प्रभु कृपा Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

प्रभु कृपा

प्रभु कृपा

म.प्र. के जाने माने शल्य चिकित्सक डा. ओ.पी. मिश्रा (94 वर्ष) जबलपुर आयुर्विज्ञान महाविद्यालय के शल्य चिकित्सा विभाग में विभागाध्यक्ष के पद कई वर्षों तक रहे है। उन्होने बताया कि उन्हें भगवान के उपर पूरी श्रद्धा व विश्वास है और वे अपने जीवन से बहुत खुश है। उनका कथन है कि जन्म के साथ साथ मृत्यु तो निर्धारित है और यह प्रभु की इच्छा पर निर्भर है कि किसका जीवन कितने वर्षों का है। प्रभु कृपा से इतनी उम्र हो जाने पर भी मुझे कोई प्राणघातक बीमारी नही है परंतु फिर भी मै अब और नही जीना चाहता, क्योकि मेरी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण हो चुकी है। वे अपने निजी जीवन में अपने शैक्षणिक कार्यकाल एवं कैरियर से बहुत संतुष्ट रहे है। हिंदी साहित्य में भी उनकी गहरी रूचि है और उनकी पुस्तक “मेरी कविताएँ, मेरी कहानियाँ“ काफी लोकप्रिय हुई है।

उनका कथन है कि व्यक्ति के मन की इच्छाएँ कुछ भी हो परंतु होता वही है जो उसके भाग्य में निर्धारित है। मैं फिल्म अभिनेता बनना चाहता था और उस समय के सुप्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार मेरे प्रेरणा स्त्रोत थे। मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं चिकित्सक बनकर गांवों में जाकर गरीब जनता की सेवा करूँ। मैंने उनकी इच्छओं का सम्मान करते हुए चिकित्सक का पेशा अपना लिया। मैंने अपनी सिद्धांतवादिता के कारण आजीवन निजी प्रेक्टिस नही की।

मैंने म.प्र. शासन को स्वास्थ्य नीतियो में परिवर्तन करने का सुझाव दिया था। मेरा कहना था कि हमारी शिक्षा प्रणाली पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित है और उसका हमारे देश की आवश्यकताओं के अनुसार भारतीयकरण करना चाहिए। हमारे देश में चिकित्सकगण गांव में नही जाना चाहते। मैंने शासन को सुझाव दिया था कि जैसा मैने लीबिया में अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल के दौरान देखा था कि सेवानिवृत्त होने पर भी जो चिकित्सकगण अभी भी अपनी सेवाएँ देना चाहते थे उन्हें उनकी इच्छानुसार स्थान पर ग्रामीण क्षेत्र में उसी तनखाह पर पुनर्नियुक्ति कर उनके अनुभव का लाभ लेने हेतु भेज दिया जाता था। इससे गांवों में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो जाती थी परंतु शासन ने मेरे इस सुझाव को ना जाने क्यों स्वीकार नही किया ? मेरा चिंतन है कि हमें अपना कार्य ईमानदारी, समर्पण, गंभीरता एवं नैतिकता से करते रहना चाहिए।

वे अपने जीवन का एक संस्मरण बताते हुए बहुत भावुक हो गये। उन्होंने बताया कि वे अपनी मेडिकल कालेज की पढाई समाप्त कर 1947 में आगरा मेडिकल कालेज में रेसिडेंस सर्जन के पद पर कार्यरत थे। उसी समय देश के बंटवारे के दौरान दंगे फसाद हो रहे थे। एक दिन एक सिख युवक जिसकी उम्र लगभग 30 वर्ष रही होगी। अपने दो वर्ष के बेटे को इलाज हेतु गंभीरावस्था में बेहोशी की हालत में लेकर आया था। उस बच्चे का बहुत इलाज करने पर भी दुर्भाग्यवश उसे नही बचाया जा सका और उसकी मृत्यु हो गयी । यह सुनकर वे दुखी मन से उठकर अस्पताल परिसर में ही स्थित अपने घर चले गये। कुछ ही समय बाद दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। मैंने दरवाजे को धीरे से खोला और दरवाजा खुलते ही वही सरदार जी रोते हुए मेरे पैरों पर गिर पडे। मैने उन्हें बडी मुश्किल से उठाया तो वे फफक फफक कर रोते हुए कहने लगे कि आपने तो दिनरात प्रयास करके मेरे एकमात्र बेटे की प्राणरक्षा हेतू अथक प्रयास किया। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ परंतु शायद मेरे भाग्य में ही यह दुख लिखा हुआ था। बंटवारे ने मुझे पूर्ण रूप से बर्बाद कर दिया है। मुझे सबकुछ छोडकर भागना पडा, मेरे सभी नजदीकी रिश्तेदार, मित्र एवं परिवार के सदस्य भी हिंसा का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुके है। मैं ही किसी प्रकार अपने बेटे को साथ लेकर भागकर यहाँ तक आया हूँ अब वह भी मुझे छोडकर चला गया है। अब मै पूरे संसार में अकेला हूँ।

डा. मिश्रा ने बताया कि एक पिता को अपने बेटे से बिछुडने का दुख कितना होता है इस अनुभव उन्हें अपने एकमात्र पुत्र की आसामयिक मृत्यु हो जाने पर महसूस हुआ था। इस घटना ने मुझे बहुत मानसिक वेदना दी एवं आज भी जब यह घटना स्मृति में आती है तो मैं कांप जाता हूँ। डा मिश्रा ने अंत में यह कहते हुए अपनी बात समाप्त की हम सभी को अपने जीवन में कर्तव्य, ईमानदारी एवं निष्ठापूर्वक कर्म करते हुए संसार से विदा होना चाहिए।