कभी अलविदा न कहना - 15 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 15

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

15

आज बस में चढ़ते हुए न कोई उत्सुकता थी और न ही इंतज़ार... इन दो तीन दिनों में हुए अनुभवों से मैं विचलित होने के बावजूद स्व-केंद्रित सी हो गयी थी। अंकित का मेरिट में आना एक खुशगवार झोंका था जो अलका दी, अशोक और सुनील के खयालों को दूर उड़ा कर ले गया था। सुनील और मैं साइन और कोस की सीरीज की तरह अक्ष के पास आते और पुनः दूर चले जाते... मैंने भी सोच लिया था कि कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचना है... मेरी स्थिति उस नाविक की तरह थी जो तूफान आने पर नौका को किनारे की ओर पूरे मनोयोग से विपरीत धारा में भी खैने का पूरा प्रयास करता है, किन्तु एक समय के बाद पतवार छोड़कर लहरों के भरोसे हवा की दिशा में बहने लगता है... किस्मत के भरोसे.... मैंने भी यह फैसला किस्मत के हवाले कर दिया था... पन्द्रह दिन और... फिर तो समर वेकेशन मिल ही जाएगी।

"बधाई हो…... आज भी पेपर में मास्टर अंकित ही छा रहे हैं...." सुनील मेरे पास आकर बैठ गया था।

"धन्यवाद..... " इससे अधिक मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

"ताईजी की तबियत को लेकर परेशान हो?"

"नहीं…. वे अब ठीक हैं... एक दो दिन में घर आ जाएंगी।"

"फिर आज मिजाज बदले हुए क्यों हैं...? यार तुम्हें तो खुश होना चाहिए... तुम्हारे भाई की उपलब्धि पर.… देखो उसके इंटरव्यू में तुम्हारा नाम भी छपा है..."

"मैं बहुत खुश हूँ, तुम्हें दिखायी नहीं दे रहा तो क्या करूँ?"

"मिठाई खिलाओ सबको.... लो मैं ही ले आया हूँ, मुझे पता था तुम नहीं लाओगी..." उसने मिठाई का डिब्बा निकाला और अप डाउनर दोस्तों के आगे कर दिया... "लो सब वैशाली के भाई के मेरिट में आने की खुशी में मिठाई खाओ..."

सबने प्रशंसा की और बधाई दी.... मुझे अच्छा लगा... सुनील बेवजह तो मेरा ख्याल नहीं रखता.... यदि हमारे बीच कुछ पनप रहा है तो बाहर क्यों नहीं आ रहा... वह पल में तोला और पल में माशा जैसा व्यवहार क्यों करता है...? प्रश्न फिर कुलबुलाने लगा था... प्रत्यक्ष में मैंने कहा कि... "मैं जरूर लाती, किन्तु ताईजी की तबियत के कारण याद ही नहीं रहा।"

"एक ही बात है विशु... तुम खिलाओ या सन्नी....." शेफाली ने मिठाई का पीस उठाते हुए कहा। मैं कटकर रह गयी.... क्या शेफाली भी कुछ भाँप रही थी?

"और सुनाओ.... अब अंकित आगे क्या करने वाला है?" मिठाई खाने के बाद सब अपने में व्यस्त हो गए थे और सुनील ने बात शुरू की।

"कॉमर्स के बाद कौन सी लाइन है, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, उसे बोला था मैथ्स लेने को, किन्तु उसने मेरी बात नहीं मानी।" मेरी आवाज में एक हताशा थी।

ये सही है कि मैं चाहती थी कि वह आई आई टी एंट्रेंस क्रैक करे, उसमें पोटेंशियल भी था, किन्तु नये नये कॉमर्स के ट्रेंड में वह बह गया था। मैंने उससे एक माह तक बात नहीं की थी, किन्तु उसके शब्द आज भी मेरे कानों में गूंज रहे थे... "दीदी साइंस न लेकर भी आपको कभी निराश नहीं करूंगा.... आपको अपने भाई पर गर्व होगा... और वाकई आज तक हमें उस की उपलब्धियों पर गर्व होता है।

