एबॉन्डेण्ड - 4 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एबॉन्डेण्ड - 4

एबॉन्डेण्ड

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

दोनों अपनी पूरी ताक़त से बड़ी तेज़ चाल से चल रहे हैं। लग रहा है कि बस दौड़ ही पड़ेंगे। उधर क्षितिज रेखा पर कुछ देर पहले तक दिख रहा केसरिया बड़े थाल सा अर्ध घेरा भी कहीं गायब हो गया है। बस धुंधली लालिमा भर रह गई है। आपने यह ध्यान दिया ही होगा कि दोनों कितने तेज़, होशियार हैं। कितने दूरदर्शी हैं कि यदि कहीं पुलिस पकड़ ले तो वह अपने सर्टिफ़िकेट्स दिखा सकें कि वह बालिग हैं और जो चाहें वह कर सकते हैं। क्या आप यह मानते हैं कि आज की पीढ़ी का आई.क्यू. लेविल आपकी पीढ़ी से बहुत आगे है। इस बारे में आप सोचते-समझते रहिए। फिलहाल वह दोनों तेज़ी से, सावधानी से आगे बढ़े जा रहे हैं। युवक ने बातें ना करने की चेतावनी दी थी, लेकिन बातें फिर भी हो रही हैं... सुनिए। युवती बिदकती हुई कह रही है।

‘ठीक है, ठीक है, तुम चलो आगे-आगे।’ कुछ ही मिनट चलने के बाद फिर कह रही है, ‘डिब्बा कितना ज़्यादा दूर है। पहले लगता था जैसे सामने खड़ा है। अब चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और डिब्बा है कि पास आ ही नहीं रहा। लग रहा है जैसे वह भी हमारी ही चाल से और आगे चला जा रहा है।’

‘तुमसे कहा ना। चुपचाप चलती रहो। बोलो नहीं। अगल-बगल कोई हो भी सकता है। सुन सकता है।’

‘ठीक है।’ दरअसल चलने में युवक को तो कम युवती को ज़्यादा तकलीफ हो रही है। दोनों एबॉन्डेण्ड बोगी की तरफ जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं। वह एक बड़ा मैदान है। झाड़-झंखाड़, घास से भरा उबड़-खाबड़। इसीलिए युवती फिर परेशान होकर कह रही है, ‘पंद्रह-बीस मिनट हुए चलते-चलते। अब जाकर डिब्बा दिखना शुरू हुआ।’

‘हां, लेकिन सामने की तरफ से नहीं चलेंगे, उधर लाइट है। रेलवे ने भी इधर ही सबसे बड़ी लाइट लगवाई है।’

युवक ने लाइट से बचने के लिए थोड़ा लम्बा वाला रास्ता पकड़ा हुआ है। जो झाड़-झंखाड़ से ज़्यादा भरा हुआ है। युवती बड़ी डरी-सहमी हुई उससे एकदम सटकर चलना चाह रही है, तो युवक कह रहा है। ‘तुम एकदम मेरे साथ नहीं रहो। थोड़ा पीछे रहो।’

‘लेकिन मुझे डर लग रहा है। पता नहीं कौन-कौन से कीड़े-मकोड़ों की अजीब सी आवाजें आ रहीं है। कहीं सांप-बिच्छू ना हों।’

‘मैं हूं तो साथ में। बिल्कुल डरो मत, फुल लाइट में रहे तो बे-मौत मारे जाएंगे। इसलिए इधर से ही जल्दी-जल्दी चल। बहस मत कर।’

‘ठीक है।’

दोनों उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते, लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते करीब आधे घंटे में डिब्बे तक पहंुच ही गए हैं। दोनों के हाथ, पैर, चेहरे कई जगह छिले हुए हैं। अंधेरा घना हो चुका है और कोई समय होता तो लड़की इतने अंधेरे में बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ों, कीड़ों-मकोड़ों, झींगुरों की आवाज़़ से सहम जाती, डर कर बेहोश हो जाती। लेकिन पकड़े जाने के डर, युवक के साथ ने इतना हौसला बढ़ा रखा है कि अब वह पूरी हिम्मत के साथ बरसों से खड़ी, कबाड़ बन चुकी बोगी में चढ़ रही है। बेहिचक। युवक जल्दी चढ़ने को कह रहा है तो सुनिए वह क्या बोल रही है।

