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आत्मा अमरधर्मा

आत्मा अमरधर्मा

श्री आर. आर सिंघई 85 वर्ष वन विभाग से सेवानिवृत्त है। उन्होंने जैन धर्म, सनातन धर्म, भक्ति साहित्य के साथ, अंग्रेजी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है। उनका व्यक्ति, परिवार और समाज के नैतिक उन्नयन पर चितंन एवं प्रयास अनुकरणीय है।

उनका चिंतन है कि 85 वर्ष की आयु पार कर लेने के बाद अब ना जाने कितनी सांसे और बची है। वह किसी भी घंटे, सेंकेंड पर मृत्यु को प्राप्त हो सकते है किंतु मृत्यु का यह रहस्य आज तक किसी को ज्ञात नही हो सका है। शरीर मरण धर्मा है और आत्मा अमर है अर्थात जिस जिस ने जन्म लिया है उसका मरण अवश्यम्भावी है। मनुष्य जन्म प्राप्त होना बडी उपलब्धि है और उसे सार्थक बनाना महान उपलब्धि होती है। बुढापा एक बिन बुलाए मेहमान के समान है जो आता है तो अपने साथ लेकर ही जाता है। बुढापा जीवन का एक परिपक्व व मीठा फल है जिसमें ज्ञान की पूर्णता, अनुभव की मिठास, जीवन जीने की गहराई होती है। कई व्यक्तियों ने बुढापे में ही जीवन की महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित की है अस्तु इसे अशक्ति, बीमारी और पराधीनता का अभिशाप न समझे और अपनी सोच सकारात्मक रखे। अपने परिवारजन, पुरजन एवं समाज से कुछ आशा अपेक्षा न रखें अन्यथा दुखी होना पडेगा।

भारतीय संस्कृति के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरूषार्थ माने गए है। यदि मनुष्य धर्म के नियंत्रण में अर्थोपार्जन और काम अर्थात् अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हुए इस काल में भी मोक्ष मार्ग पर चल सकता है। गृहस्थ के लिए धन की आवश्यकता है, साधु का जीवन बिना धन के चल जाता है उसी में उसकी शोभा है। आज के इस अर्थ प्रधान युग में यह बात स्पष्ट हो गई है कि अर्थ है तो कुछ अर्थ है नही तो सब व्यर्थ है।

युवाओं में शक्ति भंडार, आगे बढकर काम करने की रूचि और लक्ष्य तक पहुँचने का दृढ संकल्प रहता है परंतु उन्हें जोश में होश का ध्यान रखना चाहिए। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ और सुख शांति का अनुभव करता रहता हूँ। मेरा समाज के लिए संदेश है कि वह गुणों की उपासना करे, अपनी वाणी में मिठास रखे, उसके मन में पाप, दुष्कर्मों के प्रति शर्म हो, अपने आहार और विचारों में संतुलन और विवेक रखे। हमेशा अपने प्रति किये गये उपकारों और उपकारी को कभी न भूले और उनके प्रति कृतज्ञ बना रहे। यदि जीवन में यह आदर्शवादिता पा सके तो उसका जीवन आदर्श जीवन बन जायेगा।

वे अपने जीवन का एक संस्मरण बताते है कि सन् 1970 में प्रदेश के इंदौर संभाग में पदस्थ था, एक हैडकांस्टेबल और दो कांस्टेबल को लेकर वनों के औचक निरीक्षण को निकला। झाबुआ में एक स्थान पर वन में वृक्षों पर कुल्हाडियों के प्रहारों की आवाजें आने लगी तब जंगल में प्रवेश करके देखा तो करीब 40 से 50 आदिवासी सागौन, महुवा आदि वृक्षों को निर्भय होकर काट रहे थे। जैसे ही आरोपियों ने वन विभाग, पुलिस और जीप को देखा। वे सब पास की पहाडी की ओर भागने लगे। मेरे आदेश पर पुलिस ने हवाई फायर किया। वे शीघ्र ही पहाडी पर चढ गये। वहाँ पर उन्होंने अपने तीर कमान छिपा रखे थे। वे तीर बरसाने लगे। हम लोगों ने किसी प्रकार भागकर अपनी रक्षा की। वे पहाडी पर थे और उनकी संख्या अधिक थी। हम अपने काम में सफल नही हो सकते थे। वहाँ से आकर मैंने उच्चाधिकारियों को रिपोर्ट दी। अपनी वह असफलता मैं भूल नही पाता हूँ।

जैन धर्म का अनुयायी होने के कारण मैं पुनर्जन्म पर विश्वास करता हूँ। कर्म ही जगत की विविधता और जीवन की विषमता का जनक हैं। कर्म हम अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से निरन्तर करते रहते है। जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पडता है। इस प्रकार जीव संसार रूपी चक्र में भ्रमण करता रहता है।

अंत में मैं गांधी जी ने जो कहा था उसे बताना चाहता हूँ कि “ वैल्थ विदाऊट वर्क इन ए सिन“ और “ नालेज विदाऊट मारेलिटि इज ए सिन “ अर्थात् नैतिक और आध्यात्मि विकास के बिना यह प्रवृत्ति हमें पतन की ओर ले जाएगी। अंग्रेज कवि शैक्सपियर अपने प्रसिद्ध नाटक जूलिया सीजर में लिखता है “कावर्डस डाइ मैनी टाइम्स बिफोर द डेथ, बट ए ब्रेव मैन डाइज वन्स एंड वन्स फारएवर “।

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