कभी अलविदा न कहना - 16 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 16

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

16

मैं एकदम चौंक गयी... उसके हाथ में वाकई एक लिफाफा था... ग्रीटिंग कार्ड जैसा दिख रहा था... मेरा जन्मदिन आने वाला था, विश किया होगा.... सोचते हुए मैंने कहा... "देख अनिता! मुझे इस तरह के मज़ाक पसन्द नहीं हैं।"

"अच्छा..! क्या तूने कभी जिक्र किया अंकुश का...? बोल फिर हमें नाम कैसे पता...? ये उसी का पत्र है... हमने खोलकर पढ़ लिया है..." मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी लिफाफा हाथ में लेकर कुछ पल खड़ी रही.... यह एकदम अप्रत्याशित था.. मुझे गुस्सा आ रहा था... लेकिन किस पर..? अंकुश पर...? अनिता और रेखा पर...? खुद पर.. या सुनील पर...? मैं समझ नहीं पा रही थी। दिल और दिमाग ने एक साथ हड़ताल कर दी थी।

"अरे! कोई गुनाह तो नहीं किया हमने, तुम्हें तो पता ही है हम तीनों में कितनी ट्रांसपैरेंसी है... सबकुछ कॉमन और एकदम खुला हुआ... बताया तो था तुम्हें पहले ही... कोई दुराव छिपाव नहीं... हमारे रिलेशन के बारे में तुम सब जान ही गयी हो, हाँ तुमने नहीं बताया था तो इस पत्र ने राज उगल दिया....." अनिता बोले जा रही थी... मैं खामोश खड़ी थी... सुन भी नहीं रही थी।

"जो तुम सोच समझ रही हो... वैसा कुछ नहीं है... कॉलेज के लिए लेट हो रही हूँ... बाद में बात करेंगे..." कहते हुए मैंने लिफाफा फोल्ड किया और पर्स में रख लिया।

"पढ़ तो ले...." अनिता बोलती रह गयी और मैं निकल आयी कहते हुए कि..."तुमने पढ़ लिया, वही काफी है.... मुझे पता है कि बर्थडे ग्रीटिंग कार्ड है और कुछ नहीं... तुम इतनी आसानी से मेरे मज़े नहीं ले सकतीं.." कॉलेज में भी मेरा मन नहीं लग रहा था। पत्र पढ़ने की उत्सुकता थी भी और नहीं भी.... दिमाग में अनिता की बात चक्रवात की तरह घूम रही थी... "अंकुश ने तुम्हें शादी के लिए प्रपोज किया है..." विश्वास था कि अनिता मज़ाक कर रही है... आखिर दो साल तक अंकुश मेरा बैचमेट और कॉम्पिटिटर रहा था, हम दोनों ही टॉपर थे और उसका नोट्स के आदान प्रदान हेतु घर आना जाना भी था.. हमारी दोस्ती भी पढ़ाई की बातों तक ही सीमित थी.. इस तरह से न कभी मैंने सोचा था न कभी अंकुश ने सोचा होगा... सिर्फ दोस्ती में कोई इस तरह से शादी के लिए प्रपोज़ कर दे.. नामुमकिन था... मैं निश्चिंत थी और इसीलिए पत्र पढ़ने का उतावलापन जाहिर नहीं किया अनिता के सामने... वरना वे दोनों बेबात ही मेरा मज़ाक बनाती कई दिनों तक...!

