कौन दिलों की जाने!
अठतीस
जैसी रानी को आशंका थी, रात से ही हल्की—हल्की बूँदाबाँदी होने लग गई। सुबह कोर्ट के लिये निकलने के समय तक भी जारी थी। आलोक ने कोर्ट तक साथ जाने की कही तो रानी ने उसे फ्लैट पर ही रहने के लिये कहा और स्वयं कार चलाकर निकल गई।
कोर्ट में सब काम ठीक से निपट गया। एक बार जज साहब ने रमेेश और रानी को अवश्य कहा कि आखिरी मौका है, अब भी आप अपनी अर्जी वापस ले सकते हैं। लेकिन जब रमेेश और रानी ने कहा कि अर्जी पूरी तरह सोच—विचार कर ही लगाई है, तो जज साहब ने किसी भी पक्ष की ओर से कोई ऐतराज़ न होने के कारण उनकी आपसी तलाक की अर्जी मंजूर कर ली।
मिस्टर खन्ना रमेश को सम्बोधित करके बोले — ‘रमेश जी, रूटीन में तो जब कोई मुकद्दमा हमारे हक में हो जाता है तो हम अपने मुवक्किल को बधाई देते हैं। लेकिन आपके केस में क्या कहूँ, समझ में नहीं आ रहा?'
रमेश ने मिस्टर खन्ना की दुविधा दूर करते हुए कहा — ‘खन्ना साहब, बधाई ही दीजिए, क्योंकि आज कम—से—कम रोज़़—रोज़़ के मानसिक उत्पीड़न से तो छुटकारा मिल गया है। आगे जो होगा, जैसा होगा, देखा जायेगा।'
‘रमेश जी, फैसले की कापी जब मिल जायेगी, भिजवा दूँगा।'
वकील साहब से फारिग होकर रमेश ने रानी से पूछा — ‘अब क्या प्रोग्राम है?'
‘फ्लैट पर जाऊँगी, आप बताओ!'
‘मेरा मतलब था, पटियाला कब जाना है?'
रानी ने नहीं बताया कि आलोक उसका इन्तज़ार कर रहा है, बल्कि कहा — ‘देखती हूँ कि क्या प्रोग्राम बनता है? जैसा भी होगा, आपको सूचित कर दूँगी।'
जैसे सुबह अलग—अलग आये थे, उसी तरह कोर्ट से निकलकर दोनों ने अलग—अलग रास्ते इख्तियार किये। रमेश अपने ऑफिस चला गया और रानी ने फ्लैट की राह पकड़ी।
एक बजे के लगभग रानी फ्लैट पर पहुँची। वह बेहद थकी और बुझी—बुझी सी थी, उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी। कोर्ट से निकलते वक्त उसके चेहरे पर न खुशी थी और न ही उदासी, किन्तु रास्ते में आते—आते उसके मन को अवसाद तथा आत्मग्लानि ने आ घेरा। मन ने एकबार फिर उसे दोषी करार दिया, धिक्कारा। आत्मपीड़न से वह उद्विग्न हो उठी, जिसके परिणाम स्वरूप शरीर में भी शिथिलता आ गई। रानी जब फ्लैट पर पहुँची तो उसके चेहरे पर उसकी शारीरिक व मानसिक थकान की झलक स्पष्ट परिलक्षित थी। इसे इंगित कर आलोक ने पूछा — ‘कोर्ट में सब ठीक—ठाक तो हो गया ना?'
‘हाँ, कोर्ट में सब ठीक हो गया है।'
‘फिर इतनी उदास और थकी—थकी सी क्यों लग रही हो? तुम्हारे चेहरे की रौनक भी गायब है!'
