प्रगति की आधारषिला - संघर्ष
म.प्र. के महाधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी (83 वर्ष) विधि के क्षेत्र में एक चिरपरिचित व्यक्तित्व तो हैं ही साथ ही दर्शन, इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में भी विभूति के रूप में जाने जाते है। वे शिक्षा, साहित्य, रंगमंच और समाज सेवा के क्षेत्र में सदैव सक्रिय भूमिका का निर्वाह करते है। समाज के सभी वर्गों के लोगों में वे स्नेह एवं सम्मान से कक्का जी के नाम से जाने जाते है। उन्होंने जब प्रश्नावली को देखा तो वे मुझसे कहने लगे कि मैं अपने जीवन के संस्मरणों को बता रहा हूँ जिनमें आपके सभी प्रश्नो के उत्तर समाहित होंगे।
उनका कथन है कि मैं जब बीते समय को देखता हूँ तो जीवन के संबंध में अनेक विषम संभावनाएँ, मन की इच्छाएँ और दृष्टिकोण के संबंध में अनेक प्रश्न जागृत होते हैं। जीवन यात्रा के दौरान परिवार में अनेक सुख दुख आये, 8 वर्ष अल्पायु में ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मैंने अनेक कठिनाईयों से जूझते हुए अपनी कालेज तक की शिक्षा पूर्ण की। मेरे पास आवागमन का कोई साधन नही था, यहाँ तक कि साइकिल से भी वंचित था परंतु किसी तरह पढ़ता रहा और इंटरमीडिएट परीक्षा में प्रथम श्रेणी में चौथा स्थान मिला। मुझे संस्कृत विषय में म.प्र. में सर्वाधिक अंक पाने के फलस्वरूप स्व. के.सी.दत्त मेमोरियल के द्वारा पुरूस्कार स्वरूप 120 रू. मिले तब मैंने साइकिल खरीदी।
एक बार में स्व. रामेश्वर प्रसाद गुरू के घर गया और उनकी उदारता, बडप्पन देखकर दंग रह गया। उन्होंने मेरी आर्थिक परिस्थितयाँ जानने के बाद कहा कि घबराने की बात नही है यह तो जीवन के उतार चढ़ाव है। जीवन में समय कभी एक सा नही रहता। गुरूजी क्राइस्ट चर्च स्कूल में गणित विषय के शिक्षक थे और अमृत बाजार पत्रिका के हिंदी अंक के संवाददाता भी थे। उनकी कृपा से मुझे इसमें सहायक संवाददाता का कार्य मिल गया। गुरूजी की कृपा से ही मुझे स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में संस्कृत पढाने की नौकरी मिल गई और अब मैं शिक्षक भी था और संवाददाता भी बन गया था। जिससे कुछ पैसे समय पर मिलने लगे। मैंने बी.ए में अंग्रेजी साहित्य, हिंदी साहित्य और संस्कृत साहित्य तीनों विषय लिये थे और मैं अंग्रेजी या संस्कृत में व्याख्याता बनना चाहता था।
उस समय की सरकारी नीति थी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहे विद्यार्थी को पहले नौकरी मिल जाती थी और बाद में वह पी.एस.सी मे चुना जाता था। मैंने कानून की पढाई सायंकालीन समय में करके 1962 में कानून की डिग्री प्राप्त कर ली। सन् 1963 में स्वाध्यायी छात्र के रूप में एम.ए संस्कृत में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद भी किसी कारणवश मुझे नौकरी नही मिली। मेरे सामने भविष्य का दर्शन बडा अंधकारपूर्ण था। मेरी हेडमिस्ट्रेस मुझे अक्सर यह कहकर प्रोत्साहित करती रहती थी कि तुम स्कूल की मास्टरी से कही ऊपर हो। मेहनत करते रहो, अपने व्यक्तित्व को उभारने के लिये प्रयासरत रहो। सफलता एक दिन अवश्य प्राप्त होगी। मेरे अनेक शुभचिंतकों ने मुझे प्रेरणा दी कि वकील बनो। मैंने अपने मन पर काबू रखा और दृष्टिकोण बनाया कि जीवन में आगे बढने के लिए किसी भी तरह मानसिक रूप से सृदृढ़ रहकर आगे बढ़ते रहना चाहिए और इसी विचार के साथ मैं वकालत के पेशे में प्रविष्ट हो गया।
मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं इस विधा में अवश्य सफल होऊँगा। मैंने जब स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करना शुरू किया तब मेरी समझ में आया कि वकालत का पेशा भी आसान नही है और यहाँ भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है। मैं मन लगाकर कार्य करता रहा और धीरे धीरे वकालत से इतनी आमदनी होने लगी कि घर परिवार सुख से रहने लगा। सन् 1980 में मैं शासकीय अधिवक्ता हो गया और उसके चार साल बाद मैं उपमहाधिवक्ता बना और इस पद पर 1988 तक कार्यरत् रहा। इसके बाद मैं पुनः वापिस स्वतंत्र रूप से उच्च न्यायालय में अपने विधि व्यवसाय को करने लगा जो कि आज तक भी चल रहा है। अभी चार महिने पहिले ही म.प्र. शासन ने मुझे महाधिवक्ता बनाया है और मै उस पद कार्यरत् हूँ। मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि महाधिवक्ता पद तक पहुँचने की उपलब्धि के बाद आगे का जीवन कैसा होगा ? मैं अपने जीवन में हमेशा अध्ययनशील व्यक्ति रहा हूँ। इसका परिणाम यह है कि अनेक विषयों में मेरी पैठ होती गयी और आज भी मैं समय का सदुपयोग अध्ययन में कर रहा हूँ।