‘चढ़ तो रही हूं। इतनी तो ऊंची सीढ़ी है।’

‘अरे, तो क्या तुम समझती हो कि तुम्हारे घर के दरवाजे की सीढ़ी है।’

युवक उसे नीचे से सहारा देते हुए कह रहा है तो वह बोल रही है, ‘छोड़ो मुझे, मैं चढ़ गई। आओ, तुम भी जल्दी आओ।’

‘तू आगे बढ़ तब तो मैं अन्दर आऊं। और मुंह भी थोड़ा बंद रख ना। ज़्यादा बोल नहीं।’

युवक डिब्बे में आने के बाद आगे हो गया, युवती पीछे। कूड़ा-करकट, धूल-गंदगी से भरी बोगी में आगे बढ़ते हुए युवक कह रहा है। ‘सबसे पहले इधर बीच में आओ, इस तरफ। हमने जगह इधर ही बनाई है।’

युवती मोबाइल की बेहद धीमी लाइट में बहुत संभलते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही है। रास्ते में शराब की खाली पड़ी बोतलों से उसका पैर कई बार टकराया तो बोतलें घर्रर्र करती हुईं दूर तक लुढ़कती चल गईं। युवक ने उसे संभलने को कहा। मांस खाकर फेंकी गई कई हड्डियों से भी युवती मुश्किल से बच पाई है। वह जब युवक द्वारा बोगी के बीचो -बीच बनाई गई जगह पर पहुंची तो वहां देखकर बोली, ‘अरे, यहां तो तुमने चटाई-वटाई सब डाल रखी है। बिल्कुल साफ-सुथरा बना दिया है।’

‘वाह! पानी भी रखा है।’

‘हां थोड़ा सा पानी पी लो। हांफ रही हो।‘

‘तुम भी पी लो, तुम भी बहुत हांफ रहे हो और सुनो सारे दरवाजे बंद कर दो।‘

‘नहीं, दरवाजा जैसे सालों से है वैसा ही पड़ा रहने दो। नहीं तो किसी की नजर पड़ी तो ऐसे भले ध्यान ना जाए, लेकिन बदली हुई स्थिति उसका ध्यान खींच लेगी। फिर वह चेक भी कर सकता है। इसलिए चुपचाप बैठी रहो। बोलो नहीं।’

दोनों चटाई पर बैठ गए हैं। वहीं पानी की बोतलें, खाने की चीजों के कई पैकेट भी रखे हैं। बोगी की सीटें बेहद जर्जर हालत में हैं। इसलिए युवक ने नीचे ज़मीन पर ही बैठने का इंतजाम किया है। युवक के मोबाइल ऑफ करते ही युवती उसे टटोलते हुए कह रही है, ‘लेकिन मोबाइल क्यों ऑफ कर दिया, ऑन कर लो थोड़ी सी लाइट हो जाएगी। इतना अंधेरा है कि पता ही नहीं चल रहा कि तुम किधर हो।‘

‘नहीं। एकदम नहीं। जरा सी भी लाइट बाहर अंधेरे में दूर से ही चमकेगी। किसी की नज़र में आ जाएगी। बेवजह खतरा क्यों मोल लें। शांति से बैठे रहना ही अच्छा है।’

‘ठीक है। लेकिन पूरी रात ही बैठना है। बस अपने आसपास ही लाइट रहती तो भी अच्छा था। खैर अभी कितना टाइम हो गया है?‘

‘अभी तो साढ़े सात ही हुआ है।‘

‘बाप रे! अभी तो पूरे आठ-नौ घंटे यहां बैठना पड़ेगा। इतने घने अंधेरे में कैसे बैठेंगे? डर लग रहा है।’

