दास्ताँ ए दर्द ! - 8 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दास्ताँ ए दर्द ! - 8

दास्ताँ ए दर्द !

8

दीक्षा उसे शहर की एक लायब्रेरी में ले गईं थीं जहाँ उसकी मुलाक़ात एक कैनेडियन स्त्री सोफ़ी से हुई जो वहाँ की 'हैड लायब्रेरियन 'थी | बाद में जब भी अनुकूलता होती वह अपने आप लायब्रेरी में जाने लगी, उसकी वहाँ और भी स्टाफ़ के कई लोगों से दोस्ती हो गई थी |

" सी, इज़ इट यू ?"मैकी जैक भी लायब्रेरी में काम करती थी | उसके हाथ में एक हिंदी की पत्रिका थी जिस पर प्रज्ञा की तस्वीर थी |

"ओ ! यस ---वेयर डिड यू फ़ाइन्ड?"प्रज्ञा को अपनी पत्रिका वहाँ देखकर खुशी होनी स्वाभाविक थी |

"इन द मैगज़ीन सैक्शन ----"

मैकी , सोफ़ी या वहाँ का स्टाफ़ हिंदी पढ़ना नहीं जानता था किंतु हिंदी भाषी पाठक लायब्रेरी में आते थे जिसका प्रमाण उसके सामने रखी हुईं कई हिंदी की पत्रिकाएं थीं |प्रज्ञा का चेहरा खिल उठा और उसने मैकी को धन्यवाद देकर पत्रिका में अपनी छपी कहानी पढ़नी शुरू कर दी जिसमें उसका धारावाहिक कई माह से चल रहा था और वह सोचती थी कि अब इंडिया जाकर ही अपने धारावाहिक के दर्शन कर सकेगी |

कम से कम उसके लिए तो यह चमत्कार ही था इस प्रकार से विदेश में अचानक हिंदी -पत्रिका मिलना, उसमें भी वह जिसमें उसका धारावाहिक छप रहा था | वह प्रफुल्लित हो उठी फिर तो उसने समय मिलते ही लायब्रेरी में लगातार जाना शुरू कर दिया था और वहाँ के लगभग सभी कर्मचारियों से उसका ख़ासा परिचय भी हो गया था |

" मैम ! डू यू राइट इन इंग्लिश आलसो ---" एक दिन सोफ़ी ने उसके करीब आकर पूछा जब वह हिंदी सैक्शन में नई आई हुई पत्रिका उलट-पलट रही थी |

प्रज्ञा ने अपने कॉलेज के जीवन में थोड़ा-बहुत अंग्रेज़ी में भी लिखा था किंतु उसके पास वो मैटर वहाँ तो नहीं था जो वह उन्हें दिखा सकती | वैसे भी अब प्रज्ञा पचास की लपेट में थी और पच्चीस साल की शादी में उसने कई वर्ष बाद हिंदी में पूरी तरह काम करना शुरू कर दिया था सो अंग्रेज़ी उससे और भी दूर होती चली गई थी ----? उसे बोलने व लिखने में कोई कठिनाई न होती, बस विचारों का काफ़िला उसके दिमाग़ में अपनी भाषा में ही चलता फिर उसका अनुवाद करना होता, कुछ ख़ास मज़ा नहीं आता था जैसा मज़ा हिंदी लिखने में आता |

"आई डिड ---बट --दिस मोमेंट आई हैव नथिंग ----"

"इफ़ यू ट्राई .यू कैन, प्लीज़ राइट फॉर अवर मैगेज़ीन |वी पब्लिश मंथली मैगेज़ीन फॉर लेडीज़|"

प्रज्ञा को कम्प्यूटर का 'क' तक न आता, उसने उन्हें बताया कि वह हाथ से लिखती है, दो-चार दिनों बाद कुछ लिखकर लाने की कोशिश करेगी |

सोफ़ी को आश्चर्य हुआ कि कम्प्यूटर के ज़माने में भी लोग हाथ से लिखने की मशक्क़त करते हैं | उसने प्रज्ञा को समझाने की कोशिश की कि यदि वह कम्प्यूटर पर लिखना शुरू करेगी तो उसे बड़ी आसानी हो जाएगी | सोफ़ी ने उसका 'ईमेल आई डी' बना दिया जिसके लिए उसने प्रज्ञा से कई बातें पूछीं | जैसे उसकी जन्मतारीख़, पास वर्ड क्या रखना चाहेगी ---और भी कई बातें | सोफ़ी ने उसे हिदायत भी दी कि वह अपना पास-वर्ड किसीको न दे और अच्छी प्रकार से याद कर ले |

प्रज्ञा को ज़रा भी भरोसा नहीं था अपने पर कि वह कम्प्यूटर पर काम कर सकती है पर जब सोफ़ी के बार-बार कहने पर उसने लिखने की कोशिश की तो उसकी आँखें खुशी से भर उठीं और उसके मन को बहुत बड़ा बल मिला |सच ही तो कहते हैं लोग --जहाँ चाह, वहाँ राह !

प्रज्ञा अपनी इस नई तरक्क़ी से बहुत खुश थी, उसने रीता के घर पर रखे कम्प्यूटर पर प्रैक्टिस करनी शुरू की और यह देखकर उसे बहुत मज़ा आया कि वह बेशक काफ़ी धीरे ही सही पर टाइप करके अपना काम कर सकती है |

फिर तो लायब्रेरी के लोगों के अनुग्रह पर प्रज्ञा को अंग्रेज़ी में कविताएं लिखनी ही पड़ीं | जबकि उसे उसके लिए काफ़ी मशक्क़त करनी पड़ी लेकिन वह नई चीज़ सीखने पर खुश थी, वहाँ के लोग खुश थे | दीक्षा बहन भी खुश थीं, गर्व कर रही थीं कि उन्होंने लायब्रेरी को एक लेखिका मुहैय्या करवाई थी |

प्रज्ञा वैसे तो यहाँ पर ख़ाली ही थी | अत: जब कभी अकेली होती पुस्तकालय में चली जाती | वहाँ की बस का रुट भी उसे पता चल गया था | कभी कभी पैदल चलना उसे अच्छा लगता, एक जुड़ने का अहसास सा उसे काफ़ी दूर पैदल चलने पर मज़बूर करता | दो-तीन स्टैंड्स के बाद वह बस लेती |

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