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कभी अलविदा न कहना - 3

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

3

रोते रोते हिचकियाँ बन्ध गयीं। दम घुटने लगा और मैं अचकचा कर उठ बैठी। माँ नहीं थीं मेरे आसपास... "ओह! यह एक सपना था... थैंक गॉड..." घड़ी पर नज़र पड़ते ही मैं बेड से कूद पड़ी... "अंशु! मुझे जगाया क्यों नहीं, बस निकल जाएगी और मैं लेट हो जाऊँगी.." चिल्लाती हुई मैं बाथरूम में घुस गयी। ब्रश करके आयी तब तक अंशु चाय लेकर आ गयी थी।

"रिलैक्स माय डिअर दीदी... संडे को छुट्टी होती है।"

इतना रिलैक्स तो मैंने परीक्षा के बाद भी फील नहीं किया था। साड़ी नहीं पहननी है, टिफिन नहीं ले जाना है, बस का सफर भी नहीं और दिनभर घर पर परिवार के साथ.... वैसे यह हमेशा का रूटीन था, पर आज मुझे यह सोचकर जो राहत मिली उसे मैं 'गूंगे का गुड़' ही कहूँगी।

मैं हमेशा पढ़ाई के प्रति बहुत समर्पित रही हूँ। हमेशा टॉपर रहने से पेरेंट्स और टीचर्स की अपेक्षाएं काफी बढ़ जाती हैं और उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास अनजाने ही एक तनाव को जन्म देने लगता है। मुझे जानने वाले तो एक बिंदास लड़की के रूप में ही पहचानते हैं, किन्तु माँ जानती है कि ऊपर से कूल रहने वाली विशु के अन्तस में अनगिनत प्रश्नों के नाग फन उठाए फुफकारते रहते हैं। जिस तरह से सर्दियों में झील की ऊपरी सतह पर बर्फ जम जाने के बाद भी निचली सतह पर चार डिग्री तापमान के पानी में जलीय जंतु जीवित रहते हैं, ठीक वैसे ही ऊपर से शांत गम्भीर विशु के मन में जिज्ञासा का एक लावा तैरता रहता है। एक चिंगारी लगते ही लावा फूट पड़ता है, या कि नाग कब किसको डस ले, कोई नहीं जानता।

देर रात में पढ़ाई करते समय हमेशा मम्मी और ताईजी को देखकर सोचती थी कि इन लोगों की जिंदगी कितनी अच्छी है... एकदम टेंशन फ्री... कोई पढ़ाई की चिंता नहीं, फर्स्ट आने का टेंशन नहीं... खाओ पियो और मस्त रहो। आज लग रहा है कि काश स्टूडेंट लाइफ कभी खत्म न होती... सिर्फ एक पढ़ाई ही करनी होती है... आज मैं शिद्दत से महसूस कर रही थी कि जिंदगी की असली दुश्वारियां तो अब शुरू हुई हैं। विद्यार्थी जीवन की निश्चिंतता को आज मैं कितना मिस कर रही थी, यह कोई नहीं जान सकता था, किन्तु माँ तो बस माँ होती है... उससे कुछ नहीं छिप सकता।

"मेरी बेटी किस सोच में गुम है? चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा... अच्छा बता आज नाश्ते में क्या खाएगी?" मम्मी ने पूछा तो मैं गलबहियाँ डाल कर उनपर झूल गयी।

"आज नो ब्रेकफास्ट, नो लंच... आज तो ब्रंच होगा और उसमें आप छोले भटूरे, कटलेट और गुलाब जामुन खिलाओगी।" मुझे किचन में से देसी घी में तले जा रहे गुलाबजामुन और चाशनी की खुशबू आ गयी थी।

"हाँजी और फिर हम मार्किट चलेंगे, दीदी की साड़ियाँ खरीदने... वाओ कितना मज़ा आएगा शॉपिंग में.. " अंशु उत्साहित थी।

"देखो बेटा, जिंदगी में समय के साथ परिवर्तन होते हैं... आज तुम जिंदगी के नए मोड़ पर हो... हमने हमेशा तुम्हें एक बेहतर जिंदगी देने का प्रयास किया है... सबसे अधिक शिक्षा और स्वास्थ्य को महत्व दिया है। खाने पीने और किताबों में कभी कटौती नहीं की... हाँ कपड़ों में जरूर तुम्हें समझौता करना पड़ा है......." माँ बोलती जा रही थी, किन्तु मैं तो दो साल पीछे बुआजी की बेटी की शादी के मण्डप में पहुँच गयी थी।

"अंशु! क्या तुम बारात आने के समय भी यही ड्रेस पहनोगी?" ताईजी के चेहरे की कुटिल मुस्कान देख मेरा खून खौल उठा था... "क्या बुराई है अंशु की ड्रेस में? और हम अपने कपड़ों से नहीं शिक्षा और संस्कार से पहचाने जाते हैं... क्या आपने बर्नार्ड शॉ की कहानी नहीं सुनी..?"

