दास्ताँ ए दर्द ! - 17 - अंतिम भाग Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्ताँ ए दर्द ! - 17 - अंतिम भाग

दास्ताँ ए दर्द !

17

प्रज्ञा को बहुत समय लगा सत्ती के ऊपर कुछ लिखने में ! वह जैसे ही उसकी किसी स्मृति को लिखना शुरू करती, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा निकल जाती और दृष्टि धुंधला जाती| इतना भी कठोर हो सकता है विधाता अपने बच्चों के लिए ? फिर अगर सत्ती कठोर हो गई थी तो क्या बड़ी बात थी ? जब उसने सत्ती को देखा था, वह चिड़चिड़ी हो चुकी थी | सहित-धवल वस्त्रों में सुसज्जित सत्ती के चेहरे पर वैसे तो मायूसी पसरी रहती पर चेहरे का निष्कपट भाव लुभा लेता | पता नहीं लोग उसकी इस मूरत को क्यों नहीं पहचान पाते थे ? वे बस, उसके साथ बीते पलों पर प्रहार करते | कितने नासमझ लोग ! किसीके भीतर झाँक पाने में असमर्थ केवल किसी का मज़ाक उड़ाने में समर्थ ! अपने भविष्य से अनजान !

रीता ने ठीक ही कहा था कि लोग सत्ती पर हँसते हैं, उसका मख़ौल उड़ाते हैं | प्रज्ञा ने दक्षा के जैसे दो-एक नमूने तो देखे ही थे जो सत्ती को गई-गुज़री समझते | जब तक पैरों में बिवाई न फटे, कोई कैसे उसकी टीस महसूस कर सकता है?

प्रज्ञा महसूस कर पा रही थी | जैसे ही लिखने बैठती, उसके हाथों में कंपन शुरू हो जाती और शब्द आपस में ही टकराकर सिर फोड़ने लगते |

"दीदी ! सत्ती पूछ रही है, उसकी कहानी का क्या हुआ ?"

कभी कहती ---

"सत्ती कह रही है जब तँ नी मरणा जब तलक मेरी कहाणी लोग न बाँच लें ---"

प्रज्ञा सिहर जाती, लिखने के प्रयत्न में में खुद भी असहज हो जाती |

कुछ दिनों बाद रीता का फ़ोन जल्दी-जल्दी आने लगा था |क्या बताती, लिखने बैठती है तो शब्द नहीं मिलते ! भला कौन समझेगा इस बात को ? रीता भी कैसे ? आखिर जैसे भी उसे समय ने इजाज़त दी, उसने शब्दों को पकड़कर अपने पास समेटना शुरू किया छोटे-छोटे काग़ज़ों के पुर्ज़ों में !

लगभग डेढ़ साल के जूझने के बाद उसकी शुरू की गई वह पुस्तक पूरी हुई थी जिसमें सत्ती की कथा का छोटा सा हिस्सा था | प्रज्ञा जानती थी वह जब भी लिखने बैठेगी सत्ती कहीं न कहीं से झाँककर पूछेगी ?

" बस --इतनी सी है मेरी पीड़ा?'

फिर भी प्रज्ञा ने पुस्तक प्रकाशन में दे दी थी, प्रकाशक से आज़िज़ी की, जल्दी छपने की | उनके पास ढेरों काम रहते हैं, केवल एक ही पुस्तक नहीं होती उनके पास | प्रकाशक को समझाया, थोड़ा सा हिंट दिया और उन्होंने ढाई माह के भीतर पुस्तक उसके हाथ में थमा दी |

पुस्तक पर सत्ती का धवल वस्त्रों में एक नायाब चित्र था जो मुस्कुरा रहा था | जब वह उसके पास आई थी तब वह उसे न जाने बहुत ही पवित्र प्रतिमा सी लगी जिसके चेहरे पर मुर्दनी पसरी हुई थी |

"कितना सुंदर बनाया है भगवान ने आपको ! ---" प्रज्ञा ने उसकी ज़रा सी प्रशंसा क्या की, उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी | ऐसा तो नहीं है की ज़िंदगी में उसे किसीने सुंदर नहीं कहा लेकिन कहने-कहने में फ़र्क होता है न ! लालसा और लिप्सा से भरे भाव मन को छिछला कर देते हैं और सच्चाई से निकले शब्द मन को आश्वासित करते हैं | प्रज्ञा की बात सुनकर स्नेहमय निखालस भाव से उसका चेहरा प्रदीप्त हो गया था | प्रज्ञा ने सोचा था --'काश ! इसके मुख पर यह आश्वासन बना यह पाता !'

रीता ने उसके इशारे पर उसे बिना बताए ही उसकी दो-तीन तस्वीरें खींचकर प्रज्ञा को दे दीं थीं | उनमें से ही एक तस्वीर प्रज्ञा ने पुस्तक के मुख-पृष्ठ पर छपवाक्र शीर्षक दिया था --

'दास्ताँ, रिसते हुए घाव की !'

और अंदर के पहले पृष्ठ पर लिखवाया था ---

"प्यार से समर्पित सत्ती को --"

पुस्तक हाथ में आते ही प्रज्ञा ने पहला काम पुस्तक को भेजने का किया था | यह भी कोई अवसर ही था कि प्रज्ञा की एक मित्र के पति किसी कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में इंग्लैण्ड जाना हुआ | रात में ही उसने पुस्तक अपनी मित्र के पास पहुंचा दी और वहाँ से स्थानीय कुरियर से दो दिनों में वह पुस्तक अपनी सही जगह पर पहुँच गई थी |

सत्ती के हाथ में एक ऎसी पुस्तक थी जिसके कवर-पेज पर उसकी सफ़ेद, शुभ्र कपड़ों में लिपटी देह खिल रही थी | सत्ती को आश्चर्य हुआ, वह कब ऐसे हँसी होगी? कब उसकी फ़ोटो खींच ली गई होगी ? उसे कुछ याद न था | बस, वह उस किताब को हाथ में पकड़े आँसुओं की धार से उसे नहला रही थी |

सच में, ऐसे लोग भी होते हैं दुनिया में जो अपने वायदे पूरे करते हैं ! एक आश्चर्य भरा प्रश्न उसके मन में उतर आया और वह शीत के ठिठुरते मौसम में जैसे किसी गर्म छुअन से थरथरा गई | एक सुकून ओढ़कर उसने एक लंबी श्वाँस ली और रज़ाई के हवाले करके किताब को खोल लिया |

दो-तीन दिनों तक सत्ती का कोई फ़ोन नहीं आया, रीता ने फ़ोन किया, कोई उत्तर नहीं | वह भागी हुई सत्ती की तरफ़ पहुँची | थोड़ी देर बाद रीता का फ़ोन था --

रात के दो बजे फ़ोन की घटी से प्रज्ञा व उसके पति दोनों ही जाग गए | दिल धड़कने लगा |

"दीदी ! सत्ती गई ----आपकी किताब उसने सीने से लगा रखी थी और उसका चेहरा जैसे संतोष से चमक रहा था |उसकी मुट्ठी में एक कागज़ मिला जिस पर 'थैंक यू' लिखा था | "

प्रज्ञा सत्ती का नाम सुनकर ही काँपने लगी थी | सारा माज़रा समझ में आ गया था | दो बूँद आँसुओं ने सत्ती को श्रद्धांजली दी | वह रात जीवन की कभी न भूलने वाली रात में तब्दील हो चुकी थी |

डॉ. प्रणव भारती