कभी अलविदा न कहना - 21 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 21

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

21

वह रात बहुत लम्बी थी और कुछ हद तक स्याह भी... अनिता के लिए बात रुकने के साथ रात भी रुक गयी थी। हम चाहते थे कि इस रात की सहर जल्द ही हो। रेखा खुश थी और सपनों में खोयी थी... जागती आँखों के हसीन सपने थे वे... भोर का उजाला उसे साफ दिख रहा था और मैं... मैं सुनील की लिखी पँक्तियों में अपनी सुबह तलाश रही थी... मेरे लिए पौ फटना शुरू हो गयी थी। उगते सूर्य की लालिमा रात्रि के गहन तिमिर में भी मेरे चेहरे पर झलक रही थी। कितनी विचित्र स्थिति में थीं हम तीनों सहेलियाँ.. एक ही मुद्दे पर सर्वथा भिन्न जिंदगी को जीती हुई... साथ में किन्तु अलग अलग... खुशी और गम की मिली जुली स्थिति थी वह। रेखा आश्वस्त थी अपनी जिंदगी विजय के साथ बिताने के लिए और हम सब ये बात जानते थे, अनिता आशंकित थी निखिल को लेकर और ये बात भी हम सब जानते थे। मैं आशान्वित थी सुनील और मेरी जिंदगी को लेकर किन्तु ये बात सिर्फ मैं जानती थी, रेखा और अनिता इस बात से अनभिज्ञ थीं। कभी कभी हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है। आज की पार्टी का मुख्य प्रयोजन निखिल सर के जन्मदिन को अनिता और निखिल के प्रपोजल डे के रूप में तब्दील करना था, जो नहीं हो पाया था। सुनील की अनायास उपस्थिति ने और फिर अंकुश के जिक्र ने मेरे मन में जरूर उम्मीद की किरण जगा दी थी। उस रात हम तीनों एक साथ होकर भी अपनी अपनी खोल में सिमटे हुए सुबह का इंतज़ार कर रहे थे। उस रोज हमारी नींद कहीं खो गयी थी, हम नहीं सोये थे, किन्तु रात थक कर सो गयी थी।

वह सुबह भी उदास सी थी। उसके बाद के दस दिन हमने गफलत में गुजारे थे। रेखा की जिंदगी चमकते सूर्य के समान दिख रही थी तो अनिता की जिंदगी के सूर्य पर काले घने बादल छा चुके थे और मुझे बादलों की ओट से कभी कभी सूर्य चमकता दिख जाता था।

वह राजपुर में सत्र का अंतिम दिन था। हम तीनों कॉलेज जाने से पहले ही ग्रीष्मावकाश में घर जाने की पैकिंग में व्यस्त थे।

"विशु! ये अशोक का क्या चक्कर है?" अचानक ही रेखा ने पूछ लिया।

"वो... मेरी... दीदी...के लिए.. आया था उसका रिश्ता..... उसने मुझे पसन्द कर लिया, क्योंकि.... वह भी कॉलेज में है... अब ये कोई बात है क्या...? इस वजह से क्या उससे शादी कर लूँ जबकि मुझे......." मैं रुक रुक कर बोली, फिर भी बोलते बोलते रुक गयी।

"बिल्कुल सही... जब तुम्हें सुनील पसन्द है तो अशोक से शादी क्यों करोगी..."

"वही तो....." उफ्फ ये मैंने क्या कह दिया... रेखा ने अंधेरे में तीर चलाया जो निशाने पर लग गया था।

"ह्म्म्म... तो ये आँख मिचौली कब तक...?" रेखा ने भौंहे उठाते हुए मुझसे पूछा। "क्या सुनील इस बात को जानता है..?"

"शायद... हाँ... या पता नहीं" मैंने गोलमोल जवाब दिया.. "हमारी इस बारे में कभी बात ही नहीं हुई।"

"वह भी तुझमें इंटरेस्टेड है... मैं तो उसकी बॉडी लैंग्वेज से ही समझ गयी थी जब अंकुश के जिक्र से वह चौंक गया था।" अनिता भी अब इस बात में शामिल हो गयी थी।

"मतलब तुम दोनों ये बात जानती थीं, मुझे लगा कि..."

