कभी अलविदा न कहना - 6 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 6

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

6

घर पर एक अलग ही माहौल था। सोफे के कवर और पर्दे बदले जा चुके थे। किचन से आती खुशबू बता रही थी कि कोई खास मेहमान आने वाला है। मैं बेहद थकी हुई थी तो सीधे अपने कमरे में पहुँच गयी। फ्रेश होने के बाद मुझे बिस्तर पुकार रहा था, मन किया कि थोड़ा आराम कर लूं, किन्तु अंशु ने कहा कि अलका दीदी मुझे याद कर रही थीं, आखिर जब भी उन्हें कोई देखने आता था तो मैं ही उनके साथ होती थी, वे मुझसे हर बात शेयर करती थीं।

"विशु! मैं तुझे बहुत मिस कर रही थी।" मुझे देखते ही अलका दीदी खुश हो गयीं। तभी ताईजी एक साड़ी लेकर आयीं... "ये साड़ी पहन लेना, इसमें तेरा रंग निखरा हुआ दिखेगा।"

दीदी का रंग थोड़ा दबा हुआ है, तो इसमें उनका कसूर थोड़ी है। मुझे इस देखने दिखाने के चक्कर में बहुत गुस्सा आता है। बेचारी दीदी, इतनी अच्छी हैं, पढ़ी लिखी.. हर काम में होशियार.. नाक नक्श भी अच्छे हैं..एकदम साँचे में ढली हुई, बस रंग से मात खा जाती हैं, हमेशा... मुझे समझ में नहीं आता कि लोगों को गोरी चमड़ी क्यों चाहिए होती है..?

"दीदी! इस बार आप साड़ी नहीं सूट पहनो, वो आसमानी रंग का, जिस पर कशीदा किया है आपने और टेटिंग की लेस लगायी है.. बहुत सूट करता है आप पर..."

ताईजी ने मुझे घूर कर देखा, फिर अगले ही पल मुस्कुरा दीं। "विशु सही कह रही है, इस बार सूट पहन ले, शायद टोटके का काम कर जाए.." ताईजी के चेहरे पर उम्मीद की किरण दिखी। अंशु ने अलमीरा से सूट निकाला और मैचिंग ढूँढने लगी। ताईजी की साड़ियां सब गहरे रंग की हैं, उन्हें अपने गोरे रंग पर नाज़ है, और इस बात का मलाल भी कि बेटी का रंग उनके जैसा क्यों नहीं है। ताऊजी का रंग भी गेहुँआ है। अलका दीदी इस दबे हुए रंग के कारण दबी दबी सी रहती हैं।

"वाह कितनी प्यारी लग रही है, इस बार तो बात पक्की समझो.." माँ ने दीदी को काला टीका लगाते हुए मुझे भी तैयार होने के लिए कहा। अंशु पहले ही तैयार बैठी थी।

"मम्मी! मैं ऐसे ही ठीक हूँ, बहुत थक गयी हूँ, फिर मुझे थोड़े न पसन्द करने आ रहा है कोई।"