‘हम हैं ना। तो काहे को डर लग रहा है।’

‘इतना अंधेरा है इसलिए। कितनी तो शराब की बोतलें, हड्डियां पड़ी हैं। सब पैर से टकरा रहीं थीं। यहां के सारे शराबी यहीं अड्डा जमाए रहते हैं क्या? बदबू भी कितनी ज़्यादा हो रही है।’

‘पहले जमाए ही रहते थे, लेकिन पिछले महीने एक चोर को पुलिस ने यहीं से पकड़ कर निकाला था। उसको बहुत मारा था। उसके बाद से सारे चोर-उचक्के पीने-पाने वाले इधर का रुख नहीं करते। मैंने इन सारी चीजों का ध्यान पहले ही रखा था। लेकिन तुम मुझे इतना कसकर क्यों पकड़े हुए हो?’

‘नहीं मुझे अपने से अलग मत करो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। इतना अंधेरा, ऊपर से सांप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े, झींगुर सब कितना शोर कर रहे हैं।’

‘क्या बार-बार एक ही बात बोल रही हो। मैं छोड़ने नहीं थोड़ा आसानी से रहने को कह रहा हूं। तुम तो इतना कसकर पकड़े हुए हो जैसे अखाड़े में दंगल कर रही हो। ये आवाजें डिब्बे के अंदर से नहीं, बाहर झाड़ियों से आ रही हैं। सांप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े जो भी हैं, सब बाहर हैं। इसलिए डरो नहीं। तुम तो इतना कांप रही हो जैसे बर्फीले पानी से नहाकर पंखे के सामने बैठ गई हो।’

‘मुझे बहकाओ नहीं। इतनी ही जगह तो साफ की है ना। बाकी पूरी बोगी तो वैसे ही है। सारे कीड़े-मकोड़े जहां थे अब भी वहीं हैं। आवाजें अन्दर से भी आ रही हैं। कहीं सारे कीड़े-मकोड़े सूंघते-सूंघते यहीं हमारे पास ना चले आएं। सबसे बचने के लिए इन सांप-बिच्छूओं के बीच में तो हम आ गए हैं। अब यहां से निकलेंगे कैसे?’

युवती बहुत ही ज़्यादा घबराई हुई है। युवक को इतना कसकर पकड़े हुए है जैसे कि उसी में समा जाना चाहती हो। उसकी बात शत-प्रतिशत सही थी कि बाहर की तरह तमाम जीव-जंतु बोगी में भी भरे पड़े हैं। जो उन तक पहंुच सकते हैं। लेकिन युवक उसे हिम्मत बंधाए रखने के उद्देश्य से झूठ बोलता जा रहा है, कह रहा है कि, ‘जैसे घर से यहां तक आ गए हैं, वैसे ही यहां से निकलेंगे भी। शांति से, आराम से, सब ठीक हो जाएगा। इसलिए डरो नहीं। कीड़े-मकोड़े छोटे-मोटे हैं। आएंगे भी तो भगा देंगे या मार देंगे।’ मगर युवती का डर, उसकी शंकाएं कम नहीं हो रही हैं। वह पूछ रही है, ‘मान लो थोड़ी देर को कि मुझे यहां कुछ काट लेता है और मुझे कुछ हो गया तो तुम क्या करोगे?’

युवती के इस प्रश्न से युवक घबरा गया है। इस अंधेरे में भी युवती को बांहों में कसकर जकड़ लिया है और कह रहा है, ‘मत बोल ऐसे। तुझे कुछ नहीं होगा। मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। मुझे पूरी बोगी साफ करनी चाहिए थी। मेरे रहते तुझे कुछ नहीं होगा। ऐसा कर तू मेरी गोद में बैठ जा। कीड़े-मकोड़े तुझ तक मुझसे पहले पहंुच ही नहीं पाएंगे। मेरे पास जैसे ही आएंगे मैं वैसे ही मार डालूंगा।’

युवक की बात सुनकर युवती ने उसे और कस लिया है। बहुत भावुक होकर कह रही है, ‘तुम मुझसे इतना प्यार करते हो। मुझे कोई कीड़ा-मकोड़ा काट ही नहीं सकता। लेकिन एक चीज़ बताओ, तुम्हें डर नहीं लगता क्या?’