"क्या लगा तुझे..? हम्म.. कि तू नहीं बताएगी तो हमें पता नहीं चलेगा...? हम तो इंतज़ार कर रहे थे तेरे मुँह खोलने का, किन्तु तूने बोला ही नहीं, इसलिए आज हमने ही पूछ लिया..." रेखा ने मेरी बात काटते हुए कहा।

"मैं खुद ही अभी तक अनजान हूँ, तो तुम्हें कैसे बताती और क्या बताती...?"

"कैसे और क्या छोड़... क्यों का जवाब सुन... इसलिए बताना था कि हम तेरी मदद कर पाते... अब छुट्टियों में तो तुझसे कुछ होगा नहीं... अब तेरी और अनिता की किस्मत का फैसला जुलाई में ही होगा।" रेखा ने विराम तो बात को दिया, किन्तु मुझे लगा कि प्रसंग को ही विराम दे दिया हो, अतः तुरन्त ही बोल पड़ी... "सुनील और मैं एक ही शहर में रहते हैं, हो सकता है कि छुट्टियों में मुलाकात हो जाए।"

"ह्म्म्म, मैं भी तेरे ही शहर में हूँ, भूल मत जाना... हाँ मुझे जरूर इंतज़ार करना पड़ेगा।" अनिता की आवाज़ का दर्द हम दोनों ने महसूस किया था।

पिछले दस दिनों में मुझे घर की ज्यादा याद नहीं आयी थी, किन्तु आज मन कर रहा था कि काश मेरे पंख होते तो तुरन्त उड़ कर पहुँच जाती। अब कुछ घण्टे ही शेष थे, पर यह समय बहुत लम्बा प्रतीत हो रहा था। कॉलेज में भी रोज से अलग माहौल था। लास्ट वर्किंग डे के रजिस्टर पर हस्ताक्षर हो चुके थे। सब एक दूसरे को विदा देते हुए अवकाश का कार्यक्रम पूछ रहे थे। सीनियर प्रोफेसर्स अपने परिवार के साथ भ्रमण पर जाने वाले थे तो कुछ नए अपने गृहनगर में तबादले के जुगाड़ में थे। मुझे घर जाने की खुशी के साथ एक अजीब तरह की रिक्तता भी महसूस हो रही थी। मैं कॉलेज को, इस शहर को अगले दो महीने बहुत मिस करने वाली थी। मानव मन की एक और अनुभूति से गुजर रही थी मैं.. हर लम्हा आँखों से पीती हुई सोच रही थी कि अप्राप्य को पाने की लालसा में प्राप्य की उपेक्षा क्यों करते हैं हम..?

"हैप्पी वेकेशन... जुलाई में मिलते हैं.." निखिल सर सामने खड़े थे।

"सैम टू यू सर... एन्जॉय वेकेशन... और हाँ मेरी बात याद रखना.." सर की आँखों में उभरता प्रश्न अनिता को देखते ही दुबक गया। वे मेरा इशारा समझ चुके थे।

"बाई अनिता... टेक केअर... विल मिस यू...."

"मिस यू टू... बाई.." अनिता की आँखों में फिर जुगनू चमक उठे थे। निखिल के शब्द 'मिस यू' उसे फिर आशा की ओर धकेल रहे थे। उसे दो महीने के लिए संजीवनी मिल चुकी थी। विजय भी हॉफ डे लेकर रेखा को सी ऑफ करने आया था। बस स्टैंड पर छायी उदासी को छोड़कर हम अपने अपने घर की ओर प्रस्थान कर चुके थे।

घर पहुँचते ही मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। अंशु ने जो खबर सुनाई, मैं खुशी से उछल पड़ी.... "इतनी बड़ी बात, मुझे पहले क्यों नहीं बतायी?" मैंने कृत्रिम गुस्से से कहा।

"आप इस बार कितने दिनों बाद घर आयी हो और फोन पर बताती तो आपके चेहरे के भाव कैसे देख पाती।" अंशु भी सही थी। मैं तुरन्त ही ताईजी के कमरे की ओर दौड़ पड़ी... अलका दी को बधाई देने, आखिर अगले महीने उनकी शादी की तारीख जो तय हो गयी थी। कमरे के अंदर से आती फुसफुसाहट ने मुझे दरवाजे पर ही जड़ कर दिया.... "सुन अक्कू! किसी को भनक नहीं लगनी चाहिए कि दीपक के बारे में मुझे पता चल गया था... न ही कंगन चोरी की बाबत मुझे कुछ जानकारी है... ठीक है, अब यह बात यहीं भूल जाना, कभी गलती से भी जिक्र मत करना...."