"ह्म्म्म.." सुनील ने सिर्फ इतना ही कहा था। उसे अचानक कुछ याद आया.... "विशु मैंने कल अशोक भाई से बात की थी।"

मैं फिर 'विशु' बन गयी... मुझे यकीन हो गया था कि अब वह बिल्कुल सच बोलेगा... क्योंकि उसके मन से आवाज़ निकली थी जो मैंने सुन ली थी.... मैं भी उत्साहित होकर बोली.... "क्या बात हुई और क्या कहा उन्होंने अलका दी से शादी के बारे में...." शायद इतना उत्साह ठीक नहीं था क्योंकि वह अजीब नज़रों से मुझे देख रहा था...

"तुम्हें पता था न कि तुम्हारी अलका दी खुद भाई से शादी नहीं करना चाहती थीं और उन्होंने ही कहा था कि भाई उन्हें नापसन्द कर दे.... तुमने मुझे क्यों नहीं बताया?"

"वो वो... दरअसल मुझे......."

"तुम जानना चाहती थीं कि अशोक भाई ने तुम्हें झूठ तो नहीं कहा.... यही बात थी न?"

"अब तुम जान ही गए हो तो मैं क्या बोलूँ..? तुम्हें तो दीपक वाला किस्सा भी पता है तो अब इस बात को डिस्कस करने का कोई मतलब नहीं है..." मैंने टालना चाहा।

"विशु! तुम किसे आजमाना चाहती हो.... ? भाई को... मुझे या खुद को...? क्या जानना है तुम्हें..? अशोक भाई तुम्हें पसन्द करते हैं, ये सच है, तुम अपने मन को तो टटोलो.... तुम क्या चाहती हो? यदि अलका दी ने वह पुर्जा नहीं दिया होता तो वे शायद तुम्हारी तरफ ध्यान भी नहीं देते और अब इतना सब होने के बाद वे शायद अलका दी के बारे में सोचना भी नहीं चाहेंगे... और यदि वे मेरे मन की बात समझ गए तब भी........." अनजाने ही फिर उसने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी... भान होते ही उसने बात पलटने की कोशिश की..... "मेरा मतलब है कि अलका की मुझसे शादी की इच्छा से मेरा इत्तफाक न रखना.... यदि वे समझते होंगे तो वे मुझे फ़ोर्स नहीं करेंगे और अब तो बिल्कुल भी नहीं.... जबकि तुम्हारी दी इतना बड़ा कांड कर चुकी हैं तो......." इस बार बात जान बूझकर अधूरी छोड़ी थी।

"मेरे इन्कार का उनपर क्या असर होगा...? मैं उनकी इज्जत करती हूँ, वे एक बहुत अच्छे इंसान हैं, मेरे मन में उनके प्रति सम्मान भी है और श्रद्धा भी, किन्तु मैं प्यार किसी और से करती हूं.... उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ... तुम्हें पहले ही कहा था कि उन्हें मेरे निर्णय से अवगत करवा देना, किन्तु तुम पहले भाई का फर्ज निभाओगे और बाद में दोस्त का......" मैं पता नहीं और भी क्या क्या बोलती, लेकिन सुनील के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान देखकर रुक गयी...

"आप.... किसी.... और... से....प्यार...करती...हैं....अरे यार पहले क्यों नहीं बताया... कौन है वह खुशनसीब...?" वह फिर शरारती मूड में था।

"है कोई... आपसे मतलब.....?"

"सीरियसली......?"

"ह्म्म्म... मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं अशोक से शादी नहीं करूँगी... मुझे पता है वे हर तरह से योग्य इंसान हैं, हम दोनों एक अभिरुचि वाले हैं, दोनों की नौकरी एक जैसी है... पर शादी के लिए मेरे मन में उनके प्रति कोई फीलिंग्स ही नहीं हैं... हम दोनों अच्छे दोस्त बन सकते हैं बस.... "

"देखो विशु! शादी के लिए अलग सी फीलिंग्स का क्या मतलब है? जब वे हर तरह से तुम्हारे लायक हैं तो दिक्कत क्या है...? प्यार तो शादी के बाद भी हो जाता है... तुम मानती हो न कि वे तुम्हारी बहुत केअर करते हैं? वे तुम्हें पसन्द करते हैं और अब शायद प्यार भी... वे तुम्हें अपने दिल का हाल बता भी चुके हैं...."

