कौन दिलों की जाने! - 36 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 36

कौन दिलों की जाने!

छत्तीस

28 नवम्बर

रानी अभी नींद में ही थी कि उसके मोबाइल की घंटी बजी। रानी ने फोन ऑन किया। उधर से आवाज़़ आई — ‘रानी लगता है, सपनों में खोई हुई थी! कितनी देर से रिंग जा रही थी?'

‘सॉरी आलोक जी, रात को काफी देर तक पढ़ती रही। इसलिये सपनों में नहीं, गहरी नींद में थी।'

‘यह तो बड़ी अच्छी बात है कि तुम गहरी नींद में थी। पूरी और गहरी नींद भी मनुष्य के लिये अति आवश्यक है। इससे शरीर स्वस्थ रहता है। याद है तुम्हें, आज मैंने इतनी सुबह क्योंकर फोन किया है?'

‘भला यह मैं कैसे भूल सकती हूँ? जीवन के प्रारम्भिक छोर की कुछ सुखद स्मृतियों को मन में सँजोये लम्बे काल तक सांसारिक झमेलों में उलझे रहने के बाद जीवन के दूसरे छोर पर एक वर्ष पूर्व आज के दिन ही तो हम दुबारा मिले थे। बचपन में मिले, एक—दूसरे का साथ निभाने की बातें हुईं, फिर कहीं खो गये। चमत्कार की तरह अवसर आया दुबारा एक—दूसरे के नज़दीक आने का। अविस्मरणीय दिन।

‘जालन्धर से वापस आने पर जब मैं आपके घर लस्सी लेने आई थी, आप घर पर अकेले थे, फिर भी हमारे बीच कोई बात नहीं हो पाई। फिर जब सांसारिक रीति के निर्वाह में विवाह हो गया तो मैंने सोच लिया था कि इस जन्म में तो हमारा मिलन सम्भव नहीं और नियति को स्वीकार कर जीवन—धारा में बहती चली गई। किन्तु भगवान्‌ की लीला को कौन समझ सका है? हमारा पुनर्मिलन एक तरह से अदृश्य सत्ता द्वारा रचा गया चमत्कार ही तो है। यह दिन हमारे जीवन की एक अमूल्य व मधुर स्मृति है। बचपन में पहली बार किस दिन मिले था या किस दिन पहली बार आपने मुझे ‘किस' किया था तो अब याद नहीं, इसलिये आज का दिन ही हमारे लिये जीवन का एक महत्त्वपूर्ण दिन हैे।'

‘रानी, तुम्हारी आज के दिन को हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण दिन मानने वाली बात सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य व प्रसन्नता हो रही है कि कैसे दो दिलों में एक साथ एक—सी भावना पैदा हो सकती है। जो बात मैं सोच रहा था, तुमने उन्हीं भावों को अपने शब्द दे दिये हैं। इससे पता चलता है कि हमारी ‘वेव—लैंग्थ' कितनी समान है! जी चाहता है कि घर की दीवारों में कैद रहने की बजाय कहीं बाहर चलकर स्वच्छन्दता का अनुभव करें। कहाँ जा सकते हैं, तुम भी सोचो, मैं भी विचार करता हूँ।'

घंटे—एक बाद आलोक का फोन आया — ‘रानी, दो—तीन दिन के लिये कपड़े पैक करके तैयार रहना, मैं दो घंटे में तुम्हारे पास पहुँचता हूँ। गर्म कपड़े भी ले लेना।'

‘किसी हिल स्टेशन पर चलने का इरादा है क्या, लेकिन कहाँ?'

‘फॉर द टाईम बीईंग, इसे ‘सस्पेंस' ही रहने दो। इतना तो विश्वास है ना कि जहाँ भी ले जाऊँगा, तुम्हें अच्छा ही लगेगा।'

‘सो तो है।'

कुछ ही पल बीते होंगे कि आलोक का पुनः फोन आया। उसने कहा — ‘रानी, हो सके तो दोपहर के लिये खाना बनाकर पैक कर लेना।'

‘आलोक जी, इसमें हो सकने वाली क्या बात है! आप फोन न भी करते तो भी दोपहर के लिये खाना तो मैंने बनाना ही था। ऐसे काम स्त्रियों को स्मरण नहीं करवाने पड़ते, बल्कि उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति उनसे स्वयं ही करवा लेती है। नाश्ता आपके आने पर ही करेंगे।'

बात समाप्त कर रानी तैयार होने लगी। फुर्ती से उसने नाश्ता और दोपहर के लिये खाना बनाया। आलोक के आने के पन्द्रह मिनट पश्चात्‌ वे नाश्ता कर कार में बैठ चुके थे। रोपड़ निकलने के बाद आलोक ने पूछा — ‘आनन्दपुर साहब के दर्शन किये हैं कभी?'

‘हाँ, एक बार मैं रमेश जी के साथ आई थी।'

‘तब तो विरासत—ए—खालसा' म्यूजियम भी देखा होगा!'

