कभी अलविदा न कहना - 20 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 20

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

20

जिंदगी को सुंदर बनाने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं.. सपने, आशा और प्रेम। सभी व्यक्ति सपने देखते हैं... गहन निद्रा की अवस्था में देखे गए सपने हमारे अवचेतन में रही किसी अतृप्त इच्छा के प्रतिरूप होते हैं, जो कि जागने के बाद अदृश्य हो जाते हैं। खुली आँखों से देखे सपने हमें कर्मशील बनाते हैं। गुजरा हुआ कल आज की स्मृति है और आने वाला कल आज का सपना है। हम तीनों यानी कि मैं रेखा और अनिता उम्र के उस दौर से गुजर रहे थे जब सपनों का राजकुमार सफेद घोड़े पर सवार होकर आता था। हमारे सपनों के राजकुमार हमारे सामने थे, बस इंतज़ार था कि ख्वाब हकीकत में कब बदलेगा।

रेखा ने जो सपना देखा था, उसका प्यार उसके साथ था और हकीकत में बदलने की पूरी पूरी आशा थी। वह खुश थी और आज की पार्टी में उसके सपनों का इंद्रधनुषी रंग हम सब देख रहे थे और कुछ हद तक जी भी रहे थे। आज की पार्टी के लिए जो सपना अनिता ने देखा था, वह मुक्कमल नहीं हुआ था, किन्तु उम्मीद का दामन अभी छूटा नहीं था और अन्नू विषम परिस्थितियों से घबराने वालों में नहीं थी।

'लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।'

यह अनिता का सूत्र वाक्य था और वह अपने लक्ष्य पर फोकस कर आगे बढ़ती थी। उसका कहना था कि सपने देखेंगे तभी तो पूरे होंगे। सपना एक बेहतर जिंदगी का... सपना कुछ कर दिखाने का और सपना... अपने सपने को सच करने का....! फिलहाल उसका सपना निखिल को जीवनसाथी के रूप में पाने का था, उनका रूख देखकर मुझे संशय हो रहा था कि ये सपना कहीं टूट न जाए किन्तु मैंने जाहिर नहीं किया। मन ही मन दुःखी तो हम सभी थे। सुनील ने दो पंक्तियाँ लिखकर मेरे दिल पर जो छाप छोड़ी थी, मैं उसकी खुमारी में डूब जाना चाहती थी, किन्तु अन्नू का दर्द बार बार मुझे तिरा देता था।

अंकुश के जिक्र ने सुनील को विचलित कर दिया था। मैं उसके सामने अशोक का प्रस्ताव नकार चुकी थी और अंकुश को वह जानता नहीं था। उसके ग्रीटिंग, पत्र और प्रपोजल के बारे में सुनकर ही उसे अच्छा नहीं लगा था। वह मेरा बैचमेट था, हम दो साल साथ में थे और सुनील से परिचय मात्र दो महीने का था। जब कोई वस्तु या इंसान हमारी पहुँच में हो तब हमें उसकी अहमियत नहीं पता चलती, किन्तु वस्तु के खो जाने और इंसान के दूर जाने पर हुई कमी या खालीपन को हम महसूस कर पाते हैं। आज सुनील के चेहरे पर मुझे वही खो देने का डर दिखाई दिया। शायद अब वह खुद की फीलिंग्स को समझ पाए... समझता तो होगा, बस जता नहीं पा रहा था, किन्तु डायरी में वे पँक्तियाँ... मुझे यकीन था कि मेरे लिए ही लिखीं गयीं थीं।। अचानक से मुझे एक दुष्ट सा आईडिया आया कि मैं अंकुश की बात करूं और सुनील की प्रतिक्रिया देखूं। मैंने अंकुश का कार्ड उठाया और उसे देखने लगी। मैं सोच रही थी कि कोई मेरे हाथ में कार्ड देखकर बात शुरू करे।

निखिल ने डायरी ली और उसे पढ़ना शुरू किया।

"आप कुछ नहीं लिखेंगे?" सुनील ने पूछा।

"डायरी तो मेरे पास ही रहेगी, आप सबकी यादों को सहेज रहा हूँ इसमें, मैं क्यों लिखूँगा? आपकी डायरी में लिख देता हूँ, दीजिए।"

