कभी अलविदा न कहना - 2 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 2

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

2

सुबह जिस उत्साह से निकली थी नौकरी जॉइन करने, शाम को घर पहुँचने तक वह थकान की भेंट चढ़ चुका था। पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका था। मेरा मिजाज शुरू से ही कॉम्प्लिकेटेड रहा है। मसलन लोगों को बहार पसन्द है और मुझे हमेशा से पतझड़ आकर्षित करता रहा है। शायद लोगों की सोच से परे हटकर सोचना ही इसकी वजह हो सकती है। सभी अपने आज में जीते थे और मैं जो पास है उसे खोने के डर से आज को एन्जॉय ही नहीं कर पाती। एक असुरक्षा की भावना हमेशा मुझे घेरे रहती थी।

"क्या हुआ दीदी, कैसा रहा दिन..?" घर पहुँचते ही छोटे भाई बहन के प्रश्न को दरकिनार करते हुए चुपचाप तेज़ी से बाथरूम में घुस गयी। अंशु और अंकु ने शायद मेरे आँसू देख लिए थे, तभी जब बाहर निकली तो अंकु ने पूछ ही लिया.. "दीदी आप रोयीं क्यों..?"

अंशु बिना मेरी ओर देखे भाई पर गुस्सा हुई... "अंकु! देख रहा है न दीदी कितना थक गयीं, उन्हें सांस तो लेने दे.." वह सहम गयी थी ये सोचकर कि शायद मुझे नौकरी नहीं मिल पायी है। आखिर बुलाने के दस दिन बाद गयी थी मैं.. खुद को और पेरेंट्स को मानसिक रूप से तैयार करने में इतना समय लग गया था। अंशु ग्रेजुएट हो गयी थी और अंकु तो स्कूल की आख़िरी बोर्ड परीक्षा देने वाला था। आज पहली बार मैंने अंशु की समझदारी को नोटिस किया। अभी तक वह बड़ी बहन के साये में खुद को महफूज समझती थी और अक्सर जिद कर अपनी माँग मनवा लेती थी। मैं संकोच करती रह जाती और वह सहजता से अपनी बात कह देती थी, विषय चाहे वर्जित ही क्यों न हो। मेरे जाने की बात से ही वह परिपक्व होकर छोटे भाई को समझा रही थी।

"लो जी सब मिठाई खाओ... हमारी विशु कॉलेज में व्याख्याता बन गयी है।" पिताजी ने लालाजी के रसगुल्ले और काकाजी के गर्मागर्म समोसे सबके सामने रख दिए। अंशु और अंकु के चेहरे पर पसरी प्रसन्नता देख मैं भी मुस्कुराने लगी। मन में फिर एक प्रश्न कुलबुलाने लगा... "पिताजी तो मेरे नौकरी करने के ही खिलाफ थे, फिर आज ये शहर की प्रसिद्ध लालाजी और काकाजी की दुकानों की मिठाई और नमकीन...? हमारे घर में कभी बाजार का कुछ रेडीमड खाने का नहीं आया... गोलगप्पे भी मम्मी घर पर ही बनातीं थीं फिर आज......?"

एक पिता के मन को समझ पाना बड़ा कठिन होता है। एक तरफ वह अपनी बेटी को जमाने भर की निगाहों से महफूज़ रखना चाहता है, वहीं दूसरी ओर उसे खुले आसमान में उड़ता देख खुश भी होता है। पारिवारिक बंदिशों का मैं हमेशा विरोध करती थी, पर कभी उन्हें तोड़ने का नहीं सोच पायी। हमें किसी चीज की कमी नहीं थी, किन्तु एक अघोषित दायरा जरूर था, जिसे लांघने की मनाही थी। संयुक्त परिवार में बच्चों को कुछ सिखाना नहीं पड़ता, सबके साथ अपने आप ही बहुत कुछ सीख जाते हैं। यदि गुलाबजामुन खाने का मन है, तो हाज़िर हैं, किन्तु उन्हें भी सलीके से खाना और बड़ों की नज़रों के सामने... एक बून्द चाशनी भी नीचे नहीं गिरने देना.... यह भी कोई तरीका हुआ? इतना ध्यान दूसरी बातों पर तो गुलाबजामुन का स्वाद ही नहीं आये। मैं प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर पाती, पर व्यवहार से जाहिर कर देती थी। आज पिताजी का यह रूप मेरे लिए सर्वथा नया था। मैं असमंजस में थी, तभी प्रोफेसर शर्मा, पापाजी के खास दोस्त और हम सबके प्रिय अंकल घर आये।

"आज क्या बात है, पार्टी चल रही है.."

