कभी अलविदा न कहना
डॉ वन्दना गुप्ता
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"मम्मी कल मैं रात को वहीं एक मैडम के घर रुक जाऊंगी, क्योंकि परसों सुबह आठ बजे कॉलेज में उपस्थिति देनी है।" मेरी बात सुनकर मम्मी थोड़ी चिंतित लगीं... "कौन सी मैडम? पापा से पूछना पड़ेगा.."
"दीदी! पता है आज क्या हुआ..?" अंशु मम्मी की आँखें देखकर बोलती हुई रुक गयी।
"क्या हुआ..?" मेरी उत्सुकता चरम पर थी।
हम बहनों की आँखों आँखों में बात हो गयी कि अकेले में बात करेंगे।
आशा के विपरीत पापाजी ने भी रात को मैडम के यहाँ रुकने की सहर्ष अनुमति दे दी। आज दिल में विचारों का जलजला सा था। मुझे डर था कि खुद पर नियंत्रण न खो बैठूँ.... पहले भी भावों के उद्वेग में मैं बिना सोचे समझे विचित्र स्थितियों का सामना कर चुकी थी। वैसे भी मेरा चेहरा हमेशा ही मनोभावों की चुगली कर देता है और इस बात पर मैं अंशु की डाँट खाती हूँ। वह इस मामले में मुझसे कहीं अधिक समझदार है।
"कौन सी साड़ी रखूं, जिसे पहनने में मुझे आसानी हो?" मैं वार्डरोब खोलकर खड़ी थी।
"कहाँ की तैयारी हो रही है?" अलका दी को देखकर मुझे पहली बार अच्छा नहीं लगा।
"कहीं की नहीं दी, कल मैं राजपुर में रुकूँगी।"
"दीदी आप एक सूट भी रख लो, कॉलेज के बाद शाम में पहनने के लिए और एक गाउन रात के लिए... परसों तो आप वापिस आ ही जाओगी।"
"हाँ ठीक है..." मैंने वैनिटी बैग में ही टूथब्रश भी रख लिया।
"आज सुनील से मुलाकात हुई? कुछ कहा उसने?" अलका दी ने बिना भूमिका बात शुरू कर दी।
"हाँ दी, मुलाकात तो हुई, किन्तु कोई खास बात नहीं हुई।" मैं उन्हें कुछ भी बताने के मूड में नहीं थी। अंशु ने रूम की लाइट बंद कर दी, मानो अलका दी को बाई बोल रही हो कि आप जाओ। दी संकेत समझी या नहीं.. किन्तु हमारे बेड पर ही लेट गयीं... अंधेरे में शायद उन्हें भी बात करने में सुविधा लगी हो।
"विशु सुन आज पापा ने सुनील के चाचाजी को फोन किया था.." दीदी ने कहना शुरू किया और मेरे कर्ण द्वार चौड़े हो गए.. मन का अंधेरा गहरा हो गया।
"क्यों..? क्या बात हुई..?" मेरे दिल की धड़कन मुझे सुनाई दे रही थी और शायद अंशु को भी... तभी तो वह तैश में आकर बोली कि.. "दी ये क्या बात हुई? यदि अशोक ने विशु दी को पसन्द किया तो क्या आप सुनील से शादी करना चाहोगी बिना ये जाने कि वह आपको पसन्द करता है या नहीं..?"
"यही तो विशु से कहा था जानने के लिए.."
"और यदि विशु दी ने अशोक को नापसन्द कर दिया या मान लो कि......"
"अंशु तू छोटी है न चुप रह..." मैं घबरा गयी थी कि अंशु मेरा राज न खोल दे... और सुनील की पसन्द भी तो अब तक नहीं मालूम थी मुझे... क्या पता उसे भी दी पसन्द हो।
"इतनी भी छोटी नहीं हूँ कि घर में क्या चल रहा है समझ न सकूँ.." अंशु ने मुँह फुलाकर करवट बदल ली।
"अंकलजी ने बताया कि सुनील की मम्मी का देहांत बहुत पहले हो गया था... उसके पिताजी ने दूसरी शादी की और वे लोग दूसरे शहर में हैं, सुनील और उसकी सौतेली माँ दोनों ही एक दूसरे को स्वीकार नहीं कर सके, इसलिए चाचाजी और चाचीजी तथा अशोक भैया ही उसके लिए सब कुछ हैं, बहुत मानता है वह उन्हें...."
दीदी बोलती जा रही थीं और कमरे का अंधेरा मेरे मन में समाता जा रहा था... मुझे बस में टिफिन खाते हुए सुनील की आवाज़ का दर्द आज समझ मे आया...
"उन्होंने कहा है कि आप विशु को तैयार कर लो अशोक से शादी के लिए और मैं सुनील से अलका की बात करता हूँ..." एकाएक ही कमरा उजास से भर गया और मुझे अलका दी का चेहरा स्पष्ट दिख रहा था.. उनके चेहरे की खुशी, उनके चेहरे की कुटिलता सब कुछ.....