"हाँ हाँ तुम्हारी बातों से तुम्हारे संस्कार झलक रहे हैं विशु... तुमसे कुछ कहा मैंने..?"

"चल यार विशु, मेरी हेयर स्टाइल सेट करने में मेरी मदद कर दे.." अलका दी मुझे और उनकी मम्मी दोनों को जानती थीं, तो मेरा हाथ पकड़कर वहाँ से ले गयीं, किन्तु अंशु का उदास चेहरा काफी दिनों तक मुझे परेशान करता रहा। दरअसल उसके फ़्रेंड सर्कल में अमीर लड़कियाँ थी, उनकी लाइफ स्टाइल से खुद की तुलना कर वह कभी कभी दुःखी हो जाती थी, किन्तु कभी जाहिर नहीं करती थी।

"दीदी! क्या साड़ियों की दुकान में पहुँच गयीं? क्या सोच रही हो?"

"यहीं हूँ, कहीं नहीं गयी..." मैंने उसे हल्की सी चपत लगाई और माँ की ओर मुखातिब हुई..

"मम्मी मैं जानती हूँ कि आपने इतनी जिम्मेदारियों के साथ भी हमें एक बेहतर परवरिश दी है... आप जरा भी चिंता न करें, आपकी सीख जीवनपर्यंत मेरे साथ रहेगी।"

"बस बेटा मैं यही चाहती हूं कि... आसमान में खूब ऊँचे उड़ो, किन्तु अपने कदम यथार्थ के धरातल पर टिकाए रखो... तुम्हारे सारे सपने पूरे हों... और जिंदगी में कभी भी किसी भी मोड़ पर मैं यदि तुम्हारे पास नहीं रही तो भी हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी... खुद को कभी अकेला मत समझना... गलती कभी हो भी जाए, तो छिपाना नहीं, हम साथ में उसे सुधारने का प्रयास करेंगे.... जीवन के सफर का यह नया मोड़ तुम्हें ढेर सारी खुशियां दे...."

"क्या आज माँ बेटी की जुगलबंदी में हमें भूखा रहना पड़ेगा?" पापाजी भी आ गए थे।

"देखो न पापा मम्मी सारी सीख दीदी को दे रही हैं, कहो न कि कुछ मेरे लिए भी बचा कर रखे, वरना लोग कहेंगे कि एक बेटी लायक और दूसरी नालायक रह गई.."

"लायक माँ की बेटियाँ कभी नालायक नहीं होती, और तुम्हारी माँ तो बच्चों को ही अपनी पूँजी मानती है, चिंता मत कर अंशु, तुझे तो माँ और दीदी दोनों से सीख मिलेगी.." कहते हुए पापा ने माँ को देखा, उनकी नज़रों में आज मैंने प्रशंसा के साथ प्यार का भाव भी देखा।

क्या मैं वाकई उम्र के उस मोड़ पर पहुँच गई थी कि पति-पत्नी के रिश्तों को समझने की अक्ल आ जाए? नौकरी जॉइन करते ही मैं एकदम से बड़ी हो गयी? मम्मी सही कहती हैं कि परिपक्वता उम्र से नहीं, परिस्थितियों से आती है।

"वो नीली साड़ी दिखाओ, और उसके नीचे वो गुलाबी साड़ी जिसपर बैंगनी कसीदे का काम है, वो हरी वाली भी और वो मैरून बॉर्डर की क्रीम साड़ी भी....." मुझसे ज्यादा तो अंशु उत्साहित हो रही थी।

"दीदी ये पर्पल ब्रासो वर्क वाली आप पर खूब फबेगी और वह काली साड़ी जिस पर लाल कलर का बारीक वर्क है, कितनी सुंदर लग रही है.."

