Dasta e dard - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

दास्ताँ ए दर्द ! - 10

दास्ताँ ए दर्द !

10

खाना-पीना समाप्त हुआ, सब अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले | कुछ स्त्रियाँ अपनी गाड़ी से आईं थीं, अधिकांश को वही गाड़ी छोड़ने जा रही थी जो उन्हें लेकर आई थी | प्रज्ञा ने भी सबको धन्यवाद दिया और वापिस आने के लिए दीक्षा बहन की गाड़ी में बैठ गई | आई तो थी यहाँ कुछ जानने, समझने, कुछ बदलाव के लिए पर जो बदलाव उसे मिला उसमें वह और अधिक असहज हो गई | एक मानसिक गहराती बदली उसके मन में डेरा डालकर उमड़ घुमड़ करने लगी |

"क्या बात है, आप यहाँ आकर बहुत चुप हो गईं दीदी ? "दीक्षा ने उसे चुप देखकर पूछ ही तो लिया|

"नहीं, ऎसी कोई बात नहीं ---पर मन बहुत प्रसन्न नहीं हुआ, उनको एंटरटेन भी नहीं कर पाई | "

" हाँ, ये ऐसे ही करती है ---पता नहीं गीता क्यों उसे बुलाती है ---?"दीक्षा ने नाराज़गी भरे स्वर में कहा |

" ज़रूरत तो ऐसे लोगों को ही संभालने की ही है, जो ठीक हैं वो तो अपने आप ही संभले रहते हैं |' प्रज्ञा ने कहा, दीक्षा ने मुह टेढ़ा सा किया, इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया जैसे वह उसकी इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखती थी |

मिलन-स्थल की कई स्त्रियों ने प्रज्ञा को अपने फ़ोन नं दिए थे और उससे अनुरोध किया था कि भारत लौटने से पहले वह कम से कम एक बार तो उनसे मिलकर जाएगी ही | प्रज्ञा ने सोचा इस बार वह दीक्षा को परेशान नहीं करेगी, अकेली ही मिलने चली जाएगी | वैसे भी कई स्त्रियाँ रीता के घर के पास वाले 'ओल्ड-एज-होम' में रहती थीं |

दीक्षा उसे रीता के घर छोड़कर चली गई | न जाने क्यों प्रज्ञा के दिमाग़ से वह झल्लाती हुई स्त्री नहीं उतर रही थी | आसन जमाए बैठ ही तो गई थी उसके दिमाग़ की चौकी पर जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा या कोई सवेरे का दिखा सपना जो चिपका ही तो रहता है मन में पूरे दिन, कभी कभी कई दिनों तक भी , बामुश्किल उसे झटकना पड़ता है और बच्चे को मनाना पड़ता है | उसे लगा वह सच में एक बच्चा है जिसके बचपन को रौंद दिया गया है | अब वह एक ज़िद्दी बच्चे में तब्दील हो गया हैऔर खुद से ही रूठ गया है |प्रज्ञा को महसूस हो रहा था वह स्त्री मानो खुली आँखों किसी न किसी बुरे स्वप्न में साँसें लेती रही है |

रीता से बात होने पर पता चला वह उस महिला को कई वर्षों से जानती थी |उसका नाम सतवंत कौर है, सब उसे सत्ती कहते हैं | उसकी पूरी ज़िंदगी ही कठिन परीक्षा रही है | एक-दो बार उसने उसकी काफ़ी सहायता भी की थी --पर आदमी के भाग्य को तो कोई नहीं बदल सकता | जीवन की पीठ पर जितने कोड़े खाने लिखे हों, वो तो खाने ही पड़ते हैं |

प्रज्ञा ने उससे मिलने की इच्छा प्रगट की तो रीता ने कहा वह उसे यहीं बुला देगी| तय हो गया कि एक दिन समय मिलने पर रीता उसे लेकर अपने घर पर ही आ जाएगी |

" चली जाती है ऐसे वो किसीके घर पर ---?" प्रज्ञा जितना उसे उसके व्यवहार से पढ़ सकी थी, उसके लिहाज़ से उसे आश्चर्य ही हुआ रीता की बात सुनकर !

