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हलमा

वो समाज जिसे अनपढ़ और पिछड़ा समझता है,वे ही इस धरा को बचाने में अग्रणी भूमिका निभाते आए हैं और निभाएंगे भी।
धर्मभूमि झाबुआ का पर्यावरण बचाने का अभियान:-
सैंकड़ों ग्रामों के हजारों श्रमदानियों ने हाथीपावा की पहाड़ी पर बनाई जल संरचनाएँ । 29 फरवरी शनिवार 2020 को मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिले के गाँवों के सभी रास्ते मानों दशहरा मैदान की तरह सजकर झाबुआ की ओर मुड़ गए हों । जिसके हाथ जो भी साधन मिला हाथ में गैंती, फावड़ा, कुदाल व तगाड़ी लेकर चल पड़ा "हलमा" करने। हलमा भीली भाषा का एक शब्द है, जिसका अर्थ बहुत व्यापक और अत्यन्त संवेदनशील है।जब किसी पर कोई संकट आए या समाज पर कोई विपदा आ पड़े तब भील सहायता के लिए हलमा करने निकल पड़ते थे। सारा गाँव निस्वार्थ होकर संकट में पड़े व्यक्ति अथवा समाज की सहायता को आगे आते। भील समाज में इसे हलमा के नाम से जाना जाता है ।
जैसे बारिश हो गई, बोवनी का समय निकला जा रहा है और गाँव में किसी किसान के पास बैल नहीं हैं तो गाँव के लोग उस किसान के लिए हलमा करते हैं अर्थात सब मिलकर उसके खेत में हल-बैल लाकर बीज डालते हैं । आँधी-पानी में किसी का घर उजड़ गया, उसके पास सिर छुपाने की जगह नहीं बची तो पूरा गाँव मिलकर उसका घर बनाता है, यह हलमा हैं। इस एक हलमा शब्द में करुणा, दया, परोपकार,परमार्थ, अपनत्व, ममत्व आदि न जाने कितने भाव छुपे हैं। आज के समय में मानवीय महत्वाकांक्षाओं के चलते सम्पूर्ण प्रकृति संकट में आ गयी है। जिसके परिणाम जल संकट, कम होती वनसम्पदा, नष्ट होते जीव तथा बदलती जलवायु जिसके कुप्रभाव सम्पूर्ण मानवजाति पर स्पष्ट दिख रहे है।
ऐसे में अगर आज कोई सर्वाधिक संकट में हैं तो वह धरती माता। भील समाज अपनी धरती माता को बचाने के लिए हलमा करने चल पड़ा है ये वही भील समाज है जिसे आधुनिक प्रबुद्ध समाज ने निम्न ओर वनवासी, आदिवासी समाजभर की संज्ञा दी डाली है। वही भील समाज धरती माता को बचाने के लिए आगे आया है और जिसका लाभ अन्य सभी मानवों को होगा। पिछले दस वर्ष से झाबुआ की हाथीपावा की पहाड़ियों पर सवा लाख से अधिक वर्षाजल संरचनाओं का निर्माण सामुहिक श्रमदान से हुआ है। धरती की जल संचयन क्षमता बड़े, जल स्तर बना रहे, वनसंपदा व जीव संरक्षण के लिए हजारों पौधे लगाए गए हैं। इस महाअभियान को संचालित किया है, संस्था- शिवगंगा ने। शिवगंगा झाबुआ की प्रेरणा से जिले में अभी तक 65 तालाबों का निर्माण हलमा से किया गया है।
शिवगंगा अभियान के प्रणेता आदरणीय महेश जी कहते हैं "अगर जल, जंगल, जमीन,जानवर को बचाना है तो जन को जागृत व सुशिक्षित करना होगा।" इन्हें बचाने का विचार हमारी परम्पराओं में ही निहित है । हलमा हमारी संस्कृति की उसी परम्परा की एक सीख है ।
आसमान से बरसने वाले पानी को ही गंगा जल मानकर उसका संरक्षण करें और उस पानी को धरती में ठहराने के जतन करें जो भगवान शिव की जटाएँ हैं। जो लोग ऐसा कर रहे है वो आज के भागीरथ है । उन लोगो का यह प्रयास शिवगंगा अभियान के माध्यम से झाबुआ की धर्मभूमि पर गंगा प्रवाहित करेगा जो समस्त जीवों के लिए हितकारी सिद्ध होगा।
परमार्थ की भीली परम्परा हलमा से प्रेरित होकर तथा उसका अनुसरण कर हर हजारों महिला-पुरुष केवल परमार्थ की भावना से एक आव्हान पर इकठ्ठे होकर धरती माता की रक्षा के लिए गैंती-फावड़े उठाकर चलना अपने आप में एक अद्भुत भावविभोर कर देने वाले दृश्य थे। सब दूर एक ही गीत गूंज रहा था "धरती माता संकट में हैं जागो, क्यों सो रहे हो ?" 1 फरवरी को प्रातः हजारों-हजार महिला-पुरुष बच्चे अपने हाथों में गैंती-फावड़े-तसले लेकर निकल पड़े हाथीपावा की पहाड़ी पर हलमा करने । प्रातः 7 बजे से 10 बजे तक अपने अथक परिश्रम से न केवल हजारों जल संरचनाएँ बनाई अपितु पुरानी खंतियाँ में भर गई मिट्टी को भी निकालकर उन्हें गहरा किया। वर्षा के समय लगाये गए पौधों में क्यारियाँ बनाई।
आज जब संसार जल संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में ऐसे प्रेरणादायक कार्य हम सभी को जागरूक करते है। सम्पूर्ण मानव समाज को धरती माता को बचाने के लिए आगे आना चाहिए। जो संस्था धरती पर जीवन बचने की ऐसी सार्थक पहल कर रही हैं, सभी को उनका सहयोग करने के लिए आगे आना होगा। हम व्यक्तिगत स्तर पर भी जल संरक्षण को एक प्रतिज्ञा के रूप में लें और कठोरता से उसका पालन करें। सामूहिक तौर पर हम समाज के साथ मिलकर धरती और जल, जंगल, जमीन और जीवों को बचाने के अभियानों से जुड़े अपना योगदान दें जिससे यह कार्य सम्पूर्ण समाज में एक पर्व, एक उत्सव, एक लक्ष्य के रूप में प्रकट हो।

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