दास्ताँ ए दर्द ! - 4 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्ताँ ए दर्द ! - 4

दास्ताँ ए दर्द !

4

कुछ देर बाद रवि भी मंदिर पहुँच गए और भजनों के सम्मिलित स्वर में अपना स्वर मिलाने की चेष्टा करने लगे | बेसुरे थे वो किन्तु तबले व हारमोनियम के मद्धम सुरों ने उन्हें अपने सुर में ढालने की चेष्टा की, भजन-मंडली के चयनित भजन सबको आते थे सो रवि के साथ तबले की थाप पर सबने उनका साथ दिया | सबका एक ही मक़सद था, आनंदानुभूति ! वो हो रही थी और क्या चाहिए?

शायद उस दिन थोड़े समय में ही रवि का 'व्यापार' भी बहुत अच्छा हुआ था, उनके चेहरे पर लिखा था | होता ही है भई, आदमी पेट के लिए न जाने क्या-क्या करता है, वे विदेश में पंडिताई कर रहे थे और सफ़ल हो रहे थे |

मंदिर के लोगों का उत्साह देखते ही बनता था, लगता था रवि ने वहाँ अपनी ख़ासी जगह बना रखी थी | लगभग एक, डेढ़ घंटे बाद उन्हें वहाँ से छुट्टी मिल पाई | सब उनसे कुछ न कुछ बात करना चाहते थे | शायद 'भविष्य-दृष्टा' की तस्वीर थी उनके मनों में रवि के लिए !

" अब चलना चाहिए, रस्ते में एक पंडित जी से मिलना चाहता हूँ, वो इण्डिया से आते हैं हर साल, कुछ प्रोग्राम डिस्कस करना है | चलेगा दीदी ?"

दीदी के पास और कोई चारा तो था नहीं केवल मुस्कुराकर सिर हिलाने के ! आखिर रवि उसे 'ऑब्लाइज़'ही तो कर रहे थे |

मंदिर के बाहर तक दो-तीन लोग उन्हें छोड़ने आए, घर के लिए प्रसाद बाँध दिया गया था|गाड़ी तक पहुँचने के लिए कुछ दूर चलना था सो रवि चलते हुए प्रज्ञा से पूछते रहे कि उसका समय कैसा गुज़रा ?

प्रज्ञा को पता नहीं था कि गाड़ी उसी स्थान पर है जहाँ वह रवि को छोड़कर आई थी | किसी मोड़ पर मुड़कर वही गली आ गई थी, रवि 'शॉर्टकट' से आए थे | उसने तो आगे से रोड़ से आकर पूरा बाज़ार ही घूम डाला था | गाड़ी में बैठकर रवि ने उसे कॉफ़ी या कुछ कोल्ड-ड्रिंक के लिए भी पूछा लेकिन मंदिर में खूब खातिरदारी हुई थी सो वह तृप्त थी |

"जहाँ जाएंगे, वहाँ भी कुछ तो लेना पड़ेगा, मैंने भी नाश्ता कर लिया था फिर भी आपका मूड हो तो कुछ कॉफ़ी या जो भी आप लेना चाहें ---" रवि ने फ़ॉर्मैलिटी करते हुए एक बार फिर आग्रह किया |

गाड़ी में रवि अपने संघर्ष की कहानी बताते रहे, कैसे उन्हें यहाँ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा | जीवन को चलाने के लिए न जाने कितने स्टोरों पर, कॉर्नर-शॉप पर दोनों पति-पत्नी बरसों काम करते रहे| सिटिज़नशिप के लिए कितनी बार एप्लाई किया, न जाने कितनी बार में जाकर वहाँ की नागरिकता मिल सकी |अब भी उनकी पत्नी किसी अस्पताल में काम करती थीं |

प्रज्ञा के मन में न जाने कितने सवाल अंगड़ाई ले रहे थे किन्तु वह चुप रही | बंदे ने खुद ही बता दिया था कि भारत से कुछ किताबें मंगाकर उसने ज्योतिषी का ज्ञान प्राप्त किया फिर धीरे-धीरे यहाँ जम पाया | अब तो ख़ैर उसने अपना घर बना लिया था और वहीं पीछे मंदिर की स्थापना भी कर ली थी | जब रीता और देव के साथ उनके यहाँ डिनर पर गई थी तब उन्होंने सब दिखाया था | ख़ासा बड़ा प्लॉट था, न जाने उसके लिए उन्होंने कितने पापड़ बेले होंगे |

