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‘अंग्रेजी मीडियम’- फिल्म रिव्यू - दर्शकों के दिल में मिलेगा ऐडमिशन..?

‘अंग्रेजी मीडियम’ की कहानी आकार लेती है राजस्थान के शहर उदयपुर में. चंपक बंसल (इरफान खान) एक हलवाई हैं और अपनी टिनेज बेटी तारिका (राधिका मदान) के साथ रहेते हैं. घसिटाराम बंसल उर्फ गोपी (दीपक डोबरियाल) भी हलवाई हैं और चंपक के भाई हैं. धंधे को लेकर दोनों भाईओं में दुश्मनी है. कॉलेज की पढाई करने के लिए तारिका लंडन जाना चाहती हैं. बेटी का सपना पूरा करने के लिए एक बाप किस हद तक जा सकता है, उसी की कहानी है ‘अंग्रेजी मीडियम’.

‘अंग्रेजी मीडियम’ की सबसे बडी प्रोब्लेम है इसकी स्क्रिप्ट, जो लगातार इधरउधर भटकती रहेती है. केरेक्टर को डॅवलप करने के लिए फिल्म में इतने सारे सब-प्लॉट गढे गए है की फिल्म मूल मुद्दे से बारबार भटक जाती है. ‘लंडन की कॉलेज में बेटी का ऐडमिशन करवाना है…’ इत्तु सी कहानी में इमिग्रेशन फ्रॉड, खानदानी झगडे, कोर्ट केस, हवाला मनी, ड्रग्स, विदेश की बिखरी हुई लाइफस्टाइल और ‘मेरा भारत ही महान’ जैसे मुद्दे ठूंसठूंसकर फिल्म को बेकार में ढाई घंटे तक खींचा गया है. कई सारे सीन ऐसे हैं जो सिर्फ और सिर्फ कॉमेडी पैदा करने की लालच में ही फिल्माए गए हैं. अफसोस की दर्शक खीलखीलाकर हंस पडे वैसी कोमेडी इतनी कोशिशों के बावजूद नहीं हो पाईं. होमी अदजानिया का निर्देशन ठीक है लेकिन श्रीकर प्रसाद का एडिटिंग सच में कमजोर है. जब बहोत सारे कूक मिलकर कुछ पकाते हैं तो रसोई बेस्वाद होने का खतरा ज्यादा होता है. ठीक यही हुआ है ‘अंग्रेजी मीडियम’ के साथ. चार-चार लेखकों ने मिलकर जो स्क्रिनप्ले लिखा है वो इतना बिखरा हुआ है, की फिल्म कभी भी उस लेवल तक नहीं पहुंच सकती जहां ‘हिन्दी मीडियम’ पहुंची थी. कहानी में कोई नयापन भी नहीं है. पेरेन्ट्स का अपने बच्चों के ऐज्युकेशन के प्रति जो अभिगम दिखाया गया है वो भी बडा ऑल्ड-फेशन्ड का लगता है. आशा थीं की, फिल्म के क्लायमेक्स में शायद कुछ ऐसा अलग होगा जो फिल्म को एक नई उंचाई दे पाऐगा, लेकिन… जब राइटर्स-गैंग ने ठान ही लिया था की कुछ भी नया नहीं परोसेंगे तो फिर क्या इन्टरवल और क्या क्लाइमेक्स…

इरफान खान एक ऐसे अदाकार हैं जो चाहकर भी खराब एक्टिंग नहीं कर सकते. इस फिल्म में भी उनका काम बहोत बहोत बहोत ही अच्छा है. अपनी बेटी के प्रति जो लगाव उन्होंने दिखाया है वो पूरी तरह से दिल को छू लेता है. उनको देखना किसी ट्रिट से कम नहीं. अगर इरफान सर इतने दमदार हैं तो दीपक डोबरियाल भी कहीं कम नहीं. उनका कॉमिक टाइमिंग जबरदस्त है. दोनों भाईओं के बीच की केमेस्ट्री लाजवाब हैं. वैसे केमेस्ट्री तो बाप-बेटी के बीच की भी बिलकुल सटिक हैं. राधिका मदान ने अपने केरेक्टर को बखूबी पकडा हैं. इरफाना और दीपक जैसे सिनियर और धांसू कलाकारों के सामने भी वो कहीं कमजोर नहीं लगतीं. बाकी के सभी कलाकारों के रोल्स छोटे छोटे हैं. करिना कपूर लंडन की पुलिस ऑफिसर बनीं हैं. जो चार-पांच सीन उनके हिस्से में आऐ हैं उन में उनका काम अच्छा हैं, लेकिन फिल्म के आखिर तक ये पता नहीं चलता की वो हर वक्त इतनी गुस्से में क्यों थीं..? उनके जैसे बडी एक्ट्रेस ने इतना एवरेज सा रोल क्यों किया, ये भी हैरानी की बात है..! करिना जैसा ही हाल डिम्पल कपाडिया का भी है. उनके जैसी सिनियर अदाकारा को ऐसे रोल में देखकर दुःख हुआ. दोनों के बीच का एक सीन देखनेलायक है. बाकी ये दो रोल ऐसे है जिसे और कोई भी छोटी-मोटी अभिनेत्री निभा लेतीं और इस से फिल्म को कोई फर्क भी नहीं पडता. क्याइमेक्स में इरफान-राधिका के बीच जो बातें होतीं हैं वो दिल को छू लेती हैं. शराब पीकर बडी बडी डिंगे हांकते इरफान-दीपक को देखने में भी खूब मजा आया, लेकीन ये सारे सीन कलाकारों के बहेतरिन अभिनय की वजह से प्रभावशाली लगें, न की अच्छी लिखावट के कारण. रणवीर शौरी और किकू शारदा ठीकठाक है. मंजे हुऐ एक्टर पंकज त्रिपाठी एक सीन में आते हैं, जिस में अच्छे अभिनय के बावजूद वो दर्शकों को हसां नहीं पाते, क्योंकी डायलोग्स में जान ही नहीं हैं. इन्टरवल के बाद 6-7 डायलोग्स अच्छे हैं, बाकी सब बेअसर. अच्छे संवाद इस फिल्म को बचा लेते, लेकिन अफसोस… कलाकारों की लाख कोशिशों के बावजूद ‘अंग्रेजी मीडियम’ में हसीं के पटाखे फूट नहीं पाऐ. संभावना तो राजस्थानी बैकग्राउन्ड से फनी सिच्युऐशन पैदा करने की भी थीं, लेकिन फिल्ममेकर्स ऐसा करने में भी असफल हुए हैं.

फिल्म का संगीत पक्ष भी साधारण ही है. गुजराती गाने ‘मारी लाडकी…’ का हिन्दी-राजस्थानी रिमेक किया गया है जो की अच्छा है.

कुल मिलाकर देखें तो ‘अंग्रेजी मीडियम’ एक ऐसी फिल्म है जो लडखडाती स्क्रिप्ट की वजह से एक उमदा मूवी बनते बनते रहे गईं हैं. देखें तो भी ठीक, न देखने में भी कोई घाटा नहीं होगा. 5 में से 3 स्टार्स.

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