जबलपुर के सुप्रसिद्ध लेखक स्व. भवानी प्रसाद तिवारी के निवास स्थान पर साहित्य पर गहन चिंतन व विचार विमर्श की अभिव्यक्ति होती थी। मैं भी उसमें सम्मिलित होकर प्राप्य ज्ञान को संजोकर रखता रहा। मेरे जीवन की यह विशिष्ट घटना थी जिसने इस संकल्प को जन्म दिया कि अध्ययन के सिवा जीवन में सच्चा अर्जन और कुछ नही है और आगे बढ़ने के लिये उस पर चिंतन मनन आवश्यक है। इससे मुझे यह प्रेरणा मिली की अपने समय का कैसे सदुपयोग करें।
एक विशेष घटना बता रहा हूँ कि मैं जब बी.ए फाइनल में था तो पहला यूनिवर्सिटी यूथ सम्मेलन ताल कटोरा स्टेडियम नई दिल्ली में हुआ। जबलपुर विश्वविद्यालय की ओर से एक नाटक जिसका शीर्षक था कि आज नाटक नही होगा का मंचन हम लोगो ने वहाँ किया। हम सभी यह देखकर स्तब्ध थे कि उस समय देश के प्रधानमंत्री नेहरू जी स्वयं वहाँ उपस्थित थे। हमारे प्रदर्शन को बहुत सराहा गया और इसे पुरूस्कृत भी किया गया। जबलपुर वापिस आने पर स्वयं कुलपति जी ने स्टेषन पहुँचकर हमे आशीर्वाद दिया था। मैं हमेशा अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर खोजता रहता हूँ और इसी भावना का परिणाम है कि शहर के रंगकर्मियों के साथ मैं उनके संरक्षक के रूप में आज प्रतिष्ठित हूँ एवं मुझसे जितना बन सकता है उनकी मदद करता हूँ।
एक घटना और सुनिए- एक विद्यार्थी सबेरे सबेरे मेरे पास आया और बोला किसी तरह आप मेरी मदद करके मुझे इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन लेने में सहयोग दीजिए। मैंने सारी बात सुनी तो समझ में आया कि बिना पिता के वो लडका, माँ की मजदूरी से अभी तक पढा है। मुझे तत्काल मन में यह वृत्ति जागी कि अपने देश में अभावग्रस्त लोग सचमुच में कितनी बार शिक्षा से वंचित रह जाते है। इस कार्य में अगर हम मदद ना करें तो जीवन किस काम का। मैं पूरे पाँच वर्ष तक चुपचाप उस लडके की मदद करता रहा। आज वो इंजीनियरिंग नौकरी के बडे पद है। मेरी आत्मा को उससे जितना सुख मिला, उसका वर्णन नही कर सकता। हम सब लोगो को अपने मन में यह धारणा बनानी चाहिए कि अभावग्रस्त लोगो के लिए हम अपनी अर्जित संपत्ति में से एक भाग अवश्य बाँटे, ताकि वो भी अपनी प्रतिभा प्रकट कर सकें। आज भी मेरे मन में यही भावना है और जिन कालेजों, स्कूलों का मैं शासकीय निकाय का अध्यक्ष हूँ कभी रोटरी की तरफ से, कभी और लोगों की तरफ से, गरीब विद्यार्थियों को मदद दिलाने की कोशिश करता हूँ। मैं इन सब लोगों की सेवा करके वास्तविक मानव धर्म के पालन करने का प्रयास कर रहा हूँ।
मै 1964 के आरंभ से ही विश्वविद्यालय की राजनीति में सक्रिय होने लगा और अच्छे मतों से जीतकर विश्वविद्यालय कोर्ट का मेंबर बना। इसके पश्चात चुनाव लडकर विद्या परिषद का सदस्य बना जहाँ बडे बडे विद्वान लोग गवर्नर के द्वारा नामांकित किये गये थे। इन सब के बीच में सक्रिय होने का परिणाम यह हुआ कि मेरी तर्क शक्ति को बहुत बल मिला और मुझे आत्मविश्वास जाग्रत हुआ। मैं महसूस कर रहा था कि इसके कारण मेरे वकालत के काम का नुकसान कर रहा हूँ और मैंने विश्वविद्यालय की राजनीति से विदा ले ली। इन सब व्यस्तताओं के बीच मैंने भारतीय दर्शन, संस्कृति और साहित्य के साथ साथ संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन को नही छोडा। मैं रात को नियमित रूप से सोने जाने के पहले एक घंटे साहित्य का अध्ययन करता हूँ। मेरा विश्वास है कि ज्ञान पाने के लिए समझदार व्यक्ति को हमेशा विद्यार्थी के समान रहना चाहिए। आखिर में यही कहना चाहता हूँ कि अभावग्रस्त लोगो की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। शायद ईश्वर ने हमें इस योग्य बनाया है कि हम इनकी मदद कर सकें।