Dasta e dard - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

दास्ताँ ए दर्द ! - 7

दास्ताँ ए दर्द !

7

इस बार प्रज्ञा अप्रेल माह के अंत में इंग्लैण्ड पहुँची थी, उसे आश्चर्य हुआ लंबे, नंगे पेड़ों को देखकर जो रीता ने बताया था, जिन्होंने हाल ही में अपने वस्त्र उतार फेंके थे, बिलकुल निर्वस्त्र हो गए थे लेकिन बगीचे में अनेक जातियों के रंग-बिरंगे फूल मुस्कुरा रहे थे | बगीचे को घेरती हुई एक फैंसिंग बनाई गई थी जिसके पीछे लंबे-लंबे पेड़ थे | इतनी दूरी से वह केवल उन वस्त्रविहीन पेड़ों को देख पा रही थी, इससे अधिक कुछ नहीं |इस बार वह तीन माह यहाँ रही और इन तीन महीनों में उसने लंदन के कई रंग देखे, कई लोगों से उसका परिचय हुआ |

एक छुट्टी के दिन देव यानि रीता के पति ने उसे शेक्सपीयर की जन्मभूमि पर ले जाने का कार्यक्रम बनाया, उसका मन ख़ुश हो गया | वह सप्ताह शेक्सपीयर के जन्म का सप्ताह था |पता चला शैक्सपीयर के जन्म के सप्ताह में पूरा सप्ताह एक उत्सव की तरह मनाया जाता है, यूँ तो साहित्य-प्रेमी लोग महीना भर साहित्यकार के नाटकों का मंचन करते हैं किन्तु सप्ताह भर तो जैसे रौनकें लगी रहती हैं| एक शनिवार के दिन सुबह-सवेरे ही देव ने सबको तैयार होने का अल्टीमेटम दे दिया था |

"ज़्यादा देर मत करना, आजकल भीड़ बहुत होगी ---" देव ने कहा और सब आठ बजे तैयार !

काफ़ी घूमी-फिरी थी किन्तु यह अवसर नायाब था | अपने पसंददीदा लेखक जिसको, उसने अपने एम.ए के कोर्स में चाट डाला था उस शेक्सपीयर के जन्मस्थान पर जाने का उत्साह उसके मन में देखते ही बनता था |

रीता के निवास से स्ट्रेटफ़ोर्ड की लगभग ढ़ाई घंटे की ड्राइव रही | अन्य शहरों जैसी ही साफ़-शफ़्फ़ाक़ सड़कें !जगह-जगह दिशा-निर्देश के होर्डिंग्स लगे थे | वैसे देव मैप लेकर चलते थे अपने साथ, उन दिनों 'जी. पी. एस' का प्रचलन नहीं हुआ था | गाड़ी से उतरकर काफ़ी दूर इसलिए भी चलना पड़ा कि सब रास्ते की गहमागहमी का आनंद लेना चाहते थे | वह अपने प्रिय साहित्यकार की जन्मभूमि पर चल रही थी और बहुत उत्साह में भरी हुई थी | अचानक प्रज्ञा को अपनी नानी की याद हो आई | जब वह छोटी थी और किसी बात से अधिक उत्साहित हो जाती थी तब उसकी नानी कह बैठती थीं ---

"ऐसे नाच रही हो जैसे लंदन जाना हो ----कितना नुकसान किया मरों ने --" पता नहीं लंदन को क्या समझा जाता था ? हाँ, इसका कारण यह भी हो सकता था कि उसकी नानी ने अंग्रेज़ों का राज देखा था | पहले अँग्रेज़ दोस्तों से घिरे रहते थे नाना जी लेकिन बाद में स्वतंत्रता -संग्राम का जोश उनकी धमनियों में भी बहने लगा था और उन्होंने भी झंडा उठा लिया था | नानी ने पति को अँग्रेज़ों के विरुद्ध झंडा उठाकर सड़क पर नारे लगाते हुए देखा था | लेकिन यह बाद की बात है, पहले तो प्रज्ञा के नाना जी ने कितने अंग्रेज़ दोस्त बना रखे थे | उनके साथ वे नानी को भी अंग्रेज़ी फ़िल्में दिखाने ले जाते |