"दीदी आज मैं बहुत थक गयी हूँ, हम कल बात करते हैं।"
उनके जाने के बाद अंशु एकदम से फट पड़ी..."देखा! मैं हमेशा से कहती थी कि वह आपकी पसन्द पर डाका डालती आयी हैं और अब ये... मैं कहे देती हूँ कि यदि अब आपने अपना प्यार उन्हें दिया न तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा... आप यह दानवीरता छोड़ो... अपने लिए.. अपनी खुशी के लिए सोचो.. अब अति हो रही है.."
"हो गया पूरा या कुछ और बोलना है... फिर मैं अपनी बात कहती हूँ..."
"बोलिए..." अंशु दोनों हथेलियों के बीच चेहरा थामकर बैठ गयी और दार्शनिक अंदाज़ में मेरी ओर देखा।
"सुन मेरी बहना अव्वल तो सुनील मेरी पसन्द है, प्यार नहीं... आज तक हम दोनों की इस बाबत कोई बात नहीं हुई है और फिर आज अशोक ने मुझे प्रभावित करने की कोशिश की है, परन्तु तेरी दीदी इतनी कमजोर नहीं है, तू समझती है न... तीन साल पहले लड़कर अपनी शादी टालकर आगे पढ़ाई की है और अभी ये नौकरी भी... तो मेरी जिंदगी का इतना बड़ा फैसला मैं खुद करूँगी और सोच समझकर... रही बात अलका दी और सुनील की तो ये रिश्ता यदि होता है तो मुझे क्यों आपत्ति होगी भला... बस इसकी शर्त मेरी और अशोक की शादी हरगिज़ नहीं होगी..."
"अशोक आपको कब मिला और क्या कोशिश की..?" अंशु आज का घटनाक्रम सुनकर आश्चर्यचकित हुई।
"तो बात यहाँ तक पहुँच चुकी है? वैसे दी अशोक आपको कैसा लगा.."
"मुझे उसके बारे में सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई अभी तक... और फिलहाल मैं शादी पर नहीं अपनी नौकरी पर फोकस करना चाहती हूँ।"
अगले दिन मैं उत्साह के अतिरेक में थी। पहली बार हमउम्र सहेलियों के साथ रात में रुकने की खुशी में डूबी हुई... बस में अपनी ही धुन में मग्न थी कि अचानक चौंक गयी... "प्लीज आप मेरी सीट पर बैठ जाइए, मुझे मैडम से कुछ बात करनी है।" सुनील मेरी सीट पर पास बैठे व्यक्ति से बोल रहा था। वह व्यक्ति अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराकर उठा और सुनील की सीट पर चला गया।
"ये क्या तरीका हुआ..? लोग गलत समझेंगे और मुझे किसी के चटखारों का हिस्सा बनना पसन्द नहीं है.." सुनील के बैठते ही मेरी तल्ख आवाज़ उसे शायद बुरी लगी।
"वैशाली, तुम अभी नयी हो और मैं एक साल से डेली अप डाउन कर रहा हूँ, लोग मुझे जानते हैं.. मैं कोई दिलफेंक टाइप का लड़का नहीं हूँ, जिसके साथ लोग तुम्हारा नाम जोड़कर चटखारे लेंगे... समझी..?" उसके बोलने के साथ मेरा गुस्सा बढ़ रहा था किंतु 'समझी' कहकर जो अधिकार उसने जताया, मेरा गुस्सा पिघलाने के लिए काफी था। मेरा स्वर नरम पड़ गया... "ठीक है, बताओ क्या बात करनी थी?"
"ह्म्म्म... मैं कह रहा था कि अशोक भाईसाहब एक अच्छे भाई, एक अच्छे बेटे और एक अच्छे दोस्त होने के साथ इंसान भी अच्छे हैं... वे एक अच्छे पति भी साबित होंगे... मेरी गारंटी है..."
मैंने नोट किया कि ये कहते हुए उसने मुझसे नज़रें नहीं मिलायी थीं, मैंने उसकी भावनाओं को समझते हुए कहा... "ओह! हाऊ लकी अलका दी इज...."
"तुम्हें सच में नहीं पता कुछ या अनजान बन रही हो?"
"क्या पता होना चाहिए मुझे..?" मेरे प्रतिप्रश्न पर वह अचकचा गया।
"यही कि.... यही कि.... तुम और अशोक भाई दोनों के विचार और व्यवहार मिलते हैं और साहित्यिक अभिरुचि के चलते भाई ने तुम्हारी दी को नहीं तुम्हे पसन्द किया है... वे तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
"अच्छा.... एक बात बताओ कि अलका दी और तुम्हारी काफी सारी बातें यदि मिलती होंगी तो क्या तुम उनसे शादी कर लोगे।"
"ये बात बीच में कहाँ से आ गयी और मुझे......."
"हाँ तुम्हें तो शैफाली पसन्द है... है न...?"