"विशु दी प्लीज जल्दी रेडी हो जाओ, वे लोग आने ही वाले हैं।" अंशु मेरा हाथ पकड़कर रूम में ले आयी। मैंने स्काई ब्लू कलर का चिकन सूट पहना.. बालों को खुला छोड़ने का मन था, फिर एक हल्की नॉट बनाकर जूड़ानुमा बाँध लिए। मन फिर तीन साल पीछे चला गया। मेरा बी एस सी फाइनल का अंतिम पेपर था। ऐसा होता है कि परीक्षा के दौरान खूब नींद आती है, सोचते हैं कि आखिरी पेपर के बाद तान कर सोएंगे, किन्तु तब नींद उड़ जाती है। बस मैं भी कोई नॉवेल लेकर बैठी थी, तब मम्मी ने कहा कि ताईजी के मायके से कोई मेहमान आ रहे हैं, मैं शाम को घर पर ही रहूं। उन्हें पता था कि आखिरी पेपर के बाद हम सहेलियाँ किसी एक के घर पर इकट्ठी होती थीं। घर में कुछ खास तैयारी देखकर मुझे अंदेशा तो था कि कोई खास मेहमान ही होंगे, किन्तु अलका दीदी को देखने उनके ननिहाल से कोई क्यों आएगा? यही बात सोचकर मैं हैरान-परेशान थी। मुझसे किसी ने कुछ और कहा भी नहीं था, तो निश्चिंत भी थी। उन लोगों के आने के बाद जो बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तब मुझे समझ में आया कि मैं ही शो पीस थी। मम्मी ने मेरे चेहरे से मेरा गुस्सा भाँप लिया था, तभी तो कहा था कि विशु आगे पढ़ना चाहती है। "मैं तो दिनभर शॉप पर रहूँगा, तुम पढ़ लेना और परीक्षा दे देना" रंजन ने मुझे देखते हुए कहा था। उन लोगों के जाने के बाद मैंने जो हंगामा किया, कोई आज तक नहीं भूला... किसी को तो शहीद होना ही था... मैं बच गयी पर वो महंगा वाला क्रोकरी सेट मुझे आज तक याद है... बेचारा... मेरे गुस्से की बलि चढ़ गया था। भगवान जी भी मात्र ग्यारह रुपए के चने चिरौंजी से खुश हो गए थे। मुझे नहीं पता कि रंजन ने मुझे पसन्द किया या नहीं, न ही मैंने उसे पसन्द या नापसंद की दृष्टि से देखा... बस वह समय उस बात के लिए उचित नहीं था न ही वह तरीका सही था। इस बात के लिए ताईजी आज तक मुझसे नाराज़ हैं।

"चलो दीदी, वे लोग आ गए हैं" अंशु और मैं किचन से पानी के गिलास ट्रे में रख ड्राइंग रूम में पहुँचे। अंशु का बचपना और चंचल स्वभाव इतनी देर में भी कोई नोट कर लेता है, किन्तु मैं वक़्त के साथ थोड़ी गम्भीर हो रही हूँ, यह मैं नोट कर रही थी। वहाँ किसी और को मुझे नोटिस करते देख मैं चौंक गयी। मैंने आँखे मलने के बाद फिर देखा, वह सुनील ही था। एक ही पल में मैंने पता नहीं क्या क्या सोच लिया... ध्यान ही नहीं दिया कि उसके साथ कोई और भी था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस स्थिति में मुझे किस तरह से रियेक्ट करना चाहिए।

"अब आपकी तबियत कैसी है वैशालीजी..?" सुनील की बात सुन सभी चौंक गए। मैंने बस वाली बात किसी को बतायी भी तो नहीं थी। वक़्त ही नहीं मिला था बताने का...

ताईजी के चेहरे पर पता नहीं कितने रंग आए गए कि मैं खुद को कटघरे में समझने लगी। मुझे यह भी नहीं पता था कि 'लड़का' कौन है... सुनील या उसका साथी... मैं दुआ कर रही थी कि काश! वह दूसरा वाला बंदा हो जिससे दीदी की बात चल रही थी।

"मैं ठीक हूँ.." मैंने कहा तो प्रश्नों की बौछार शुरू हो गयी।

"क्या हुआ तबियत को?"

"तुम दोनों एक दूसरे को कैसे जानते हो?"

"तुमने बताया क्यों नहीं..?" आदि आदि....

"शांति.. शांति... कोई खास बात नहीं, आप लोग परेशान मत होइएगा.. आज बस का एक्सीडेंट होते होते बचा, और तब ही इन्हें मामूली सी चोट आयी थी, चूँकि सुबह ही मेरा परिचय हुआ था, तो मैं पहचान गया... और हाँ आंटी आप खाना बहुत टेस्टी बनाती हैं.." सुनील एक सांस में बोल गया बिना ये देखे की ताईजी गुस्से से मुझे घूर रही थीं।

वक़्त की नजाकत थी, सब चुप रहे। अलका दीदी भी आ गयीं थीं। चाय नाश्ते के साथ हल्का फुल्का बातों का दौर चलने लगा।

मुझे खुशी हुई ये जानकर कि सुनील लड़के का कजिन था और यहाँ आने के लिए ही आज बैंक से जल्दी आया था। अब मुझे उसका सरनेम जानने की कोई जल्दी नहीं थी। मैं कल्पना कर रही थी कि दीदी मेरी जिठानी बन जाएंगी तो कितना मज़ा आएगा।