‘नहीं, तब ‘विरासत—ए—खालसा' निर्माणाधीन था।'

‘चलो, सबसे पहले विरासत—ए—खालसा म्यूजियम ही देखते हैं। गुरु गोबिन्द सह जी ने 1699 में इसी स्थान पर बैसाखी वाले दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी और 1999 में खालसा पंथ की स्थापना के 300 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में तत्कालीन एनडीए सरकार के सहयोग से इस ऐतिहासिक इमारत का निर्माण—कार्य प्रारम्भ हुआ था। इस परिसर की परिकल्पना तथा डिज़ाइन इज़राइल में जन्मे तथा कनाड़ा में शिक्षित विश्व—विख्यात आर्किटेक्ट मोशे सैफदी की है। इसकी स्थापत्यकला इस प्रकार की है कि जैसे प्रार्थना में उठे हुए हाथ हों! इसमें सिखों के 500 सालों के इतिहास, पंजाब की संस्कृति व सभ्यता की बृहद्‌ झलकियाँ प्रदर्शित की गई हैं।'

म्यूजियम देखने में उन्हें लगभग दो घंटे लगे। इसके बाद एक ढाबे पर बैठकर घर से लाया हुआ खाना खाया और आगे के लिये चल पड़े। शाम होने से पूर्व ही माता चिन्तपूर्णी पहुँच गये। होटलरूम लेने के बाद माता के दरबार में दर्शन हेतु गये। मंगलाचरण आरती का समय पता किया। मुँह—अंधेरे उठकर स्नान कर मन्दिर पहुँचे। मंगलाचरण आरती में सम्मिलित हुए, माता का आशीर्वाद व प्रसाद लिया। तदुपरान्त नाश्ता आदि करके आगे के लिये प्रस्थान किया। रास्ते में माता ज्वालाजी के दर्शन करते तथा पहाड़ी रास्तों के उतार—चढ़ाव पार करते हुए साँझ ढलने से पूर्व ही चम्बा पहुँच गये।

चम्बा रावी नदी जिसे वैदिक काल में इरावती के नाम से जाना जाता था, के दाएँ किनारे घाटी में बसा एक प्राचीन एवं खूबसूरत ऐतिहासिक नगर है। भरमौर के राजा साहिल वर्मन (वर्मा) ने 920 ई. में अपने राज्य की राजधानी भरमौर से इस स्थान पर स्थानांतरित करते समय इस नगर का नाम अपनी पुत्री के नाम पर चम्पावती रखा था, जो आज चम्बा के नाम से जाना जाता है तथा हिमाचल प्रदेश का एक जिला मुख्यालय है। आलोक और रानी ने होटल इरावती में चैक—इन करके रात्रि—विश्राम किया व अगली सुबह 10वीं शताब्दी में निर्मित लक्ष्मी—नारायण मन्दिर में भगवान्‌ विष्णु व माता लक्ष्मी के साथ—साथ भगवान्‌ शिव के भी दर्शन किये। दो—एक घंटे चौगान मैदान में फैली जाड़ों की धूप का आनन्द लिया व दोपहर का खाना खाकर खज्जियार जिसे मिनी स्विटर्जलैंड भी कहते हैं, के लिये रवाना हुए।

खज्जियार पहुँचकर होटल में चैक—इन किया, चाय पी और निकल आए प्रकृति के अद्‌भुत नज़ारे देखने के लिये। धौलाधर पर्वत—शृंखलाओं से घिरी घाटी के बीचों—बीच एक छोटी—सी झील हरियाली की चादर पर जड़ा एक सुन्दर नगीना—सी प्रतीत होती थी। ऑफ—सीज़न होने के कारण गिनती के ही पर्यटक थे। उनमें भी अधिकतर नव—विवाहित जोड़े ही थे जो हाथों में हाथ डाले झील के आस—पास घूम रहे थे अथवा एकान्त पर्वतीय वातावरण का स्वच्छन्द आनन्द उठा रहे थे। चारों तरफ नज़र घुमाने पर खज्जियार के प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा देखते ही बनती थी। कतारबद्ध गगनचुम्बी चीड़ के घने वृक्षों के झुरमुट को देखकर आलोक को राष्ट्रीय—कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर' की ये पंक्तियाँ बरबस स्मरण हो आईंः

लम्बे—लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,

एक चरण पर खड़े तपस्वी—से हैं ध्यान लगाए।

आलोक ने रानी से पूछा — ‘कुछ देर टहलना चाहोगी या कहीं बैठने का इरादा है?'