पर्दे में रहने वाली नानी को उनकी चाल-ढाल पसंद नहीं आती थी, गोरी मेमें अपने पतियों के साथ कैसे लिपटी रहती थीं | बेशर्म कहीं की ! वो आज भी उनकी याद से मुक्त नहीं हो पाईं थीं शायद इसीलिए बिना देखे ही लंदन उनकी स्मृति का हिस्सा बन गया था | प्रज्ञा की कभी समझ में नहीं आया कि नानी इस प्रकार क्यों रिमार्क करती थीं, अब तो नानी व नाना जी थे नहीं जो वह उनसे कुछ पूछ सकती |

सड़क पर चलते चलते प्रज्ञा को नानी का सुनाया एक किस्सा याद आया | नाना जी उन दिनों दिल्ली में रहते थे, खूब बड़े व्यापारी ! बहुत से अँग्रेज़ उनके मित्र बन गए थे | वो हमेशा नानी को अपनेअँग्रेज़ मित्रों व उनकी पत्नियों के साथ अँग्रेज़ी फिल्म देखने के लिए चलने को बाध्य करते | नानी को अपने पति के मित्रों का रहन-सहन, खाना-पीना गले नहीं उतरता था |

एक बार नाना जी के साथ फिल्म देखने जाने के लिए नानी के मना करने पर नाना जी ख़ुरकी लेकर ज़ीने में तेज़ करने बैठ गए थे कि उनकी पत्नी उनका कहना नहीं मानती है तो वो जीकर क्या करेंगे ? नानी घबरा गईं, पति-पत्नी में खूब तुक्का-फ़जीती हुई और नानी जी को झख मारकर नाना जी व उनके दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाना ही पड़ा |

"कहाँ खो गईं दीदी ?" रीता ने पूछा तो उसका ध्यान भंग हुआ और अपने मन की पिछली गली से निकलकर वह स्टैर्फोर्ड की सड़कों पर चारों ओर देखती हुई चलने लगी थी |

झील पर काफ़ी लोग दिखाई दे रहे थे जैसे परिवार के साथ पिकनिक मनाने आए हों | उनके हाथों में खाने के पैकेट्स थे, वेफर्स, चॉकलेट्स या रोल जैसे | कुछ ने छोटे बच्चों को प्रैम में ले रखा था, बड़े बच्चे की ऊँगली पकड़े वे उन्हें झील के पारदर्शी स्वच्छ पानी में तैरती बत्तखों का नज़ारा दिखा रहे थे | पूरा वातावरण आनंदमय लग रहा था |

"आंटी ! आप देखते चलिए सब नज़ारे --ये फिर देखने को नहीं मिलेगा आपको ---"

वह मुस्कुरा दी, सच ही तो कह रही थी रीता की बिटिया ! प्रज्ञा अपने मन में बसी पुरानी याद को वर्तमान से जोड़ने का प्रयास करने लगी | उस दिन वास्तव में वह वहाँ के वातावरण से बहुत प्रभावित हुई और उसे अपने देश के वे साहित्यकार याद आने लगे जो अधिकाँश ताउम्र बेचारगी की तहों में लिपटे रहे थे| आज भी उनके जन्मस्थानों व उनकी स्मृति-स्थल की स्थिति कोई बहुत बढ़िया तो थी नहीं, अफ़सोस ही होता था उन्हें देखकर ! जो साहित्यकार न केवल अपनी वरन् पूरे समाज की पीड़ा अपने भीतर उतारकर एक दिशा -निर्देश देने का काम ताउम्र करते रहे , उनकी दशा उनके साँसें लेते और छोड़ देने पर भी वहीं की वहीं रही थी |

प्रज्ञा अचानक चौंक सी गई, उसके सामने काले कपड़ों में लिपटे शेक्सपियर खड़े थे | सच कहे तो वह आँखें पटपटाना भूल ही गई थी |

रीता का बेटा आकाश जितना सीधा, सरल व चुप था उसकी बिटिया रिंसी उतनी ही चुलबुली थी ;

" आपको शेक्सपियर से मिलवाऊँ आँटी ---?" और वह उस लंबे-चौड़े, काले कपड़ों में सज्जित गोरे आदमी के पास पहुँच गई | पीछे-पीछे सब चल रहे थे और वह उस आदमी से हाथ मिला रही थी तो कभी उसकी ओर 'लात घुमा रही थी | प्रज्ञा को यह समझने में काफ़ी देर लगी कि जैसे उसके भारत में देवी-देवताओं का स्वाँग रचा जाता है, यहाँ पर भी ऐसे ही स्वाँग और तमाशे होते हैं |