पिघले स्वर में रानी ने कहा — ‘आलोक जी, प्लीज़ मुझसे कोई सवाल—जवाब मत करो। इस समय मैं कुछ भी कहने—सुनने की मानसिक स्थिति में नहीं हूँ। मैं थोड़ी देर आराम करना चाहती हूँ। कुछ देर के लिये मुझे अकेली छोड़ दो। कहीं मुझे नींद आ जाये तो जगाना भी मत।'
‘खाना तो खा लो।'
‘मेरा मन नहीं है। आप खा लें और आप भी आराम कर लो।'
उठते हुए आलोक ने कहा — ‘तुम आराम करो। मैं दूसरे कमरे में कोई किताब देखता हूँ।'
स्वयं रानी को लगा कि जैसे किसी ने उसके शरीर से सारी शक्ति, सारी ऊर्जा निचोड़ ली हो, देह में प्राण ही न रहे हों। उम्मीद उसे पहले भी नहीं थी कि रमेश तलाक का निर्णय बदल सकता है, किन्तु आज तो कोर्ट ने भी अपनी स्वीकृति देकर उसके जीवन के एक लम्बे अध्याय को हमेशा—हमेशा के लिये सीलबन्द कर दिया था, जिसके पुनः खुलने की हर सम्भावना समाप्त हो गई थी। मन अविचल था। फिर भी लगता था, जैसे उसके अन्दर शून्यता का प्रसार हो रहा था, अन्दर पूरी तरह से रिक्त होता जा रहा था। सम्भवतया इसीलिये शीघ्र ही उसे नींद आ गई।
एक घंटा, दो घंटे, तीन घंटे, रानी सोई रही। इसी बीच आलोक दो—एक बार दबे पाँव रानी को देखने के लिये उठा। रानी को गहरी नींद आ गई थी, जिससे सोने से पूर्व उसकी मुखाकृति पर प्रकट दुश्चिंताओं की रेखाएँ मिट गई थीं तथा उनका स्थान स्निग्धता ने ले लिया थी। परमात्मा की देन — नींद एक ऐसी अवस्था है, जब आती है तो व्यक्ति हर प्रकार की सांसारिक दुश्चिंताओं से मुक्त हो जाता है। रानी को विश्रान्ति की अवस्था में पाकर आलोक फिर से पढ़ने में मग्न हो गया।
रानी की जब नींद टूटी तो पाँच बजने वाले थे। वॉशरूम में जाकर फ्रैश हुई। दूसरे कमरे में आकर देखा, आलोक कुर्सी पर बैठा किताब पढ़ने में मग्न था। रानी ने उसके हाथ से किताब लेकर एक तरफ रखते हुए कहा — ‘जिस तरह से आप किताब पढ़ने में डूबे हुए हो, मुझे नहीं लगता कि आप मेरी तीन घंटे की नींद के दौरान कुर्सी से हिले भी होंगे या आपने कुछ खाया—पीया भी होगा!'
रानी को सहज पाकर आलोक आश्वस्त हुआ। रानी की बात का जवाब न देकर पूछा — ‘पटियाला अब चलना है या सुबह?'
‘चाय पी लें, फिर चलते हैें। अब मेरे लिये इस फ्लैट में और रुकना सम्भव नहीं। मैं ही जानती हूँ कि मैंने इस चार—दीवारी में इतना समय कैसे गुज़ारा है!'
‘तुम्हें चाय की इच्छा हो तो बना लो वरना चलते हैं।'
रानी फुर्ती से चाय बना लाई। चाय पीने के बाद आलोक ने पूछा — ‘फ्लैट की चाबी रमेश जी को देनी होगी?'
‘पटियाला से कोरियर करवा देंगे।'
फ्रिज में जो खाने—पीने की चीज़ें थीं, रानी ने साथ ले जाने के लिये समेटी और आलोक को कहा — ‘चलो।'
पटियाला पहुँच कर रानी ने कहा — ‘आप तन्दूर से खाना ले आओ, इतने में मैं हलवा बनाती हूँ।'
‘नहीं, खाना तुम ले आओ। हलवा मुझे बनाने दो, क्योंकि आज से पहले तक तो तुम इस घर में एक मेहमान की हैसियत से ही आती रही हो, आज इस घर की स्वामिनी बन कर आयी हो तो तुम्हारे स्वागत में इतना करना तो मेरा फर्ज़ बनता है।'
‘आलोक जी, फर्ज़ और हक की बातें अपने बीच में न आयें तो अच्छा रहेगा। हमारे लिये बेहतर होगा कि हम एक—दूसरे को पर्याप्त अवसर दें फलने—फूलने का। मेरी तो यही तमन्ना है कि एक—दूसरे के सुख—दुःख के साथी रहते हुए हमारे बीच किसी भी तरह का कोई आवरण न रहे, किन्तु हम एक—दूसरे की पसन्द—नापसन्द तथा भावनाओं की कद्र अवश्य करें। यदि ऐसा होता है, बल्कि मुझे पूरा यकीन है कि ऐसा ही होगा तो अपने जीवन में आनन्द—ही—आनन्द होगा।'
‘बड़ी उत्तम सोच है तुम्हारी। मैं भी तुम्हारी भावनाओं और विचारों को जीवन—कार्यप्रणाली में अमली जामा पहनाने की कोशिश करूँगा। परमात्मा चाहेगा तो ऐसा ही होगा।'
तीन—चार दिन पश्चात् रानी के पास रमेश का फोन आया। आवाज़़ में किसी तरह का कोई भाव नहीं, महज़ औपचारिक व सपाट स्वर — ‘जीवन की नई पारी शुरू करने के लिये बधाई! फ्लैट की चाबी मिल गई है। तुम तो लगभग सारा सामान वैसे ही छोड़ गई हो। यह सारा सामान तो तुम्हारे लिये ही था।'
रानी ने भी बड़ी सहजता से उत्तर दिया — ‘आपकी बधाई के लिये धन्यवाद! कभी पटियाला आओ तो मिलना। रही सामान की बात, तो जो मेरी जरूरत की चीज़ें थीं, वे मैंने ले ली हैं।'
‘लेकिन बाकी सामान मेरे लिये भी फालतू है।'
‘यदि बाकी सामान आपके लिये फालतू है तो इसे किसी जरूरतमंद को दे देना या अनाथालय भिजवा देना।'
जब रानी ने फोन बंद किया तो आलोक बोला — ‘रानी, यह तुमने बड़ा अच्छा किया जो रमेश जी को बाकी सामान किसी जरूरतमंद अथवा अनाथालय को देने के लिये कह दिया।'
‘आलोक जी, आपने किसी वकील से राय ले ली है या अभी लेनी है?'