"ये तुम्हें किसने बोला...? विशु शैफाली और मैं स्कूल, कॉलेज में भी साथ पढ़े हैं और अब साथ में जॉब कर रहे हैं... हम अच्छे दोस्त हैं और शिफा थोड़ी फ्रैंक टाइप की लड़की है, सभी के साथ ऐसे ही पेश आती है, शायद इसलिए तुम्हें गलतफहमी हुई.... मेरा उससे शादी का कोई इरादा नहीं है... और रही तुम्हारी दी की बात तो तुम कहो तो सोच लूँ, इस बारे में भी... तुम्हारे जैसी साली तो मुफ्त मिलेगी..." वह शरारत से बोला।
"मेरे कहने से क्यों? और हाँ आपके कहने से मैं आपकी भाभी नहीं बन जाऊँगी... आप चाहें तो मुझे साली बना सकते हैं, लेकिन लड़कियाँ कोई सामान या साग भाजी नहीं हैं कि ये वाली नहीं... वो वाली चाहिए... कह देना अशोक से कि मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है और न ही लेना चाहती हूँ।
अचानक कंडक्टर की आवाज़ आयी... "कॉलेज आने वाला है, जिनको उतरना है, वे गेट के पास आ जाएं।"
सुनील ने खड़े होकर मुझे निकलने की जगह देनी चाही... "मैं आज बस स्टैंड पर उतरूँगी, लगेज है"
उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव देख मैंने कहा कि "आज यहीं रुकूँगी।"
"शायद तुम कल हमारे साथ कार से नहीं आना चाहती होंगी, इसलिए....."
"ऐसी कोई बात नहीं है, कल आठ बजे आना है, इसलिए कंचन मैडम के यहाँ रुकूँगी।"
"अच्छा..." कहते हुए उसने मेरा बैग उठा लिया। मैं चुपचाप उसके पीछे बस से उतर गयी।
पता नहीं कभी कभी हम सोचते कुछ हैं और करते कुछ और हैं... आज मेरे साथ यही हो रहा था। मैं सुनील को अवॉयड करना चाह रही थी, किन्तु उसके साथ बात भी कर रही थी और अब जा भी रही थी। कंचन मैडम बैंक के पास ही रहती थीं और बस स्टैंड से एक फर्लांग की दूरी समझ लो। मैंने थैंक्स बोलकर बैग ले लिया। कंचन मेरे इंतज़ार में ही थी। बैग उनके घर रखकर हम दोनों कॉलेज आ गयीं। आज कॉलेज में समय बड़ी जल्दी गुजर गया और किसी और बात पर ध्यान ही नहीं गया।
शाम को कंचन के घर महफ़िल जमनी थी। हम दोनों कॉलेज से थोड़ी जल्दी निकल गये। आज मार्किट में काम था तो इस बहाने थोड़ा शहर घूम लिया। अनिता, रेखा, कंचन, शमीम, निखिल सर, मुकेश सर, वर्मा मैडम और रेखा का दोस्त विजय हम सभी इकट्ठे थे। बातों का दौर देर रात तक चलता रहा और कुछ राज भी खुले। मुझे पता चला कि निखिल सर ने मेरी सिफारिश की थी इसलिए अनिता ने मुझे साथ रहने से इंकार किया था, वह उनपर लाइन मार रही थी और उसे कंफ्यूजन हो गया कि कहीं मैं उन दोनों के बीच न आ जाऊं। मुकेश सर को रेखा पसन्द आ रही थी, किन्तु उसका टांका आलरेडी विजय के साथ था। इसी खुन्नस में सर ने मुझे अनिता के लाइन मारने की बात बतायी थी। मुझे शमीम मैडम की सादगी ने काफी प्रभावित किया। वे अकेली रहती थीं।
अचानक कंचन ने मुझसे पूछ लिया कि "वह स्मार्ट बंदा कौन था जो तुम्हें सुबह छोड़ने आया था.."
मेरी चुप्पी से अनेक उत्सुक आँखे मुझ पर जम गयीं थीं।
"फैमिली फ़्रेंड है..." काफी देर सोचने के बाद मैंने कहा..
"सुनो वैशाली तुम चाहो तो हमारे साथ रह सकती हो, शर्मा सर ने पापा को फ़ोर्सफुल्ली कहा है, उनकी बात मैं टाल नहीं सकती और अब तुमको जान भी गए हैं हम... है न रेखा..?" रेखा से स्वीकृति तो बहाना थी, मुझे पता था कि फैमिली फ़्रेंड को बॉय फ्रेंड समझने की भूल का मुझे फायदा मिल रहा था।
मैं भी डेली सुनील से मिलने से बचना चाहती थी, तो मैंने मौके का फायदा उठा लिया। मैं खुद के मन को भी परखना चाहती थी कि सुनील से मिले बिना मैं उसके बारे में क्या और कितना सोचती हूँ। शायद अशोक, सुनील, अलका दी और मुझे भी वक़्त चाहिए था।
लेकिन तकदीर अभी जिंदगी के कुछ और अनबूझे सवाल लिए सामने खड़ी थी....!
क्रमशः....10