नज़दीक जाकर पता चला, नीचे ज़मीन पर एक काफ़ी बड़ा काला कपड़ा बिछा हुआ था जिस पर लोग सिक्के फेंक रहे थे | ओह ! वास्तव में वह आदमी शेक्सपीयर का स्वाँग भरकर भीख माँग रहा था |ऐसे ही उसने एक युवा, खूबसूरत अँग्रेज़ लड़के को गिटार बजाकर भीख मांगते देखा था |कहने को यहाँ सरकार सब बेरोज़गारों का ध्यान रखती है पर छोटे पैमाने पर ही सही माँगने का चलन तो वहाँ भी था ही | उनका माँगना ज़रा सोफेस्टिकेटेड था जो बाहर से गए लोगों को शायद कुछ देर से समझ में आता था |

प्रज्ञा व अन्य सब भी रिंसी के पीछे-पीछे बहुरूपिए के पास पहुँच गए थे | प्रज्ञा ने उससे कुछ बात करने की कोशिश की किन्तु उसे शेक्सपीयर के बारे में कुछ अधिक ज्ञान नहीं था, वह तो बस साहित्यकार के नाम को भुना रहा था |

कितनी अजीब है ज़िन्दगी भी ! पर मानस -जात तो सब जगह एकसी ही होगी न ! उसे तो यह पहली बार पता चला कि यहाँ भी भीख का चलन हो सकता है | रास्ते में आते हुए देव ने एक छोटा सा झरना जैसा दिखाया था, जिसमें लोग सिक्के उछाल रहे थे | देव ने बताया था जैसे भारत में नदियों में सिक्के फेंके जाते हैं, यहाँ भी लोग अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए सिक्के फेंकते हैं |

सच ! आदमी की जात सब जगह एक सी है ! पता नहीं वह क्यों इस वास्तविकता को समझने में देर लगाती है ? उसके चेहरे पर असमंजस भरी मुस्कुराहट आ गई |

शेक्सपियर का म्यूज़ियम देखकर प्रज्ञा का मन अभिभूत हो गया | कितनी सार-सँभाल की गई थी | साहित्यकार के पूरे जीवन की उपलब्धियों के साथ बालपन से लेकर जीवन के अंतिम चरण तक की बहुत सुन्दर तस्वीरें जो सुंदर फ्रेमों में मढ़ी हुईं थीं, एक बड़े से स्थान में तरतीबवार सजाकर रख दी गईं थीं | म्यूज़ियम के बाहर मुस्कुराते फूलों का सुन्दर बगीचा सकारात्मक ऊर्जा से भरा-भरा था | प्रवेश-द्वार पर भी विभिन्न रंग-बिरंगे मुस्कुराते फूलों की कतारें ! उसे महसूस हुआ, उन सबके बीच शेक्सपीयर मुस्कुरा रहे हैं |

प्रज्ञा को अपनी छात्रावस्था के समय के बहुत से प्रकरणों की, अपने अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर डॉ.रूद्रप्रकाश मिश्र की याद आ गई | कितना तल्लीन होकर नाटक पढ़ाते थे, छात्रों से भी संवाद बुलवाते और हमेशा कहते ;

" किसी भी साहित्यकार को जानने, समझने के लिए उसके साहित्य में रमने की ज़रुरत होती है " उन दिनों उसके कॉलेज में गाँव से आने वाले जाट लड़के इसलिए अंग्रेज़ी में प्रवेश लेते थे कि उन्हें प्रशंसा की नज़र से देखा जाए और उन पर लड़कियाँ अधिक ध्यान दें | ख़ैर'इस बात को भी ज़माने बीत चुके हैं |

प्रज्ञा के मन को एक मीठी छुअन जैसे कोई पुरवाई छू गई हो। कुछ ऐसा सा अहसास जैसे वह साहित्याकाश में विचरण कर रही हो | ज़मीन पुकार रही थी साहित्यकार को, आसमान से एक चुटकी भर स्मृति की राख़ झरकर नहला रही थी उसे | साहित्य, अमरता का वह दिव्य रूप जो जाने के बाद अपने पीछे ढेरों छुअन छोड़ गया था | वह वहाँ जिस चीज़ को भी छूती, उसमें जैसे शेक्सपीयर के स्पर्श का अहसास होता | उस स्थान पर उसे साहित्यकार के भिन्न-भिन्न नाटकों के न जाने कितने किरदार मिलने आ गए और वह उनके साथ वार्तालाप में मशगूल होने लगी |