" हाँ, जहाँ उसे लगता है कि कोई मज़ाक नहीं उड़ाता , वहाँ चली जाती है ---"

"वैसे --इस मीटिंग में तो कोई मज़ाक नहीं बना रहा था, वो खुद ही झल्लाई सी बैठी थी|"

"नहीं दीदी ! लोग उसकी मज़ाक बनाते हैं, अब भाग्य तो कोई बदल नहीं सकता, भाग्य की मारी है बेचारी !" रीता के मन में उस महिला के लिए सहानुभूति दिखाई दे रही थी | उस स्त्री के बारे में प्रज्ञा को दीक्षा व रीता दोनों के विचार बिलकुल भिन्न दिखाई दिए |

प्रज्ञा ने रीता को वहाँ हुई घटना के बारे में बताया, दीक्षा के व्यवहार के बारे में बताया तब रीता ने कहा ;

"दीदी ! ये दुनिया की रीत है, अपने गिरेबान में कोई झाँककर देखना नहीं चाहता जैसे सब दूध के धुले हैं ---उसको सब बहुत पहले से जानते हैं, बहुत तकलीफ़ झेली है उसने !इतना इतराने की कोई ज़रुरत नहीं होती, न जाने किसके भाग्य में क्या लिखा है, भविष्य में किसीके जीवन का ऊँट किस करवट बैठता है, किसे पता ? " रीता सत्ती के बारे में कई बार घुमा-फिराकर यही बात कह चुकी थी |

प्रज्ञा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वह लौटते हुए दीक्षा का रुख देखते हुए उसकी बातें ही सुनती रही थी | उसने सब बातें रीता से शेयर कीं, उसे बताया था कि उनका परिवार पहले नैरोबी में रहता था, बाद में वे सब इंग्लैण्ड आ गए | उनके दो बेटे हैं, एक की शादी हो गई है पर दूसरे की शादी हो ही नहीं रही |

" भगवान की कृपा कि एक बेटा तो बस गया, दूसरे के लिए तो वो जाने क्या-क्या कर रही हैं !"

"हाँ, कुछ ऐसे कह रही थीं कि दूसरे बेटे की शादी हो जाए दीदी, बस आप आशीर्वाद दीजिये | " रीता के चेहरे पर मुस्कान थी ;

"वैसे ग़लत बात है, किसी पर हँसना ठीक तो नहीं है दीदी --पर सबको समझने की ज़रुरत है न कि जाने कब ?किसकी?कैसी?परिस्थिति हो जाए----पता नहीं क्यों किसीके बारे में बेकार ही बातें करती रहती हैं | "

"कुछ ख़ास बात है क्या ?"प्रज्ञा की उत्सुकता बढ़ना स्वाभाविक थी |

"दीदी !दीक्षा अपने बेटे की शादी करवाने हर बार पँजाब, होशियारपुर पहुँच जाती हैं, शादी करवाकर बहू को घर में ले आती हैं पर जैसे ही उसे यहाँ की नागरिकता मिलती है, वह इनके बेटे को छोड़कर तलाक़ ले लेती है, वह फिर अकेला रह जाता है ---"

"यह तो नहीं बताया उन्होंने मुझे ---"

"कोई अपनी कमियाँ बताता है क्या ? आप भी दीदी, इतनी पढ़-लिखकर भी जीवन की बातों से मीलों दूर ही रहती हैं --"रीता ने बहुत अपनत्व सेा मुस्कुराकर उसके अनाड़ीपन पर मुहर लगा दी |

"नहीं, मुझे समझ में नहीं आया, दीक्षा के पति का कंस्ट्रक्शन का इतना बड़ा बिज़नेस है, खूब पैसा है --उस दिन जब वो मुझे अपने घर ले गईं थीं, उनके बेटे-बहू से व दूसरे बेटे से भी मुलाक़ात हुई थी, अच्छा, सुंदर लड़का है --फिर क्यों?"

"शादी के लायक तो हो --पैसा ही सब-कुछ होता है क्या, कुछ और भी ज़रूरतें होती हैं ?"

दो मिनट लगे प्रज्ञा को उसकी बात समझने में, फिर समझ में आई तो उसने कहा ;

"ये तो बताया नहीं उन्होंने मुझे ---"

"हाँ, कैसे बतातीं ----उनके लिए भी अफ़सोस होता है ---पर किसी की मज़ाक बनाना भी तो ठीक नहीं है न ! मैं तो बस---यह कहना चाहती हूँ -- " प्रज्ञा की समझ में कहानी उलझ रही थी |

"दीदी ! ज़िंदगी कब ? किसकी कहानी में क्या मोड़ लाती है, इंसान को दूसरे के लिए भी तो सोच-समझकर बोलना चाहिए | "

वैसे तो दीक्षा को प्रज्ञा ने रीता के पास ख़ूब आते-जाते देखा था पर उस बात को सुनकर उसे लगा कि किसीके बारे में बेबात मन में कुंठा बना लेना ठीक नहीं है |

प्रज्ञा के मन में उस अनजान स्त्री के प्रति उत्सुकता और भी गहरी हो उठी | उसे लग तो रहा था, कुछ तो ऐसा है जो उसके लेखक को उस स्त्री के अंतर को पढ़ने के लिए विवश कर रहा है |केवल सुनी-सुनाई बातों से कपोल-कल्पित लेखन का कोई औचित्य नहीं था |

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