"तो...... मैंने तो उन्हें नहीं कहा कि मुझसे प्यार करो...?"

"प्यार करने के लिए कहा भी नहीं जाता, वह तो बस हो जाता है, जैसे भाई को तुमसे......."

मैं फिर सोचने लगी... 'जैसे मुझे तुमसे और तुम्हें मुझसे... बोल दो न एक बार...' लेकिन शब्द कुछ और निकले... "हाँ... पर मुझे तो नहीं हुआ न उनसे... और न ही अब उम्मीद है... क्योंकि दिल के सितार पर प्यार की जो पहली धुन निकलती है, वो दूसरी बार नहीं निकलती... मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा है, सम्मान है और इसीलिए मैं उनके साथ अन्याय नहीं कर सकती...."

"लेकिन विशु! तुमने सुना होगा न कि शादी उससे करो जो तुमसे प्यार करे, न कि उससे.. जिसे तुम प्यार करो..."

"ये बात अपने भाई को क्यों नहीं समझाते..?"

"विशु मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ... और मुझे पता है कि भाई तुम्हें बहुत खुश रखेंगे.."

"ओह! शुक्रिया जनाब.... क्या वाकई ये सब आप मेरी खुशी के लिए कर रहे हो..? या कि अपने भाई की खुशी के लिए..?"

"मैंने क्या किया..?"

"कुछ खास नहीं... आपके कहने और करने में कोई फर्क है या नहीं... आप खुद ही जवाब तलाशिएगा..."

"अरे यार पहेलियाँ मत बुझाओ.... साफ साफ बताओ क्या मतलब है तुम्हारा..?"

"काश कि कोई मशीन ऐसी बन जाए जो दिल और दिमाग की सोच का अंतर बता सके.... आपने जो कहा क्या आपका दिल भी वही कह रहा है..? एक बार पूछकर देखना..... और...."

"मैडम! कॉलेज आ गया, उतरना नहीं है क्या?" कंडक्टर की आवाज़ ने मेरी बात पूरी होने के पहले ही रोक दी...

"आज घर जाऊँगी पहले, बैग रखना है.." कहते हुए मैं झेंप गयी।

"तुम भी एक बार सोचना... सितार के तार यदि कोई छेड़ दे... तो धुन जरूर निकलती है, किन्तु वह कर्णप्रिय तभी होती है जब कोई वादक उसे सही तरीके से सुर में बजाता है..."

"हम्म्म्म.... " मेरे इतना कहते ही बस स्टैंड आ गया था और हमारी चर्चा कुछ आगे तो बढ़ी थी, लेकिन मंजिल तक नहीं पहुँची थी। ऐसा क्यों होता है कि जिससे हम अकेले में खूब सारी बातें करते हैं... सामने आने पर एक संकोच का आवरण ओढ़ लेते हैं। मन में एक आश्वस्ति थी कि मैं धीरे धीरे ही सही, सुनील के सामने अपने मन की बात रखती जा रही थी... देखना चाहती थी कि वह समझकर भी नासमझी का आवरण कब तक ओढेगा... कब वह अपने दिल की खुशी के लिए उसकी आवाज़ सिर्फ सुनेगा ही नहीं, उसे प्रकट भी करेगा और अपने भाई के लिए अपनी इच्छाओं का दमन नहीं करेगा.... यही सब सोचते हुए घर का दरवाजा खटखटाया... अनिता सामने थी... "आइए मोहतरमा.... बड़ी छुपी रुस्तम निकली तुम तो....!"

मैंने पलटकर देखा.... सुनील से बाई बोल चुकी थी, वह मुझे छोड़ने नहीं आया था क्योंकि आज बैग हल्का था... फिर ये क्या बोल रही थी....?

"क्यों क्या किया मैंने?"

"अंकुश ने तुम्हें शादी के लिए प्रपोज किया है..." उसने एक खुला हुआ लिफाफा मेरे हाथ में रखते हुए कहा...

क्रमशः....16