जो घर फूंके अपना - 13 - पहली मुलाक़ात है जी, पहली मुलाक़ात है Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 13 - पहली मुलाक़ात है जी, पहली मुलाक़ात है

जो घर फूंके अपना

13

पहली मुलाक़ात है जी, पहली मुलाक़ात है

डिफेन्स कोलोनी के उस मकान तक चौहान के साथ टैक्सी में बैठ कर जाते हुए मुझे वायुसेना सेलेक्शन बोर्ड देहरादून की याद आती रही जहाँ एन डी ए ( राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादमी ) में चुने जाने के लिए लगभग दस साल पहले गया था. सेलेक्शन बोर्ड में हमें चार दिन तक रुकना पडा था. लगातार एक के बाद एक कई मनोवैज्ञानिक और शारीरिक, लिखित और प्रैक्टिकल टेस्ट्स से गुज़रने के बाद अंत में सेलेक्शन बोर्ड के प्रेसिडेंट के साथ निजी इंटरव्यू का नंबर आया तो मेरा किशोर मन सीने में इस तरह जोर जोर से धडका था जैसे टीन की छत पर ओले गिर रहे हों. बाद में फ़्लाइंग कोलेज में पहली बार सोलो उड़ान के लिए हवाई जहाज़ में बैठने का अवसर आया तब भी मन की टीन की छत पर ओलों ने गिरकर वैसा ही कोलाहल मचाया था. अब कई सालों के बाद मन में वही आवाज़ शोर मचा रही थी, पर मैं ऊपर से जितना सम्भव हुआ सहज दिखने की कोशिश करता रहा. चौहान ने मुस्करा कर एक पुराने फ़िल्मी गीत के शब्द गुनगुनाये ‘ चुप चुप खड़े हो, ज़रूर कोई बात है, पहली मुलाकात है जी, पहली मुलाक़ात है’ तो मैं बस खिसिया कर हलके से मुकरा भर सका था. अब मैं उस मध्यवर्ग के ड्राइंगरूम में बैठकर स्वयं को समझा रहा था कि लडकी देखने का ठेठ फ़िल्मी सीन ही तो दुहराया जायेगा, उसमे घबराने की क्या बात थी. लेकिन ओले थे कि फिर उसी मन वाली टीन की छत पर टपकने को बेकरार हो रहे थे. बड़ा शांत सा वातावरण था. मैं वैसे तो बहुत बकवादी हूँ लेकिन चौहान की हिदायत के अनुसार बहुत शालीन बना चुपचाप बैठा रहा. चौहान स्वयं भी मितभाषी हैं- लडकी के पिता उनसे भी कम बोलने वाले निकले. वार्तालाप कुछ इस प्रकार चला :

पिता : यहाँ पहुँचाने में दिक्कत तो नहीं हुई. ?

चौहान: नहीं नहीं, आसानी से पहुँच गए.

पिता : हें-हें-हें!

चौहान: हें-हें-हें!

एक मिनट की सामूहिक चुप्पी के बाद,

पिता: आप लोग कल ही आये?

चौहान: हें-हें-हें--, कल ही आये.

पिता: हें-हें-हें, अच्छा कल ही आये.

इस बार दो मिनट की चुप्पी. फिर-

पिता; मैंने तो पंद्रह दिन पहले रिक्वेस्ट की थी कि अरुण जी जल्दी आ जाएँ.

चौहान: हें-हें--हें. चाहते तो थे, हो नहीं पाया.

मैं ( पहली बार मुंह खोलते हुए) हें –हें-हें. चाहता तो था, हो नहीं पाया.

पिता : जी, कई बार मजबूरी होती है.

चौहान और मैं ( एक साथ ): जी, कई बार मजबूरी होती है.

पिता : हें-हें-हें!

चौहान, मैं और पिता ( एक साथ ) हें-हें-हें-हें-हें-हें!

इस तरह पांच मिनट में पंद्रह बार हें-हें-हें हुई कि पीछे का पर्दा हिला. मैं और चौहान तनकर बैठ गए पर प्रकट हुईं लडकी की माताजी. हाथ में चाय की ट्रे लिए हुए. सौम्य, शालीन महिला थीं. चेहरे पर मंद मंद मुस्कराहट थी. मैं सोच रहा था ‘वह‘ आयेगी तो उसकी मुस्कराहट भी इतनी ही प्यारी होगी या वह गंभीर मुद्रा बनाए रखेगी.

माताजी का हमने उठ कर अभिवादन किया. उन्होंने ट्रे मेज़ पर रख दी. बोलीं “यहाँ पहुँचने में दिक्कत तो नहीं हुई?”

चौहान: नहीं, आसानी से पहुँच गए.

