जहाँ चाह वहाँ राह Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

जहाँ चाह वहाँ राह

जहाँ चाह वहाँ राह

डा. अंजली शुक्ला (61 वर्ष) अर्थशास्त्र की प्राध्यापक है। वे दुर्भाग्य से 2014 में कैंसर से पीडित हो गई थी परंतु अपने आत्मबल, परिजनों के सहयोग, स्नेह तथा समय पर उचित उपचार के उपलब्ध हो जाने के कारण अब वे पूर्णतया स्वस्थ्य हो चुकी हैं। जीवन के लिये उनका संघर्ष बतलाता है कि सहयोग ओर संकल्प से कठिन से कठिन परिस्थितयों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। सन् 2014 में अचानक ही उनकी जिंदगी में कैंसर के कारण भूचाल आ गया था। उनके हाथों में सूजन रहती थी और दर्द होता था। ऐसा अनेक बार होने पर चिकित्सकों ने जाँच के बाद बतलाया कि आपकों कैंसर हो गया है। वे दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स हास्पिटल में जाँच कराने गई जहाँ पर उन्होंने ब्रेस्ट कैंसर का होना बताया गया। मेरे आत्मविश्वास ने साथ दिया और मुझे लगा कि यदि बीमारी है तो इसका इलाज भी अवश्य होगा। उन्होंने मन में संकल्प ले लिया कि कष्ट तो हो सकता है और उसे झेलना ही होगा परंतु मुझे इस बीमारी से मुक्त होना हैं।

दिल्ली में उनके धर्म भाई श्री नरेन्द्र शर्मा के घर पर रहकर उनका उपचार हुआ। वे जब कभी भी बहुत बेचैन होती थी तो उनके परिवार में उनकी पत्नी, बच्चे और सभी हिम्मत देते और सेवा करते थे। जिससे उनका आत्मविश्वास और भी दृढ हो जाता था। इस बीमारी के रहते हुए भी उन्होंने नौकरी से अवकाश तभी लिया जब अधिक कष्ट होता था वरना अपना कर्तव्य पूरा करती रही। जीवन अनमोल है उसे वे व्यर्थ नही गंवाना चाहती थी। वे अपने को और अधिक व्यस्त रखने का प्रयास करने लगी। दिल्ली में दो कीमोथैरेपी के उपचार के उपरांत बाकी का उपचार जबलपुर में करवाया। उनका मानना हैं कि काम में व्यस्त रहने से जीवन जीने की आशा बढती है और वे अपनी दिनचर्या को पूर्णतया व्यस्त रखती है। वे कई संस्थाओं से पहले भी जुडी थी और आज भी जुडी है एवं कार्यक्रमों में बढचढ कर हिस्सा लेती है। इसी के अंतर्गत उन्होंने रोड फार रन मेराथन में हिस्सा लिया और 5 कि.मी. की दौड पूरी करके कलेक्टर महोदया से 5000 रू. का विशेष पुरूस्कार प्राप्त किया।

बीमारी के दौरान पढे लिखे लोगों की सोच के दोनो रूप देखे। एक ओर मैं जिस वाशरूम का उपयोग करती थी मेरी कुछ महिला मित्र उसका उपयोग नही करती थी। एक अत्यंत पढी लिखी महिला ने तो डाक्टर तक से पूछा था कि यह छूत का रोग तो नही है ? दूसरी ओर दिल्ली में मेरी मुँहबोली भाभी थी जो अपने पोते पोतियों को भी मेरे पास भेज देती थी और मेरे यह कहने पर कि बच्चों को मुझसे दूर रखिये उनका जवाब होता था कि आप उनके साथ रहेंगी तो आपको अच्छा लगेगा। मेरे इन परिजनों की सकारात्मक सोच, प्यार, स्नेह व अपनत्व ने मेरे ठीक होने में बहुत बडा योगदान दिया है। मेरा सोचना था कि जीवन और मरण तो सिक्के के दो पहलू है जो सभी के जीवन में आते है। यही सोचकर मैंने अपने जीवन को सरल बना लिया। दवा के साथ दुआओं में बडी ताकत होती है। मेरे प्रियजनों की आत्मीयता और बुजुर्गों की दुआओं का असर है कि आज मैं जीवित हूँ।