"आइए भाईसाहब! अपनी विशु ने कॉलेज जॉइन कर लिया है.." मम्मी खुशी से चहक रहीं थीं।

"बधाई हो बेटा.." अंकल ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा

"हमारी बिरादरी में शामिल होने की... किस कॉलेज में?"

"राजपुर कॉलेज, यहाँ से 60 किलोमीटर है" मेरे बोलने से पहले ही पापा ने जवाब दिया।

"प्रकाश, बेटी को बोलने दिया कर... मुझे पता है ये बहुत होशियार है, काफी आगे जाएगी, भाभीजी आपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी है.. प्रकाश तो घर पर ध्यान ही नहीं दे पाता है" अंकल ने पापा की ओर देखते हुए कहा, वे जानते थे कि बड़े परिवार की जिम्मेदारियों में पापा व्यस्त रहते थे।

"हां तो बेटा जॉइन कब किया, मुझे बताना भी जरूरी नहीं समझा.."

"जी अंकल, आज ही, बस अभी लौटे ही हैं"

"रहने का क्या इंतज़ाम किया है? मेरे एक प्रोफेसर दोस्त की बेटी अनिता भी वहीं है, दो महीने पहले जॉइन किया था, उससे बात कर लेना, दोनों एक ही शहर के हो और सजातीय भी तो ठीक रहेगा.." अंकल की बात से मुझे राहत मिली कि पापा अब शायद मुझे वहाँ रहने देंगे, वरना तो रोज आने जाने की शर्त पर ही अनुमति मिली थी। आज थका देने वाले सफर के कारण ही मैं बुझ सी गयी थी। रोज बस से आना जाना और वह भी साड़ी पहनकर... सोच सोचकर ही मेरी नौकरी मिलने की खुशी तिरोहित होती जा रही थी। इस समय अंकल मुझे देवदूत की तरह लगे।

"भाभीजी अब मैं चलता हूँ, चाय बनने और पीने में टाइम लगेगा, ला प्रकाश एक रुपया दे दे, बाहर ही पी लूँगा, चाय के बिना समोसे हज़म नहीं होंगे.." अंकल की इस मजाकिया आदत के सभी कायल थे। उनके जाने के बाद फिर एक खामोशी पसर गयी घर में... ताईजी वैसे ही नाराज़ बैठी थीं। मुझे काफी समय बाद समझ में आया कि उनकी नाराज़गी मेरी नौकरी से नहीं, बल्कि ईश्वर से थी कि यह नौकरी उनकी बेटी यानी कि मेरी प्रिय अलका दीदी को क्यों नहीं मिली।

रात को अंशु और मैं साथ में ही अपने रूम में गए। उसकी बेचैनी में महसूस कर पा रही थी। वह खुश भी थी और दुःखी भी। होंठों पर हँसी और आँखों मे नमी का मतलब मुझे अब समझ में आ रहा था। हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर लेटे रहे। मौन और स्पर्श की भाषा की गहराई हम दोनों ही समझ रहे थे।

"बेटा! तुम्हारी जिंदगी का नया फेज शुरू हो रहा है, तुम इसी तरह समझदार रहोगी और हमारा सिर गर्व से ऊँचा रखोगी.." मैंने बालों में माँ के हाथ का स्पर्श महसूस किया.. पता नहीं वह कब हमारे सिरहाने आ बैठीं थीं। मुझे बहुत ही अजीब सी फीलिंग हो रही थी। उस दिन जब मेरा मन जलेबी खाने का हो रहा था, और माँ ने तुरन्त ही जलेबी बनाई, हड़बड़ी में गर्म कटोरी मेरे हाथ से छूट गयी थी, मूड ऑफ हो गया था... आज मैं चाह रही थी कि उस जलेबी की तरह नौकरी भी मेरे हाथ से छूट जाए... कितनी रहस्यमयी परतें होतीं हैं मानव मन में... कल तक मैं कितनी खुश और उत्सुक थी, इस नौकरी पर जाने के लिए परिवारजनों से संघर्ष कर रही थी और अब जब नौकरी हाथ में है तो जाने कितना कुछ छूटता सा लग रहा है... काश! इस रात की सुबह न हो...