"विशु! तू तेरे हिसाब से पसन्द कर ले, पहनना तुझे है और डेली अप डाउन करना है, तो कॉटन की मत लेना, हल्की फुल्की सिंथेटिक साड़ियाँ पसन्द कर ले अभी, अगले महीने और खरीद लेंगे।"

साड़ियां लीं और फिर ब्लाउज सिलने डाले... अंशु का मन था तो पहली बार बाजार में हमने चाट खायी। पापाजी ने मुझे बाजार में खरीदारी के समय ध्यान रखने वाली बातें भी समझाईं। वे समझ रहे थे कि घर से बाहर निकलने पर मुझे अब इस ज्ञान की जरूरत भी पड़ेगी। बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, परन्तु माता पिता की नज़र में वे अबोध ही रहते हैं।

घर पहुंचने के बाद मैं काफी ताज़गी महसूस कर रही थी। आज मार्केटिंग के समय पापा को पहली बार इतना खुश देखा। उनके रौब और कड़क अनुशासन में ढील की कभी कल्पना भी नहीं की थी। स्कूल कॉलेज से लौटने में कभी पाँच मिनट की देरी पर भी उनकी सवालिया निगाहों का सामना करने की ताब मुझमें नहीं थी। आज मैं खुद को वाकई जिंदगी के सोपान पर आगे बढ़ा महसूस कर रही थी और इसका श्रेय मेरे पेरेंट्स को था।

उस रात अंशु और मैंने ढेर सारी बातें की। मैंने उसे बताया कि किस तरह से अनिता ने मुझे उनके साथ रहने को मना कर दिया, जबकि रेखा ने कॉलेज में सहमति दी थी।

"दीदी ये अनिता थोड़ी डोमिनेटिंग पर्सनालिटी की है और रेखा उसके कहने में... अच्छा है उन लोगों के साथ आप परेशान हो जाओगी। दो महीने बाद समर वेकेशन है, तब तक अप डाउन करो, सबको जान लो, समझ लो, फिर अगले सेशन में देखना। यहाँ आपकी खिदमत में बंदी हाज़िर है..." कहते हुए उसने एक हाथ मोड़कर सामने रखा और सिर झुकाया। उसकी अदा पर मुझे हँसी आ गयी।

"ठीक है मेरी बहना..." और हम दोनों देर तक हंसते खिलखिलाते रहे।

"वैशाली! तुम चाहो तो हमारे साथ होम शेयर कर सकती हो।" स्टाफ रूम में अनिता के प्रस्ताव पर मैं सोच में पड़ गई कि एक दिन में इसकी मानसिकता कैसे बदल गयी।

"शुक्रिया, किन्तु मैं अप डाउन ही करूँगी"

"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, मुझे शर्मा अंकल ने बोला था।"

ओह! तो उनके कहने से महारानी ये आफर दे रहीं हैं... हुंह... "अगले सेशन में सोचूँगी" प्रत्यक्ष में कहते हुए मैंने देखा कि रेखा के गले में पट्टा है, जिसकी चैन अनिता के हाथ में थी और रेखा मेरी तरफ कातर निगाहों से देख रही थी।

भोर का सपना सच होता है... ऐसा सोचकर मुझे खुशी हुई। आज मैं बिल्कुल नॉर्मल थी और बस का सफर भी एन्जॉय कर रही थी। कॉलेज पहुँचने का एक अलग ही उत्साह से इंतज़ार था। राजपुर से दस किलोमीटर पहले अचानक एक झटके के साथ बस रुक गयी। पता चला कि बस का एक टायर पंक्चर हो गया है। बीस मिनट लगेंगे।

मैं बार बार रिस्ट वॉच को देख रही थी, तभी एक आवाज़ आयी... "मैडम! आपको कहीं पहुँचने की जल्दी है?"

मैंने सिर उठाकर देखा, वह एक स्मार्ट सा बंदा था। हल्की नीली चेक वाली शर्ट और ब्लैक जीन्स, आंखों पर चश्मा, महंगी रिस्ट वॉच, ब्लैक चमचमाते शूज़... और चेहरे पर मंद सोबर सी मुस्कान... कुल मिलाकर स्मार्ट पर्सनालिटी... "जी वो....." मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह फिर बोला...."मैंने परसों भी आपको इस बस में देखा था, क्या आप भी अप डाउन करती हैं?"

अच्छा तो ये महाशय भी अप डाउन करते हैं। रोज ही मिलना होगा फिर तो... मेरे दिल ने थोड़ा जोर से धड़कना शुरू कर दिया था....

क्रमशः.... 4

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