लगभग सवा घंटे बाद रवि ने गाड़ी मोड़ी और कुछ बंगले जैसे मकानों को पार करते हुए एक बंगले के सामने गाड़ी खड़ी कर दी | यह न तो गली थी और न ही बहुत बड़ी सड़क | गाड़ी से उतरकर रवि ने आगे बढ़कर एक गेट खोला और आगे बढ़ते हुए उसे अंदर आने का इशारा किया |सुन्दर जगह थी ;

"रवि पंडित जी ----" एक भारतीय नवयुवक अंदर से बाहर आ गया था |

"प्रणाम, कैसे हैं ? आपको याद कर रहे थे महाराज --"

"सोए तो नहीं हैं ---?"

"नहीं, सेबी बैठी है ----आप चलो " शुद्ध हिंदी बोल रहा था वह ! युवक जहाँ से आया था, उधर की ओर ही चला गया | शायद वह उस घर का मालिक या मालिक का बेटा था |

प्रज्ञा रवि के पीछे-पीछे फूलों भरे छोटे से बगीचे की पगडंडी को पार करती हुई चल दी | कुछ कदम पर ही घर से अलग-थलग एक 'आऊट-हॉउस' जैसा था | रवि ने उसके दरवाज़े पर नॉक किया |

"आओ रवि ---" अंदर से आवाज़ आई |रवि की प्रतीक्षा की जा रही थी |

रवि अंदर गए तो प्रज्ञा को उनके पीछे जाना ही था | अंदर जाने पर प्रज्ञा ने देखा वह एक बड़ा पोर्च था जिसको एक ऐसे कमरे का रूप देकर, उसमें सभी ज़रूरत की चीज़ें मुहैया करा दी गईं थीं | प्रज्ञा की दृष्टि उस बड़े स्थान में, जिसे कमरे का रूप दे दिया गया था, चारों ओर घूमती रही | बीच में बड़ा सा पलँग, उसके सामने अर्धगोलाकार में सोफ़े, दोनों साइड्स में दरवाज़े थे | किचन काँच के दरवाज़े में से स्पष्ट दिखाई दे रहा था |

'दूसरी ओर टॉयलेट होगा', प्रज्ञा अनुमान लगा रही थी |

"अरे दीदी ! आप खड़ी रह गईं, आइए न ----" रवि की आवाज़ से प्रज्ञा चौंककर उस ओर बढ़ी जिधर पलँग पर गेरुए कपड़ों में हृष्ट-पुष्ट उम्रदराज़ 'महाराज' गद्दों के सहारे पधारे हुए थे |

प्रज्ञा ने देख लिया था, रवि ने उनके चरण-स्पर्श किए थे | वह उनके सामने पहुँच गई और हाथ जोड़ दिए | सेबी नाम की एक अँग्रेज़ महिला सामने सोफ़े पर बैठी थी |

"ये दीदी हैं, देव भाईसाहब हैं न, उनकी बहन ---दीदी ! आप महाराज चतुरानन्द जी हैं, बनारस से हर वर्ष यहाँ छह महीने के लिए आते हैं | छह महीने तक इंग्लैण्ड के लगभग सभी शहरों में पूजा-पाठ, सुंदरकांड, रामायण-पाठ करवाते हैं | "
"आइए.पधारिए ---देव जी के परिवार से तो कई वर्ष का परिचय है हमारा | "कुछ रुककर उन्होंने अपने सामने बैठी युवा स्त्री से प्रज्ञा का परिचय कराया ;

"ये सेबेस्टियन है, हम इसको सेबी कहते हैं ---"

स्त्री ने उठकर रवि व प्रज्ञा से हाथ मिलाया | अब सब जम चुके थे | महाराज ने बातों का सिलसिला बढ़ाया और प्रज्ञा के बारे में बहुत सी बातें जानने की कोशिश करते रहे | पता नहीं प्रज्ञा को बहुत अच्छी फीलिंग नहीं आ रही थी अत:उसने कुछ बातों का उत्तर दिया तो कुछ का टाल भी गई |

"दीदी की आवाज़ बड़ी सुरीली है ----"रवि ने प्रज्ञा की प्रशंसा करते हुए उन 'सो कॉल्ड महाराज' को बताया |

"तो साऊथ-हॉल के रामायण-पाठ में लाओ न इन्हें " इतनी सी देर में प्रज्ञा को निमंत्रण भी मिल गया था |

