कभी अलविदा न कहना
डॉ वन्दना गुप्ता
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सुबह मेरा सिर भारी हो रहा था, आखिर पूरी रात जागते हुए बीती थी। मुझे अनमनी देखकर अनिता और रेखा भी चुप सी थीं। किसी ने एक दूसरे से बात नहीं की... यंत्रचालित सी सुबह थी वह... चाय, ब्रेड, जैम, न्यूज़ पेपर और ट्रांज़िस्टर भी था रोज की तरह... अनुपस्थित थी तो अपनेपन की ऊष्णता और रोज रहने वाली जीवंतता...! उस दिन समझ में आया कि संवेदनाएं सिर्फ खून के रिश्तों में नहीं होतीं.. दिल के और दोस्ती के रिश्ते भी आपका दर्द महसूस करते हैं... रेखा और अनिता की उदास चुप्पी इस बात की गवाही दे रही थी... मुझे इंतज़ार था एक तिनके का जिसके सहारे से मैं दुःख की इस वैतरिणी को पार कर लूं... हम तीनों की संवेदनाओं का स्तर शायद अलग अलग था... संकोच की एक महीन परत बाकी थी या कि मेरी कल वाली हरकत से उन दोनों की हिम्मत ही नहीं हो रही थी मुझे या मेरे मन को छूने की... मैंने कल जिस तरह से उपेक्षित व्यवहार किया था वह उन दोनों के लिए अनपेक्षित ही था.. मैंने ही एक दूरी बना ली थी... बिना कुछ बोले खत को जलाना और अपने में गुम हो जाना... मैं सही गलत के तराजू में खुद के व्यवहार को तौल रही थी कि अनिता के हाथ का स्पर्श कंधे पर महसूस हुआ... "तेरे मन में वाकई अंकुश के लिए इस तरह की कोई फीलिंग्स कभी नहीं रहीं या कि हमने जो गुस्ताखी कर ली खत बिना पूछे खोलने की, यह उसका गुस्सा था जो इस तरह से निकला...? अपने दिल से पूछ और सच बता...." अपनत्व की इस ऊष्मा से मेरे दिल में जमा दर्द पिघलकर आँसुओं के रूप में बह चला... इसी लम्हें की तो मुझे तलाश थी.... "सच अन्नू! मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा और न ही अंकुश से ऐसी उम्मीद थी... मुझे उसपर गुस्सा भी आ रहा है और तरस भी... वह मेरा बहुत अच्छा दोस्त था…. उसके दर्द से दुःखी भी हूँ, किन्तु उसकी वजह भी मैं ही हूँ.. जिंदगी इस दोराहे पर लाकर खड़ा करेगी, कभी लगा नहीं था... क्या हमारी दोस्ती अब बरकरार रह पाएगी? एक अच्छे दोस्त को खोने का दर्द हमेशा रहेगा... मैं क्या करूँ?"
"फिलहाल तो दिल दिमाग दोनों को ठंडा रख... एक दो दिन तक अपने दिल से पूछ... अंकुश के बारे में सोचकर देख... शायद दिल के किसी कोने में उसके लिए दबी छुपी सी कोई भावना हो, जिससे तू अनजान हो... एक अच्छा दोस्त यदि लाइफ पार्टनर बन जाए तो बुराई क्या है, मुझे और विजय को देख... शुरुआत तो दोस्ती से ही हुई थी... परिवारजनों की स्वीकृति की मोहर लग गयी तो हम कितने खुश हैं..." रेखा ने समझाने की कोशिश की।
"तू अच्छी तरह जानती है कि विजय ने सजातीय होने से विवाह के प्रयोजन से ही दोस्ती का हाथ बढ़ाया था... वह रोज मिलने के बावजूद भी एक पत्र रोज लिखता है... कुछ याद आया....?" मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गयी थी विजय के पत्र के किस्से का जिक्र होने पर... माहौल कुछ हल्का हो गया...
वह एक सुहानी शाम थी जब हम तीनों फ्री मूड में बैठकर भेलपूरी खा रहे थे तभी आवाज़ आयी.... 'पोस्टमैन'... हम चौंक गए.. घर के पते पर पहला पत्र था... अंतर्देशीय पत्र... नीले रंग का... भेल का खट्टा नमकीन स्वाद कोई छोड़ना नहीं चाहता था.. पत्र किसका है यह भी नहीं पता था.. तीनों उत्सुकता प्रदर्शित किए बिना खाते रहे... पोस्टमैन दरवाजे तक आ गया... पता देखते हुए पढा.... 'रे....खा...' आगे कुछ बोलने के पहले ही रेखा त्वरित गति से पत्र झपट कर अंदर रूम में चली गयी.. पीछे पीछे हम दोनों भी लपके। पत्र फाड़ा और पढ़ना शुरू किया...
'प्रिय रेखा,
प्यार...
आज अक्षय तृतीया है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरा मटका, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये। ...................