घर पहुँची तो अनिता और रेखा नहीं थीं, आज उनका मार्किट का प्लान था। मैंने राहत की सांस ली और गैस पर चाय चढ़ा दी। मैं पत्र पढ़ने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार होने का वक़्त देना चाहती थी। मेरा जन्मदिन आने वाला था, किन्तु अंकुश का ग्रीटिंग आना भी अप्रत्याशित ही था। सिंपल सा बर्थडे कार्ड था.. फूलों वाला... ऊपर लिखा था... 'वैशाली...' बस बाकी सब प्रिंट था और भेजने वाले का नाम भी नहीं था। मेरे मन में अंदेशा हुआ... चाय का कप हाथ में लेकर लिफाफे में रखा कागजनुमा पत्र खोला... एक चिन्दी गिरी... देखा बुकमार्क था, जो मैंने कभी अंकुश की नोट्स कॉपी में लगाया था, उस पेज पर डाउट पूछने के लिए... इसे संभालकर रखने और अब भेजने का क्या मकसद...? दिमाग में और भी प्रश्न उठने लगे थे... मैंने पत्र पढ़ना शुरू किया... घूंट घूंट हलक में उतर रही चाय के साथ कागज पर लिखे शब्द मेरे दिमाग में उतरने लगे...

वैशाली

आपको मेरा पत्र देखकर आश्चर्य होगा। सर्वप्रथम राजपुर कॉलेज में पोस्टिंग के लिए बधाई। मैंने भी यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर जॉइन किया है। आज मैं आपसे अपने दिल की बात कहना चाहता हूँ कि मैं आपसे प्यार करने लगा था। एक चीज भेज रहा हूँ ताकि आप समझ सको कि मैं आपको कबसे चाहता हूँ... यह बुकमार्क मैंने सम्भाल कर रखा था, इसके जैसे और भी बुकमार्क मेरे पास हैं, आपका एक पेन भी मेरे पास है... यूँ तो कभी आपसे सीधे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया... आज अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूँ, इसलिए पूछ रहा हूँ कि क्या आप मुझे अपने योग्य जीवनसाथी समझती हैं..? यदि हाँ हो तो मुझे अगला पत्र लिखने को कहो ताकि मैं अपनी कमियां बता सकूं। यदि न हो तो इसका उत्तर मत देना, आपका पत्र नहीं मिलने से मैं आपका जवाब समझ जाऊँगा। आपकी न से मुझे दुःख जरूर होगा, किन्तु जीने की चाह बनी रहेगी, इतना विश्वास रखें....

-अंकुश

पत्र पढ़कर मैं स्तब्ध रह गयी। बहुत कुछ दरक गया मेरे भीतर... मुझे एक प्रतिशत भी भान नहीं था कि अंकुश के दिमाग में ऐसी कोई बात हो सकती है। मनाली जरूर क्लास के एक बंदे पर फिदा थी और हम सब उसके मज़े लेते थे... फाइनल ईयर में हम सब क्लास पिकनिक पर गए थे... लोकल पार्क में टिफिन पार्टी... खूब एन्जॉय किया था... उस दिन मनाली ने राकेश को प्रपोज किया था और उसने हाँ कह दी थी... मैं खूब नाराज़ हुई थी मनाली पर... 'थोड़ा सब्र कर लेती, यूँ लड़कियाँ प्रपोज़ करें तो अच्छा नहीं लगता, वह आज ही पहल कर लेता, हम सब माहौल बना ही रहे थे...' उस दिन पहली बार जाना था कि लड़कों से दोस्ती बुरी नहीं होती... खूब अंत्याक्षरी खेली थी.. मुझे गाने बहुत याद रहते हैं, उस दिन सबको मेरे जैसी सीधी-सादी पढ़ाकू लड़की का यह पहलू देखकर आश्चर्य हुआ था। फाइनल ईयर में हम मात्र पाँच लड़कियां और लगभग दस लड़के थे... हम लड़कियों की टीम जीत गयी थी और मुझे गाने याद रखने के लिए अंकुश के द्वारा पी एच डी की उपाधि दी गयी थी... आखिर मुझे पुराने गाने गायक, गायिका और फिल्मों के नाम सहित याद रहते थे। मैंने बताया कि मैं मैथ्स के सवाल हल करते हुए भी रेडियो सुनती थी और शायद ही कोई गाना हो जो मैंने नहीं सुना हो... !