उफ्फ... इतना बड़ा झूठ... ताईजी सबकुछ जान चुकी थीं, फिर भी... उस दिन हॉस्पिटल के रूम से बाहर निकली अलका दी की निश्चिंतता का राज मुझे अब पता चला था... अनजाने में ही....!

"अरे! विशु तू कब आयी, मैं तेरा ही रस्ता देख रही थी।" अलका दी की आवाज़ सुन मैंने कमरे में प्रवेश कर उन्हें बधाई दी। जिस उत्साह से दौड़ी आयी थी, वह कहीं खो गया था। मैं फिर अतीत में पहुँच गयी थी।

"विशु! समय कम है और काम बहुत करने हैं, आज थकी हुई लग रही है, आराम कर ले, कल से जुटना है.. और हाँ ये तेरे जिजाजी का फोटो देख ले.." ताईजी ने ब्लाउज में हाथ डालकर उनका बटुआ निकाला, उसे खोला और एक फोटो मुझे दिखाया। मुझे कोफ्त होने लगी... महिलाओं का ये खुफिया पॉकेट मुझे कभी पसन्द नहीं था और अभी तो मूड भी ऑफ था.... "जियाजी का फोटो अलका दी को दो न, आप क्यों अपने दिल के पास रखे हो.." कहते हुए मैंने फोटो हाथ में लिया.... "हम्म हैं तो अच्छे, किन्तु अशोक जी से ज्यादा नहीं... दीदी इनका नाम, धाम और काम भी बताइए न..." मैंने फोटो अलका दी को देते हुए पूछा। अशोक का जिक्र मैंने जान बूझकर किया था।

"चल आ, बताती हूँ तुझे डिटेल्स.." दीदी मुझे खींचकर बाहर ले आयीं.... "सुन ये अजय है, पापाजी के दोस्त की बहन का बेटा... मम्मी की बीमारी का सुन अंकल देखने आये थे, तभी जिक्र हुआ और सब कुछ तय हो गया। इनकी मम्मी बीमार होकर बिस्तर पर हैं, पिताजी स्कूल में हेड मास्टर हैं और ये वेयर हाउस में.. बात करने में भी अच्छे हैं... शादी की जल्दी है ताकि माँ बहू को देख सकें, बस.... और हाँ.... अशोक को तेरे लिए छोड़ दिया है मैंने..." दीदी कटाक्ष करना नहीं भूलीं। मैंने समझदारी दिखाते हुए कहा... "मेरी या अशोक की चिंता छोड़िए दी, अब आप अजय जीजू की सोचिए और पुरानी बातें भूलकर नयी जिंदगी शुरू करिए... मैं आपके लिये बहुत खुश हूँ।"

एक महीना शादी की तैयारियों में गुजर गया। दीदी की बिदाई के बाद हम सब बैठे थे... अनिल भैया, अंशु, अंकु, अशोक जी, सुनील और अनिता भी... अनिल भैया को पहली बार रोते हुए देखा था। "दीदी तू हँसते हुए ससुराल जाना, मैं भैया जैसे नहीं रो सकता।" अंकु ने वातावरण हल्का करने की कोशिश की।

"पहले दूल्हा तो चुनिए... फिर बिदा की बात करना।" ये कहते हुए अनिता की नजरें सुनील पर थीं और अशोक की अनिता के चेहरे पर...! मैंने उन दोनों के चेहरे का रंग बदलते देखा... अंशु भी उत्साहित हो गयी... "हाँ दीदी अब जल्दी से हाँ करिए और बताइए कि मेरा जीजू कौन बनेगा?"

"अपनी दीदी का दिल देख ले किसके हस्ताक्षर हैं उस पर..." अनिता ने फिर सुनील की ओर देखकर कहा।

अंशु ये सुनकर चहक उठी..."क्या सच में.…... दीदी आपने बताया भी नहीं.... कौन है वह खुशनसीब जिसकी कलम हमारी दी के दिल पर चली है..?"

