश में वायु सेना के जहाजों की गड़गड़ाहट हो रही है। फेसबुक एक साल का वीडियो बना कर भेजता है सभी सदस्यों को ,बारी बारी से। उसमें प्रोफाइल फोटो भी होती है। मैंने अपने प्रोफाइल फोटो में अपनी चौबीस साल(उम्र) की फोटो डाली है। स्वाभाविक है, उस उम्र में हर कोई आकर्षक होता है। त्वचा में चमक होती है। उस विडियो को मैंने अपने मित्र को दिखाया।वीडियो में मेरी फोटो के साथ चार और मित्रों की फोटो थीं।मैंने किसी और की फोटो जो लगभग तीन साल पुरानी थी, को दिखाने, उसे विडियो दिखाया था क्योंकि वे आजकल बहुत कमजोर हो गये हैं,कैंसर के कारण।मेरे मित्र ने कहा," अपनी इस फोटो के लिये रिश्ते खोजो,देखें कितने रिश्ते आते हैं अभी।" मैंने कहा एक बार अफ्रीकन लड़की का आया था लिखा था," कितने क्यूट लग रहे हो।" और दोनों हँसने लगे। फिर मन से निकला-
"मेरा जैसा प्यार किसी और ने किया या नहीं
पता नहीं,
जो नदी सा निर्रथक बहता रहा
पर लोग उसे अर्थ देते रहे,
जो समुद्र सा उछलता रहा
पर खारा न हो पाया,
जो आंखों का कांटा बना
पर किसी को चुभा नहीं,
जो राहों पर लम्बा चला
पर कहीं पहुंचा नहीं,
जो सिक्के की तरह उछलता रहा
पर हाथ में आया नहीं।"
इतना लिखने तक वायुसेना के पांच जहाज गुजर चुके होते हैं और उनकी गड़गडाहट मन में दौड़ने लगती है।आखिर हम सब देश से प्यार करते हैं जो। और मानवीय प्यार के लिए रिक्त स्थान स्थायी रूप से मन पर जमा रहता है।

***महेश रौतेला