"अच्छा तो तुमने वह गाना भी सुना होगा... "चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर...." अंकुश का प्रश्न सुनकर राकेश ने स्माइल दी... तब मुझे लगा था कि मनाली ने जल्दी की... राकेश भी उसे पसन्द करता है, तभी यह इशारेबाजी हुई है....

"हाँ... और यह भी पता है कि लाल बंगला फ़िल्म के लिए मुकेश ने गाया है.." मैंने बेलौस अंदाज़ में जवाब दिया और मनाली को कनखियों से देखा... उसकी नज़र राकेश पर फोकस थी... मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि अंकुश का मतलब कुछ और था... आज पत्र पढ़कर मैं एक वर्ष पीछे पहुँच गयी थी। तमाम किस्से और दृश्य स्मृति पटल पर ताज़ा हो गए थे... मुझे बहुत अजीब फील हो रहा था। दोस्ती पर से भरोसा खत्म हो गया था.. लोग सच कहते हैं कि एक लड़के लड़की की दोस्ती नहीं हो सकती... क्या ये महज आकर्षण या सम्मोहन था..? मुझे ऐसा कभी नहीं लगा था कि अंकुश मेरे प्रति आकर्षित था, मैंने गलती से भी कभी कोई हिंट नहीं दिया था... फिर...?? इससे भी ज्यादा गुस्सा मुझे अनिता पर आ रहा था... ठीक है, साथ रहते हैं, सबकुछ कॉमन है, मेरा तेरा बिल्कुल नहीं... फिर भी सबकी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी होती है, थोड़ी स्पेस हर रिलेशनशिप में जरूरी है... उन्हें मुझसे पूछे बिना मेरा पत्र नहीं खोलना चाहिए था... मैं पढ़ने के बाद उन्हें बता देती, यह बात अलग होती, किन्तु इस तरह.... जो रिश्ता था ही नहीं वह उनके सामने गलत तरीके से जाहिर हुआ था, इस बात से मैं काफी अपसेट थी। मैं खयालों में गुम थी, चेहरे पर आँसू की धार सूखकर जम गई थी और मुझे इसका अहसास ही नहीं था। दरवाजा पीटने की आवाज़ से तन्द्रा भंग हुई... "सो गई थी क्या.? कितनी देर हो गयी हमें खटखटाते हुए...." अनिता कहती हुई अंदर चली गयी और रेखा मेरे चेहरे को देख घबरा गई... "क्या हुआ तुझे..? रो रही थी क्या...?"

"कुछ नहीं, नींद लग गयी थी।" कहते हुए मैं सीधे किचन में गयी... पत्र फाड़कर गैस पर रखा और लाइटर सुलगा दिया... नीली लपट भी ऊँची और पीली हो गयी... धू धू करती लपटों में बहुत कुछ जलता हुआ पिघल रहा था.... दोस्ती का एक रिश्ता.... परस्पर विश्वास.... परस्पर दखलंदाजी.... और भी न जाने क्या क्या....! निखिल सर और विजय आ चुके थे और बाहर के रूम में चारों की बैठक जम चुकी थी। अनिता और रेखा ने पत्र खोलने में जो अपनापन दिखाया था, वह अब नदारद था... मुझे इस समय सुनील की बेतहाशा याद आ रही थी... वही एक कंधा दिख रहा था जिस पर सिर टिकाकर मैं रो सकती थी... अपना मन हल्का कर सकती थी। मन के किसी कोने में अंकुश के टूटे दिल की दबी आवाज़ थी जो कि सुनील के हाथों का सहारा पाकर खामोश हो जाना चाहती थी... मुझे यकीन हो गया था कि मैं सुनील से प्यार करने लगी हूँ.... अब शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी... अंकुश को प्रत्युत्तर देना नहीं था, किन्तु उसके लिए दुःख भी था और वह एक दोस्त के खो जाने का दुःख था... दोस्ती में खरे न उतर पाने का दुःख था और सुनील से इजहार न हो पाने का दुःख भी था।

क्रमशः....17