रोज देर से उठने वाली अंशु आज मुझसे पहले उठ गई थी। मैं तैयार हुई तब तक उसने मेरा टिफ़िन पैक कर दिया था। एक दो बार कॉलेज पार्टी और विवाह समारोह में ही साड़ी पहनी थी। मैं आदमकद आईने के सामने खड़ी थी और मम्मी मुझे साड़ी पहना रही थीं। मुझे बिजूका याद आ गया। मैं उसी मुद्रा में खड़ी थी और मम्मी अनेकों सेफ्टी पिन लगाए जा रहीं थी। पापा स्कूटर निकाल कर तैयार खड़े थे। अम्मा ने मुझे मन्दिर में हाथ जोड़ने के बाद दही पेड़ा खिलाया और मैं पर्स उठाकर चल दी.... एक नयी जंग जीतने....

बस की खिड़की से बाहर का दृश्य आज नया लग रहा था। आज मैंने कोई पेड़ नहीं गिना, रेलवे क्रासिंग पर जाती हुई मालगाड़ी के डिब्बे भी नहीं गिने। चीजें वही रहतीं हैं, बस हमारी मनोस्थिति के अनुसार हमारा देखने का नज़रिया बदल जाता है। मैं मेरी सीट पर छुई मुई सी सिमट कर बैठी रही। कॉलेज के गेट पर बस रुकी तब मुझे पता चला कि दो घण्टे गुजर चुके हैं। पापा ने ड्राइवर और कंडक्टर को कह दिया था कि बस स्टैंड के पहले ही कॉलेज पर मुझे उतार दें।

स्टाफ रूम में परिचय के दौरान पता चला कि रेखा मैडम और अनिता मैडम साथ में रहती हैं, उसी कैंपस में निखिल सर और मुकेश सर साथ में रहते हैं तथा वर्मा मैडम भी उनकी बेटी और बहन के साथ रहती हैं। नया शहर और नयी उम्र के अविवाहित मित्रगण... सबकी अच्छी ट्यूनिंग है और समय अच्छा कट जाता है। मुझे यह नया परिवेश लुभाने लगा.. पढ़ाई के बाद परिवार की बंदिशों से दूर हमउम्र साथियों के साथ रहना कितना सुखद होगा, इसकी कल्पना करती हुई में अनिता मैडम के घर पहुँच गयी थी।

"तुम देख रही हो न... हम दोनों ने घर कितनी अच्छी तरह से जमाया है... दो महीने में हमारी अंडरस्टैंडिंग डेवलप हो चुकी है... हमारी हर चीज कॉमन है... मेरा तेरा बिल्कुल नहीं... ये देखो लिपस्टिक भी हम दोनों की कॉमन है..... अब हम नहीं चाहते कि 'तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा' हो... तुम रहने के लिए कोई और साथ ढूँढ लो..." अनिता की दो टूक बात सुन मैं फिर नर्वस हो गयी। शर्मा अंकल का रेफरेंस मैं चाहते हुए भी नहीं दे पायी।

वापिस घर पहुँचने तक तन और मन दोनों थक चुके थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं अब क्या करूँ? हार मानना मेरी आदत में शुमार नहीं था। डाइनिंग टेबल पर मेरी पसंदीदा सब्जी देखकर भी मैं हमेशा की तरह चहकी नहीं तो दादी को चिंता हुई और ताईजी को खुशी... सभी मेरे नये अनुभव के बारे में जानने को उत्सुक थे... खोद खोद कर पूछ रहे थे, मुझे उनकी आवाज़ कहीं गहरे गड्ढे में से आती प्रतीत हो रही थी.... "विशु थक गई है, उसे आराम करने दो, कल संडे है तब बात करेंगे..." मम्मी ने कहा और अंशु मुझे हाथ पकड़ कर रूम में ले आयी।

"मैं यह नौकरी नहीं करूँगी, अपने घर जितना सुख कहीं नहीं है। बस की भीड़ और पसीने की बदबू झेलते हुए मैं रोज साड़ी पहनकर चार घण्टे सफर करूँ, मेरे लिए यह मुश्किल है......" मैं माँ की गोद में सिर रखकर फूट फूट कर रो रही थी और माँ मुस्कुराते हुए मेरे बालों में उंगलियाँ फिरा रही थी.......!

क्रमशः.... 3