‘सांप-बिच्छुओं से बिल्कुल नहीं। लेकिन हमारे परिवार, गांव वालों, पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जो हाल होगा उससे डर लग रहा है। हम इंसान हैं और इंसानों से ही बच रहे हैं। क्योंकि जब ये पकड़ेंगे हमें , तो जीते जी ही हमारी खाल उतार लेंगे। जिंदा नहीं छोड़ेंगे, उससे डर लगता है। इज़्ज़त के नाम पर ये इंसान इतने क्रूर हो जाते हैं कि इनकी क्रूरता से क्रूरता भी थर्रा उठती है। ऑनर किलिंग की कितनी ही तो घटनाएं पढ़ता रहता हूं।

एक में तो लड़के-लड़की को धोखे से वापस बुलाकर शरीर के कुछ हिस्सों को जलाया और तड़पाया। फिर खेत में कंडों व भूंसों के ढेर में ज़िंदा जला दिया। मुझे इसी से अपने से ज़्यादा तुम्हारी चिंता है कि पकड़े जाने पर तुम पर तुम्हारे घर वाले कितना अत्याचार करेंगे। तुम्हें कितना मारेंगे और मैं, तुम पर अत्याचार करने वाले को मार डालूंगा या फिर खुद ही मर जाऊंगा। इसलिए शांति से रहो। एकदम डरो नहीं। मैं तेरे साथ में हूं। मेरे पास इसी तरह चुपचाप बैठी रहो।’

‘ठीक है, मुझे ऐसे ही पकड़े रहना, छोड़ना नहीं। मैं एकदम चुप रहूंगी।’

‘ठीक है, लेकिन पहले यह बिस्कुट खाकर पानी पी लो। तुम्हारी हालत ठीक हो जाएगी। तुम अब भी कांप रही हो।’

युवक ने युवती को बिस्कुट-पानी दिया तो वह उसे भी देते हुए कह रही है, ‘लो तुम भी खा लो, तुम भी बहुत परेशान हो। मेरी वजह से तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा है ना।’

‘नहीं, तुम्हारी वजह से नहीं। इस दुनिया के लोगों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। हम यहां इन्हीं लोगों के कारण तो हैं। आखिर यह लोग हम लोगों को अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने क्यों नहीं देते। हर काम में यह इज़्ज़त का सवाल है। आखिर यह सवाल कब तक बना रहेगा।

अरे लड़का-लड़की बड़े हो गए हैं। तुमको जो करना था वह तुम कर चुके। अब उन्हें जहां जाना है, जिसके साथ जाना है, उनके साथ जाने दो, ना कि यह हमारे धर्म का नहीं है, दूसरे धर्म का है, वह हमारी जाति का नहीं है, ऊंची जाति वाला है, नीची जाति वाला है। आखिर धर्म-जाति, रीति-रिवाज, परम्परा के नाम पर यह सब नौटंकी काहे को पाले हुए हैं।’

‘अरे चुप रहो, तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो, वह भी इतना तेज़ और हमसे कह रहो कि चुप रहो, चुप रहो।’

‘क्या करूं। इतनी गुस्सा आ रही है कि मन करता है इन सबको जंगल में ले जाकर छोड़ दूं। कह दूं कि जब हर इंसान को उसके हिसाब से जीने देने का अधिकार देने की आदत डाल सको तो इंसानों के बीच में आ जाना। ‘अच्छा सुनो, आवाज़़ बाहर तक जा रही होगी। हम दोनों अब चुप ही रहेंगे।’

‘ठीक है, नहीं बोलूंगी, लेकिन सुनो किसी ट्रेन की आवाज़़ आ रही है।’

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