अंदर ही एक छोटे बगीचे को पार करके कुछ दुकानें जैसी थीं | जहाँ पर छुट-पुट सामान बिक रहा था |प्रज्ञा ने कुछ रबर, पेंसिलें, कुछ छोटे-मोटे ऐंटीक खरीदे | मन में कुछ चल रहा था जैसे --इतने बड़े लेखक की स्मृति में बनी दुकान से कुछ खरीद पाना, उसका अहोभाग्य ! जानती थी दुकान केवल व्यवसाय की दृष्टि से खोली गई है किन्तु वाह ! क्या बात है ! उसका मन हिलोरें ले रहा था | एक नन्ही सी बहुत पुराने ज़माने की डिबिया और एक मैटल की छोटी सी केतली भी खरीदी उसने जो काफ़ी मंहगी थी | ऐंटीक जो थी, उसका ढक्क्न था ही नहीं | वह ढक्क्न विहीन केटली इतनी सुन्दर लग रही थी कि उसकी जेब के अनुपात से काफ़ी मंहगी होने पर भी और रीता व देव के समझाने पर भी उसने वह खरीद ही ली | शेक्सपीयर की ज़मीन से खरीदने का उल्लास उसके चेहरे पर खिला पड़ रहा था |

रिंसी और आकाश ने फ़ोटो सैशन भी किया, झील पर बनी दुकानों और रंग-बिरंगी लाल-सफ़ेद पट्टियों के शेड से ढके ठेलों पर कई खाद्य-पदार्थ थे, देव ने उनका रसास्वादन भी करवाया | एक ठेला भारतीय चाट का था, देव ने ज़िद की कि वहाँ की चाट चखनी तो चाहिए ही | सो, दही-बड़े का स्वाद भी लिया गया | उस ठेले का मालिक शायद कोई गोरा था पर जो चाट परोस रहा था, वह कोई एशियन ही था | प्रज्ञा को भारत की चाट सा मज़ा नहीं आया पर देव का मन रखने के लिए उसने उस फीकी सी चाट का लुत्फ़ भी लिया |

सारांश में वह दिन प्रज्ञा के जीवन का एक खूबसूरत दिन था जिसकी ख़ूबसूरत यादों ने हमेशा के लिए उसके भीतर स्मृतियों का बीज बो दिया था, वह जानती थी, उसके मन में वह बीज फलेगा, फूलेगा और कभी भी उसके मन के बगीचे को अपनी सुगंध से सराबोर करता रहेगा| उसके भीतर का आँगन और बहुत सी यादों के साथ अब इस बहुमूल्य स्मृति से भी सज गया था | पूरे रास्ते शेक्सपीयर के शिशु का गुलाबी खूबसूरत जालीदार पालना उसकी आँखों में भरा रहा जिसमें एक बहुत खूबसूरत गुलाब की कली सी गुड़िया को सुलाया गया था, लग रहा था मानो एक खूबसूरत गुलाबी, कोमल, नन्हा बच्चा झूले में सो रहा है | वह कहीं से भी एक गुड़िया न लगकर जीता-जागता कोमल शिशु लग रहा था |

एक दूसरे छोटे से कमरे में लंबी पट्टीदार डाइनिंग टेबल और दोनों ओर कुर्सियों की जगह लंबी बैंचें रख दी गईं थीं, एक कोने में चूल्हे में आग सुलग रही थी जो यह भ्रम पैदा करती कि अभी कोई आकर यहाँ खाना बनाने वाला है और लंबी बैंचें जैसे खाने वालों के इंतज़ार में आँखें बिछाए थीं |

कुल मिलाकर शेक्सपीयर की ज़मीन उसके दिलोदिमाग़ में बस गई थी और वह वापिस लौटते हुए भी वही सब उल्लासपूर्ण अहसास महसूस कर रही थी | थकान से सब भर चुके थे सो बातें भी कम हो रही थीं पर उसके पास तो आँखों में भरे वो खूबसूरत नज़ारे थे जो अनमोल थे और बंद आँखों से वह पूरे रास्ते उन्हीं के साथ बातें करती आई थी |

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