"हाँ हाँ हमे भी पता चले कि हमारी नज़रों के सामने क्या गुल खिल रहे हैं.." अशोक ने भरसक सहज रहने की कोशिश करते हुए कहा। उनके दर्द से मेरी आँखें भीग गयीं... दी विदा हुई थी, तो किसी ने अन्यथा नहीं लिया। 'हे ईश्वर! अशोक जी को हर खुशी देना..' मैंने मन ही मन प्रार्थना की। सुनील के चेहरे पर मिश्रित भाव थे। वह काफी असहज दिख रहा था। हमारा इजहार ए इश्क हुआ नहीं था और चर्चा शहर में फैल गयी थी। हमारी स्थिति कुछ इस तरह की थी...

'न जी भरके देखा न कुछ बात की

बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की...'

"सुनील बेटा तुमने शादी में बहुत काम संभाला है, जरा एक मिनट और इधर आना..." ताऊजी सुनील को ले गए। घर में अघोषित रूप से अशोक को दामाद का दर्जा दिया जा रहा था और सुनील एक बेटे की तरह जिम्मेदारी निभा रहा था। हमारी बात से अशोक को शायद संकेत मिल चुका था कि दिल्ली अब दूर है।

अगला महीना भी कुछ यूँ ही सा गुजर गया। घर में अलका दी की शादी और अंकु के कॉलेज एडमिशन की बातों के बीच एक नयी बात भी होने लगी थी... अनिल भैया के लिए लड़की की तलाश…. ताईजी को अनिता पसन्द आ गयी थी।

"भैया इलेक्ट्रॉनिक सेक्टर में हैं, उन्हें पुणे में ही रहना है और अनिता का फील्ड अलग है, वह यहाँ की सरकारी नौकरी नहीं छोड़ेगी ताईजी... भैया के लिए कोई और लड़की देखिए..." मैं उन्हें सीधे सीधे अनिता की पसन्द नहीं बता सकती थी, अतः बात को घुमाने की कोशिश की।

"थैंक्स विशु! मम्मी मेरी बात नहीं समझती, मुझे मेरे ऑफिस में काम करने वाली विभा पसन्द है, दूसरी जाति की है, जब बात करूंगा तब तेरा सपोर्ट चाहिए... " भैया ने मुझे अपना सीक्रेट बताया और मैंने भी उनका विश्वास कायम रख, उनका साथ निभाया था।

छुट्टियाँ खत्म होने वाली थीं। अनिता और मैं बाजार गए थे, हमारे राजपुर वाले घर के लिए जरूरत का सामान खरीदने.. अचानक अशोक जी मिल गए। "विशु तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है, आओ कॉफी पीते हैं।" उन्होंने आदेशात्मक लहजे में कहा और मैं मना नहीं कर पायी।

"जो पूछूँ, एकदम सही जवाब देना।"

"जी..."

"क्या सुनील और तुम्हारे बीच कुछ चल रहा है?"

"जी... जी नहीं... ऐसी कोई बात नहीं है।"

"फिर कैसी बात है?"

"अशोक सर सुनील और विशु दोनों एक दूसरे को पसन्द करते हैं, किन्तु बोल नहीं पा रहे.." अनिता की बात सुनकर अशोक कुछ देर चुप रहे... फिर बोले.. "विशु मुझे तुम भी अज़ीज़ हो और सुनील मेरा बहुत प्यारा भाई है, मुझे लगता है कि मैं ही तुम दोनों के बीच दीवार बनकर खड़ा हुआ हूँ... बहुत खुशनसीब होते हैं वे लोग जिन्हें प्यार के बदले प्यार मिलता है... ये दीवार गिरा दो... प्यार का हाथ थाम लो, उसे जाने मत दो... मुझे ही कुछ करना होगा...." कहते कहते उनकी आवाज़ भर्रा गयी थी।

मैंने अनायास ही उनके पैर छू लिए..."जी भाई साहब आप जो कहेंगे, मुझे मंजूर है.." आज पहली बार मेरे मुँह से उनके लिए भाई का सम्बोधन निकला था... अपने आप... मन में उनके प्रति श्रद्धा और बढ़ गयी थी। एक विश्वास था मन में कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा।

क्रमशः....22