‘वकील की राय ले चुका हूँ। जब तलाक की अर्जी मंजूर होने के बाद किसी भी पक्ष द्वारा अपील होने का अंदेशा होता है, उस स्थिति मेंं अपील का समय यानी साठ दिन तक इन्तज़ार करना बेहतर होता है। सामान्यतया अपील महिला पक्ष की ओर से होने के अधिक कारण होते हैं, क्योंकि कई बार इस तरह के केसों में आपसी तलाक की अर्जी पर महिला के हस्ताक्षर फर्ज़ी हो सकते हैं अथवा उसे डरा—धमका कर उसके हस्ताक्षर करवाये हुए हो सकते हैं। दोनों ही स्थितियाँ अपने केस में नहीं हैं। अतः हम जब चाहें, विवाह के बन्धन में बँध सकते हैं। अब हमें देखना है कि हमें कोर्ट में विवाह रजिस्टर करवाना है या किसी मन्दिर में फेरे लेने हैं। मेरे हिसाब से कोर्ट में विवाह रजिस्टर करवाना बेहतर रहेगा, क्योंकि कई बार विदेश—यात्रा के लिये वीज़ा एप्लाई करते समय मैरिज़ सर्टिफिकेट की आवश्यकता पड़ जाती है।'
‘हमें इसके लिये क्या कुछ करना होगा?'
‘हम दोनों की ओर से स्टेंडर्ड फॉर्मेट में एप्लीकेशन जायेगी जिसके साथ हम दोनों की पाँच—पाँच पासपोर्ट साइज फोटो, रेजिडेंशियल प्रूफ के लिये डी.एल., वोटर कार्ड या पासपोर्ट, जन्म—तिथि प्रमाण के लिये जन्म—तिथि प्रमाण—पत्र, पैन या पासपोर्ट, तलाक मंजूर करने के फैसले की सर्टिफाइड कॉपी, रश्मि की मृत्यु का प्रमाण—पत्र, दो गवाहों के हस्ताक्षर तथा हम दोनों के शपथ—पत्र लगेंगे। तुम्हारे पास आधार कार्ड, वोटर कार्ड, पैन आदि तो होंगे?'
‘हाँ, हैं। कोर्ट के फैसले की सर्टिफाइड कॉपी की जरूरत है। खन्ना एडवोकेट का नम्बर मेरे पास है, उनसे ‘रिक्वैस्ट' कर लेती हूँ कि फैसले की सर्टिफाइड कॉपी जल्दी भिजवा दें।'
‘फैसले की कॉपी आते ही एडीएम के ऑफिस में एप्लीकेशन लगा देंगे। सब कुछ ठीक होने पर तीस दिन बाद हमें मैरिज़ सर्टिफिकेट मिल सकता है।'
उपरोक्त बातचीत के बाद रानी ने खन्ना एडवोकेट को फोन मिलाया और फैसले की सर्टिफाइड कॉपी के लिये पूछा। उसने रानी को कोर्ट में मिलने के लिये कहा। दूसरे दिन आलोक रानी को लेकर खन्ना एडवोकेट से मिला। खन्ना साहब ने रानी से फैसले की सर्टिफाइड कॉपी के लिये प्रार्थना—पत्र लिखवाया और कोर्ट में दाखिल कर दिया और रानी को आश्वासन दिया कि दो—चार दिन में सर्टिफाइड कॉपी मिल जायेगी।
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