तुम्हारा विजय।
पत्र की आगे की पंक्तियों में आखा तीज के महत्व का पूरा निबंध लिखा था। बस हैडर और फुटर ही थोड़े रोचक थे। पढ़कर रेखा विचित्र सम्मोहित अवस्था में थी। प्यार में लिखा पहला खत था और उसमें पूरा निबंध था... हमने बहुत मज़े लिए थे कि अपनी भावनाओं का जिक्र लिखने के बजाय..... "वो क्या है न कि विजय को पता था कि तुम लोग पत्र पढ़ोगे... दिल का हाल तो मिलकर ही बता देगा..." रेखा के एक्सप्लेनेशन में भी दम था। फिर तो रोज़ ही एक पत्र आता था... हमारा देश उत्सवों का देश है, रोज ही एक न एक विशेष दिन होता है... कोई त्यौहार, किसी महापुरुष की जयंती, कोई विशेष दिवस आदि... बस पत्र की प्रथम और अंतिम पंक्तियाँ स्थिर रहती थीं और बीच में अवसर विशेष का निबंध होता था। अब तो पोस्टमैन भी पत्र देते हुए मुस्कुरा देता था। यह जानते हुए भी कि पत्र में हाल ए दिल नहीं जिक्र ए दिवस होगा, हम सब पत्र की प्रतीक्षा उत्सुकता से करते थे, आखिर हमारी जनरल नॉलेज भी बढ़ रही थी। उस दिन हम सब बैठकर पकौड़े के साथ चाय का आंनद ले रहे थे... पोस्टमैन पत्र देकर गया और विजय और निखिल सर का आगमन हुआ।
"एक किस्सा याद आ गया, इजाजत हो तो बताऊँ?" मेरी बात पर किसे एतराज हो सकता था... मैंने कहना शुरू किया... "एक आशिक अपनी माशूक के प्यार में इस कदर गिरफ्तार थे कि हर पल उन्हीं के खयालों में खोए रहते थे... उन्होंने अपना हाले दिल सुनाने के लिए खत लिखना शुरू किया... रोज एक खत...."
"फिर क्या हुआ?" सबको मेरी बात में रेखा विजय की कहानी नज़र आयी।
"फिर होना क्या था उनकी माशूक ने हरकारे से शादी कर ली...!"
"ह्म्म्म... लगता है आपको हमारे खत से तकलीफ होने लगी है... हम दुआ करते हैं कि आपको भी जल्द ही कोई खत लिखने वाला मिले..." विजय की बात सुन हम सभी हँस दिए थे तब... किन्तु आज....?
आज जब खत मिला तो अजीब स्थिति बन गयी थी। मेरा मन फिर अंकुश और उसके प्रपोजल के बारे में सोचने लगा।
"अब तू रिलैक्स हो जा, ज्यादा मत सोच... कॉलेज से लौटकर बात करते हैं।" अनिता कॉलेज चली गयी और रेखा भी किचन में... मैं वहीं बैठी सोचती रही...
अंकुश के पत्र मिलने का एक फायदा यह जरूर हुआ कि मैं मेरे मन की बात जान सकी... मेरे मन में सुनील की जो जगह बन चुकी थी वह कोई और नहीं ले सकता था। मैं जल्द से जल्द सुनील से मिलना चाहती थी, उससे हर बात शेयर करना चाहती थी... सच हमारा मन कितना रहस्यमयी होता है... प्यार का अहसास कितना सुखद और कोमल होता है, किन्तु तभी जब यह टू वे हो... एकतरफा प्यार में दर्द ही दर्द होता है... मुझे अंकुश के दर्द का अहसास था, किन्तु एक दोस्त की तरह... इस वक्त मुझे सुनील का दर्द भी महसूस हो रहा था... मैं उसकी फीलिंग्स से अनजान नहीं थी, बस कर्तव्य और एहसान के तले वह अपना प्यार व्यक्त नहीं कर पा रहा था और इस बात से मुझे अधिक तकलीफ हो रही थी। प्यार एक एहसास ही तो है... कभी नर्म नर्म मखमली और कभी सख्त सख्त चट्टान सा, शायद उम्र के इस दौर में हर कोई इस मोड़ से गुजरता है। मुझे कभी पढ़ी एक कहानी याद आ रही थी जिसमें नायक नायिका ताज़िन्दगी प्यार करते हुए भी कभी मिल नहीं पाते... इस थीम पर बनी कई फिल्में दिमाग से गुजर गयीं। सच है प्यार का मतलब सिर्फ पाना नहीं होता, प्यार में त्याग का अपना महत्व है, जब प्रिय की खुशी ही सर्वोपरि होती है। यहाँ पर सुनील का त्याग मेरे लिए नहीं होकर उसके भाई के लिए दिख रहा था जबकि अंकुश के पत्र की एक एक पँक्ति उसके मेरे प्रति प्यार को परिभाषित कर रही थी... मुझे पाने का आग्रह कहीं नहीं था बस उसके प्यार का इजहार था और प्रतिदान की अपेक्षा तो थी किन्तु जिद नहीं थी। अशोक का केयरिंग एटीट्यूड भी मुझे प्रभावित कर रहा था.. उसने सीधे सीधे विवाह का प्रस्ताव देने के साथ मेरे परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी बखूबी निभायी थी। अब मेरे सामने दो विकल्प थे... अंकुश और अशोक, जिनमें से एक के प्रति दोस्ताना और दूसरे के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव था, दोनों का ही प्रस्ताव मुझे स्वीकार्य नहीं था। सुनील के प्रति अपनी चाहत को मैं और भी शिद्दत से महसूस कर रही थी। वक़्त की रफ्तार कभी थमती नहीं है... घड़ी की टिक टिक से तेज़ दिमाग में चलते अंतर्द्वंद्व की रफ्तार भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी, उसे विराम देना ही उचित था, क्योंकि कॉलेज का वक़्त हो चुका था।
आज की शाम कुछ खास थी, निखिल सर का जन्मदिन था और मैं मेरी परेशानी से इन लोगों का मूड खराब नहीं करना चाहती थी, अतः मैंने कॉलेज के बाद घर वापसी का मूड बना लिया था। उस दिन वापसी तो हुई थी, लेकिन...... वह एक यादगार पार्टी रही थी।
क्रमशः....18