महाराज के इशारे से सेबी उठकर काँच के किचन के दरवाज़े को ठेलकर उसके भीतर चली गई थी |

"और आज्ञा दीजिए ---"रवि उनके सामने कुछ अधिक ही विनम्र दिखाई दे रहे थे |

"यहाँ तो सेबी रहती ही है हमारी सेवा में ---"उन्होंने अपने चेहरे की मुस्कान चौड़ी की | प्रज्ञा को उनका अभिमान से ओत प्रोत काइयाँ चेहरे ने असहज कर दिया था |

"जी, सेबी तो आपके राखी बाँधती है सो---"रवि शायद उनके रिश्ते को कोई नाम देना चाहते थे ज़रूरत नहीं थी |

"हा--हा ---"हृष्ट-पुष्ट ने न जाने क्या सोचकर दाँत फाड़े, मन में न जाने क्या अजीब सा भर गया प्रज्ञा के |क्या कहना चाहता था वो ---? जैसे उठाकर एक पत्थर दे मारे |

"हाँ--हाँ---राखी, राखी तो हाथ पर बंधती है ----"फिर मुह फाड़कर बेशर्मी से हंसने लगा बंदा |

बहुत कोफ़्त हुई प्रज्ञा को, कमाल का बेशर्म आदमी था ! रवि तो ऐसा लगता नहीं था फिर ---?धर्म के नाम पर रिश्तों का मज़ाक बनाने वाले उस लम्पट से आदमी से उसे घृणा सी होने लगी फिर लगा, क्यों किसी के बारे में 'जजमेंटल' हो रही है ?

"चलिएगा न दीदी ?" रवि ने और भी चतुराई दिखाई, तुरंत ही प्रज्ञा से पूछा |

"अभी से कैसे बताऊँ ? देखते हैं ---" प्रज्ञा ने टालमटोल की |

"अरे ! आप तो प्रज्ञा जी बस गेरुए कपड़ों में आ जाइए, आवाज़ आपकी सुरीली है ही, परसनैलिटी ज़ोरदार है --खूब जमेंगीं आप !" उसने प्रज्ञा को ऊपर से नीचे तक नापते हुए कहा |

'ऐसे लोग ही धर्म के नाम पर धब्बा होते हैं ! आख़िर कौनसा धर्म है इनका ?'प्रज्ञा का मन सोचने से रुक नहीं पाया, बेचैनी उसके न केवल मन को , पूरे व्यक्तित्व को झंझोड़ने लगी |

प्रज्ञा की ऊब उसके चेहरे पर चुगली खा रही थी| सेबी ज्यूस, कुकीज़ व फल ले आई थी जिसमें से उसे थोड़ा बहुत ज़बरदस्ती लेना पड़ा |

शायद रवि उसका मन भाँप चुका था, वह उठ गया |

" तो अब चलते हैं, मैं आपके टच में रहूँगा ----" रवि ने चरण वंदना की और दोनों चलने को उदृत हुए |

"तो प्रज्ञा जी ध्यान दीजिएगा मेरे प्रस्ताव पर ----खूब कमाएंगीं --खी--खी " महाराज जाने कहाँ के महाराजा थे, पता नहीं प्रज्ञा को क्यों लगा उनके दाँत तोड़ डाले |

"जी, आप ज़रूर आएं ----" सेबी ने अपना मुख गोल सा घुमाकर हिंदी में उससे कहा |महाराज ने उसे पूरी ट्रेनिंग दी हुई थी |

प्रज्ञा ने कुछ उत्तर नहीं दिया और दोनों की ओर हाथ जोड़ दिए |

रास्ते में रवि ने प्रज्ञा से काफ़ी बात करने की कोशिश की लेकिन उसका उत्साह चूक गया था |

"थकान हो रही है रवि ----"

"बस, आपको जल्दी पहुँचाता हूँ घर ----"

शाम के चार बजे से अँधेरा घिरने लगा था और सड़कों पर स्ट्रीट-लाइट्स जल चुकी थीं, घरों के भीतर भी रोशनी होने लगी थी |

प्रज्ञा जीवन में पहली बार अकेले अपने पँख खोलकर उड़ी थी, एक नई छुअन से उसका मन रोमांचित था लेकिन अंत में सब गुड़गोबर हो गया | उसे लगा, पँखों को समेटना ही बेहतर है !

*****