"ह्म्म्म अन्नू ने दी है डायरी... संभालकर रखना जरा, उसका दिल है इसमें, कहीं टूट न जाए।" मैंने भी मौका मिलते ही चौका मार दिया। तब हम डायरी में खुद ही अपने अज़ीज़ों की यादें लिखकर रखते थे, या उनकी कोई चीज सहेजते थे, उनसे जुड़ी याद के रूप में...! आजकल तो स्लैम बुक आ गयी है, एक पेज एक दोस्त के नाम... उससे खुद ही उसके बारे में सबकुछ लिखवा लो। मेरी बात सुनकर अन्नू मुस्कुरा दी और निखिल ने कहा कि "आपकी दोस्त की तरह उनका दिल भी मजबूत है। मुझ पर नहीं तो उन पर भरोसा रखो।"

"अच्छा वैशाली! ये अंकुश का क्या चक्कर है?" विजय ने टॉपिक बदलने के लिए बात छेड़ ही दी।

"अरे! छोड़ो उसे... वैशाली के साथ पढ़ता था और उससे शादी करना चाहता है बस..." रेखा ने बात खत्म करनी चाही।

सुनील ने नज़र उठायी और फिर दूसरी दिशा में देखने लगा। मुझे पता था उसके कान अति संवेदनशील थे हमारी बात सुनने के लिए, लेकिन दिखा ऐसे रहा था कि उसे कोई मतलब ही नहीं है।

"अरे छोड़ो क्यों? मैं वैशाली से पूछ रहा हूँ, तुमने तो पहले ही उसकी जगह अपना नाम लिख दिया है।"

"विशु! क्या ये अंकुश वही है, जिसकी वजह से तुमने अशोक भाई से शादी के लिए मना किया? तुमने कहा था न कि तुम किसी और से........" अचानक से सुनील को हमारा बस का वार्तालाप याद आ गया था। मैंने ही तो उसे कहा था कि 'मैं किसी और से प्यार करती हूँ, क्या सुनील को नहीं पता कि वह 'कोई और' कौन है? या वह जानबूझ कर मुझे परेशान करने के लिए कह रहा है, या कि मुझसे सच उगलवाना चाहता है।'

"अब ये अशोक कौन है? विशु तुम लगती तो बहुत सीधी हो, तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।" अन्नू भी बोल पड़ी और अब स्पष्ट था कि बातों का केंद्र-बिंदु मैं ही होने वाली थी। मेरा दाँव मुझपर ही उल्टा पड़ गया था।

"अशोक मेरा कजिन है, जिसने विशु को पसन्द किया है, पर इन्हें शायद कोई और पसन्द है।" अच्छा हुआ कि सुनील ने जवाब दे दिया।

"ये फालतू बातों में हम पार्टी का मज़ा क्यों किरकिरा कर रहे हैं, न अशोक जी यहाँ हैं और न अंकुश... तो उनकी चर्चा क्यों? लेटस टॉक अबाउट समथिंग एल्स..." मैंने बात बदलने के लिए कहा। मैं नहीं चाहती थी कि सुनील इतनी जल्दी जान जाए कि अंकुश के लिए मेरे मन में सिर्फ दोस्ती वाली फीलिंग्स हैं। एक बात और थी कि मैं निखिल की बात का समर्थन नही करना चाहती थी। यदि मैं कहती कि अंकुश सिर्फ दोस्त है और मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा, दोस्ती अपनी जगह है और प्यार अपनी जगह, तो कहीं न कहीं मैं अन्नू के खिलाफ जाती।अतः इस टॉपिक को विराम देना ही उचित लगा। मानव मन कितना रहस्यमयी होता है। शाम तक तो मैं सुनील से मिलकर सबकुछ बताना चाहती थी, अपनी परेशानी, अपनी चाहत सब कुछ... और जब वह सामने था और मेरी बात सुनना समझना चाहता था तो मैं ही बताने से कतरा रही थी। मैं समझ चुकी थी उसके मन की बात और चाह रही थी कि वह मेरे लिए पजेसिव रहे। जब वह मुझसे दूर था, मैं उसकी ओर भाग रही थी, अब जब वह नज़दीक आना चाह रहा था, मैं खुद ही खोल में सिमट रही थी।