माताजी : हें-हें-हें!

चौहान, मैं और पिताजी ( एक साथ ) : हें-हें-हें!

एक मिनट की सामूहिक चुप्पी के बाद.

माताजी : आप लोग कल ही आये?

चुअहान : हें-हं-हें, कल ही आये.

माताजी : हें-हें-हें, अच्छा कल ही आये.

चौहान, मैं और पिताजी ( एक साथ ): हें-हें-हें-हें!

मैं नहीं चाहता कि आपलोग इस पृष्ठ को इसी समय फाड़ कर फेंक दें अतः बाकी का वार्तालाप पूरा नहीं लिखूंगा. बस यूँ समझ लीजिये कि हें-हें –हें का क्रम हम चारों यानी चौहान, मैंने, पिताजी और माताजी ने समवेत स्वर में “ हें-हें-हें, कई बार मजबूरी होती है” कह कर समाप्त किया.

इस बीच चौहान और मुझे दोनों को याद आई कि रीमा, लडकी का नाम यही था, अभी तक नहीं पधारी थी. हें-हें-हें के दौरों से हम दोनों त्रस्त हो रहे थे. पर हिम्मत करके चौहान ने पूछा “ हें-हें-हें, रीमा जी नहीं दिख रही हैं?

पिताजी और माताजी, दोनों ने इस बार एक साथ बड़ा लंबा वाक्य बोला. जुगलबंदी ऐसी बढ़िया थी कि लगा कि इस वाक्य को बोलने का कई कई बार रिहर्सल किया हो.

पिताजी व माताजी ( एक साथ) : “उसकी तो पिछले सप्ताह अचानक शादी हो गयी. ”

इस बार माताजी ने बाकी का डायलोग पिताजी के हवाले कर दिया और वे बिना हिनहिनाये बोलते रहे “ जी, वो ऐसा हुआ कि मैंने तो पंद्रह दिन पहले रिक्वेस्ट की थी पर अरुण जी जल्दी आये ही नहीं. इस बीच एक एन आर आई लड़का अमरीका से आया हुआ था. उन्हें रीमा इतनी पसंद आयी कि एक सप्ताह के अन्दर चट मंगनी पट ब्याह कर के वे उसे ले गए. परसों ही वह अमेरिका गयी. ”

चौहान और मैं : हें-हें-हें, जी कई बार मजबूरी होती है.

पिताजी व माताजी : हें-हें-हें, जी कई बार मजबूरी होती है.

हम सब : हें-हें-हें !

चौहान ने पूछा कि कल रात जब हमने फोन पर बात की थी तभी बता देते तो पिताजी बोले “ जी, आप लोग इतनी दूर से आये थे, सोचा मिल तो लें. शादी के लड्डू भी खिला देंगे और कष्ट के लिए माफी भी मांग लेंगे. हें-हें-हें!”

मैं और चौहान हें हें हें करते हुए बाहर आ गए. हमारे बैठने के बाद जैसे ही टैक्सी आगे बढ़ी चौहान हंस हंस कर लोट पोट हो गया. मेरी आवाज़ की नक़ल बनाते हुए बोला “ हें–हें-हें जी, चाहते तो थे हो नहीं पाया. ” पहले तो मैं क्षण भर के लिए खिसियाया सा बैठा रहा फिर पता नहीं क्या हुआ. मैं भी हँसते हँसते दुहरा हो गया. हंसी रुकी तो पेट थाम कर मैं भी बोला “ हें-हें-हें जी, कई बार मजबूरी होती है. ”

वापस गौहाटी पहुँच कर मैं दो चार दिन घबराया सा रहा, मारे डर के कि कहीं चौहान अन्य दोस्तों के सामने पर्दाफाश न कर दे. एक बार तो सपने में देखा कि वह मुझे ब्लैक मेल कर रहा है पर वह शरीफ इंसान निकला. जीजा जी को मैंने सूचित कर दिया था कि दिल्ली में क्या हुआ. इतनी देर करने के लिए उन्होंने मेरी लानत मलामत की तो मैंने झल्लाकर कह दिया कि मुझे शादी की कोई जल्दीं नहीं है. गौहाटी में रहते हुए ये सब करना आसान नहीं था. वहां से पोस्टिंग होगी तो देखेंगे. पता नहीं कुछ लोग कान के इतने कच्चे क्यूँ होते हैं कि जो सुना उसी पर विश्वास कर लिया. जीजा जी को ऐसी क्या पडी थी कि जो कुछ कहूं उस पर तुरंत यकीन कर लें पर उन्होंने किया और दास्ताने शादी में लंबा विराम आ गया.

क्रमशः -----------