नीला मेरा भी फेवरेट कलर है। सुनील ने कहा दीदी को देखते हुए, किन्तु मैं समझ गयी कि इशारा मेरी ओर था।

"अलका जी आपकी होबिज़ क्या हैं? भैया को तो किताबें पढ़ने का शौक है... हाऊ बोरिंग इट इज..." सुनील ने कहा तो मेरे अंदर कुछ चटक गया।

"किताबें तो विशु दी की मोहब्बत है... अलका दी तो मूवी देखने की शौकीन हैं.." अंशु की बात सुनकर उस शख्स ने मेरी ओर नज़र उठाकर देखा।

"किस तरह की किताबें पढ़ती हैं आप?"

"जी मुझे साहित्य में रुचि है, सभी साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ती हूँ... अलका दीदी को भी कहानियाँ पढ़ना पसन्द है.." मैंने उसकी बातों का सिरा दीदी की ओर घुमाना चाहा।

"और क्या जिस दिन 'सरिता' आती है, उस दिन अलका कोई और काम नहीं करती... खाना भी भूल जाती है.." ताईजी का ही ही करना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं आया.. हमेशा गलत वक़्त पर गलत बात बोलना जैसे उनकी हॉबी हो।

"अशोक जी आप तो लिखते भी हैं न, आपके पिताजी ने बताया था।" पापाजी ने पूछा..

"डिनर लग चुका है, चलिए सब खाना खा लीजिए पहले.." मम्मी आ गयीं थीं और सभी लोग डाइनिंग टेबल पर बैठ गए।

अंशु और मैं परोसगारी में लगे थे।

सबकी बातों से लग रहा था कि रिश्ता पक्का हो ही जाएगा... और सुनील को देखकर मैं खुश भी थी तथा उत्साहित भी...

"आंटी ये पनीर की सब्ज़ी बचेगी न तो कल विशु के टिफ़िन में रख देना, मुझे बहुत पसंद है।.."

मैं वैशालीजी से एकदम विशु बन गयी थी... अच्छा लगा।

"क्यों बेटा, तुम्हें ही दे देती हूँ।"

"जी वो मैं भी राजपुर डेली अप डाउन करता हूँ, बस में मिलना होगा ही..." उसने मुझे देखा और अंशु ने उसकी नज़र का पीछा करते हुए मुझे चिकोटी काटी।

"आउच.." मैं खुद ही झेंप गयी, जब सुनील ने पूछा कि ये मेरा तकियाकलाम है क्या?

"चलो अच्छा है नए शहर में कोई परिचित मिल गया तो हमारी चिंता कम हो जाएगी।"

"बस अंकल जी एक बार अलका दी हमारी भाभी बन जाए तो पूरी चिंता ही खत्म समझो.." कहा ये गया था किंतु मैंने सुना कि " अलका दी को भाभी बन जाने दो फिर विशु और मैं अप डाउन नहीं करेंगे, वहीं एक घर ले लेंगे.."

सबके चले जाने के बाद आज घर का माहौल काफी खुशनुमा था। वे लोग कह गए थे कि सुबह ही फोन करेंगे, पंडितजी से सगाई का मुहूर्त निकलवा कर...

"अच्छा दीदी तो आपने सही में गुल खिलाने शुरू कर दिए.." कमरे में आते ही अंशु ने खिंचाई शुरू कर दी। एक ही दिन में.... और मुझे बताया भी नहीं.."

"क्या एक ही दिन में.... कोई गुल नहीं खिलाया मैंने... मुझे तो मालूम भी नहीं था कि वह सजातीय है"

"देखा.... चोर की दाढ़ी में तिनका.... मैंने तो उसका नाम भी नहीं लिया था और आप..... देखो देखो विशु दी शरमा गयीं.." अंशु पूरे मूड में थी और मेरे मन में भी लड्डू फूट रहे थे।

"अच्छा है मेरे तो एक साथ दो दो जीजू आएंगे... ऐश करूँगी..."

उस रात अलका दी, अंशु और मैं तीनों ही सपनों में खोए होंगे...

लेकिन सुबह ही अशोक जी के पिताजी के फोन ने घर का माहौल फिर बदल दिया था.....!

क्रमशः....7