एक अजीब सी खामोशी पसरने लगी थी। महफ़िल खत्म भी नहीं हो रही थी और बोझिल भी हो रही थी। हर कोई चुप था इस इंतज़ार में कि कोई और चुप्पी तोड़े।

'सोचने से कहाँ मिलते है, तमन्नाओं के शहर,

चलने की ज़िद भी जरूरी है, मंज़िलों के लिए...' विजय ने जोर से ये पंक्तियां बोलीं... और खामोशी पिघलने लगी...!

"मेरी मंजिल तो अब मुझे बुला रही है, आज की इस शानदार पार्टी के लिए आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ... आज की शाम जेहन में हमेशा रहने वाली है... तो चलें...?" निखिल ने कहा तो रेखा ने पूछ ही लिया कि "कौन सी मंजिल की बात कर रहे हैं आप... कभी कभी मंजिल सामने होती है और हम भटकते रहते हैं।" उसका इशारा अन्नू की ओर था।

"फिलहाल तो मेरी मंज़िल नींद की आगोश है.... बाकी देखेंगे वक़्त कब और कहाँ ले जाएगा।"

"ह्म्म्म... हमारी मंज़िल भी सामने ही है, बस रास्ता लम्बा है... कोई शार्ट कट बताओ न यार..." विजय ने फिर चुहल की।

"क्या अभी डेट फिक्स नहीं हुई है? अब किस बात की देर है? जल्दी शादी करो यार, बारात में जाने का बहुत मन है।" सुनील भी बोल पड़ा।

"रेखा! तुम घर जा रही हो न, मम्मी-पापा से बात करो और फिर बताओ, मैं आ जाऊँगा तारीख निकलवा लेंगे... अब इंतज़ार नहीं होता मुझसे भी..."

"शॉपिंग करने का टाइम तो दोगे न? हमारे ग्रुप में पहली शादी होगी तो फुल्ली एन्जॉय करना है।" अन्नू की बात पर विजय ठहाका लगाकर बोला...."हाँ हाँ कितना भी समय हो लड़कियों को शॉपिंग के लिए कम ही पड़ता है, आप तो मेरी दीदी के समान हो, आपका पूरा ख्याल रखूँगा... रेखा से पहले आपकी शॉपिंग करवाऊंगा।"

"पक्का...?"

"जेंटलमैन प्रॉमिस" विजय ने जिस अदा से सिर झुका कर हाथ उठाया, हम सब हँस पड़े। एक बार फिर माहौल हल्का हो गया।

"रेखा एक गिलास पानी तो पिला दो यार!" विजय की बात सुनकर रेखा उठी, उसके पीछे विजय भी अंदर जाने लगा।

"तुम कहाँ चले, बरखुरदार, दीदी कहा है तो लिहाज भी करो।" अन्नू ने झूठमूठ आँखे तरेरी।

"दीदी! अब अपनी मंगेतर से ठीक से बिदा भी न लूँ, लिहाज कर रहा हूँ, तभी तो अंदर जा रहा हूँ, आप कहो तो आपके सामने ही........" शरारती मुस्कान फेंककर विजय अंदर चला गया।

सुनील भी बाहर निकल गया। मैं बुद्धू जैसी वहीं बैठी रही। सुनील ने इशारा किया तब समझ में आया कि अनिता और निखिल को अकेले में बात करने का मौका देना चाहिए। मैं भी उठकर बाहर आ गयी, किन्तु मन में संकोच भी था कि इस तरह से कोई गलत मतलब न निकल जाए। सुनील जानबूझकर कुछ दूर तक टहलने चला गया था और मैं वहीं खड़ी उसे जाता देख रही थी, फिर से लौट आने के लिए....!

वे तीनों जा चुके थे और हम तीनों के लिए वह रात बहुत लंबी थी।

क्रमशः....21