‘मेरे विचार में कुछ देर टहल लें तो बेहतर होगा। शरीर थोड़ा खुल जायेगा।'

और दोनों आहिस्ता—आहिस्ता कदम उठाते हुए हरी घास जिसमें थोड़ी नमी थी, पर टहलने लगे। इस तरह के वातावरण में आलोक के साथ घूमने का आनन्द रानी के अन्तर्मन को आह्‌लादित कर रहा था। इस आनन्द को शब्दों में व्यक्त करके वह इसे कम नहीं करना चाहती थी। इसलिये चुपचाप आलोक के साथ कदम मिलाते हुए घूमती रही। रश्मि के देहान्त के पश्चात्‌ यह पहली बार था कि आलोक पहाड़ पर घूमने आया था और वह भी किसी ऐसे साथी के साथ, जिसके साथ उसके दिल के तार जुड़े हुए थे। इसलिये वह भी इस अनुपम अनुभूति को अन्तःकरण में सँजोये रखने के प्रयास में चुप था। दोनों के चेहरे भरपूर आन्तरिक प्रसन्नता से आलोकित थे।

नवम्बर के अन्तिम दिन और पहाड़ों पर सँध्या का समय। साँझ के साये इतनी तेजी से मँडराने लगते हैं कि प्रतीत होता है, जैसे रात तीव्रगति से कदम बढ़ाती आ रही है। साँझ के सर्द धुँधलके में झील के पानी का रंग गहराता नज़र आ रहा था। बुझती हुई रोशनी में चीड़ के हरे पेड़ काले पड़ते दिखाई देने लगे थे। सर्दी बढ़ने लगी थी। जो कुछेक पर्यटक इस समय तक घूम रहे थे, निःसन्देह यहाँ रुकने वाले थे। वे सभी अपने—अपने होटलों की ओर लौटने लगे थे।

रानी — ‘आलोक, ठंड बढ़ती जा रही है, हमें कमरे में चलना चाहिये।'

‘चलो, चलें।'

और वे होटल की ओर लौट आये। रात्रि—भोज के पश्चात्‌ आलोक ने कमरे की खिड़की पर लटके पर्दे को सरकाया। आसपास के होटलों के बाह्य कमरों की खिड़कियों पर लगे पर्दों से छनकर आती बिजली की रोशनी लगभग गायब हो चुकी थी। मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष का चौदवीं का चाँद काली पहाड़ियों के ऊपर विस्तृत आकाश में खूब ऊँचा उठा हुआ मुस्करा रहा था तथा उसकी मुस्कराहट की चमक से न केवल पूरा आकाश नीलिमा लिये आलोकित था, धरती पर भी शुभ्र ज्योत्सना का पूर्ण साम्राज्य था। चहुँ ओर निःस्तब्धता फैली हुई थी। हल्की—सी आहट की आवाज़ भी सुनी जा सकती थी। प्रकृति के अनगिनत रूपों व दृश्यों को देखकर आलोक का मन आह्‌लादित हो उठा। ऐसे अद्‌भुत दृश्य का भरपूर आनन्द लेने के लिये उसने बालकनी की ओर खुलने वाला दरवाज़ा खोला और दो कुर्सियाँ बालकनी में खींच लीं। आलोक के दरवाज़ा खोलते ही सर्दी कमरे में घुस आई, जैसे दरवाज़े पर ही इन्तज़ार कर रही थी। आलोक ने कहा — ‘रानीे, बाहर आओ। देखो, प्रकृति का कितना सुन्दर नज़ारा है! मैंने आज तक ऐसा अनोखा नज़ारा नहीं देखा।'

थोड़ी शिकायत के लहज़े में रानी ने कहा — ‘आलोक जी, दरवाज़ा क्यों खोल दिया, कमरा एकदम से ठंडा हो गया है। दिनभर की थकावट की वजह से नींद आ रही है, बाहर निकलने को मन नहीं करता।'

‘रानी, कॉफी का आर्डर कर देता हूँ। थोड़ी देर के लिये ही सही, बाहर आओ। कॉफी पीते हुए प्राकृतिक सौन्दर्य से आँखों को तृप्त करते हैं। ज्यादा ही सर्दी महसूस हो रही है तो शॉल लपेट लो।'

आलोक का मन रखने के लिये रानी अनमने भाव से बाहर आई। लेकिन बाहर का प्राकृतिक दृश्य देखकर सहसा कह उठी — ‘वाह! कितनी सुन्दरता है! इस खामोशी में कितना सुकून महसूस हो रहा है! आलोक जी, आपके आग्रह का मान रखने के लिये ही मैंने बिस्तर छोड़ा था, किन्तु अब लगता है, यदि मैं बाहर ना आती तो ऐसे सुन्दर व मोहक नज़ारे को देखने से वंचित रह जाती।'

शॉल ओढ़े होने के बावजूद पर्वतीय शीत हवा की एक लहर—सी रानी की गर्दन से रीढ़ की हड्डी के सहारे नीचे तक दौड़ गई, जिससे उसे सारे शरीर में कँपकँपी—सी लगने लगी। उसने हथेलियाँ आपस में रगड़कर गर्मी पैदा करने की कोशिश की। कॉफी के बहाने आधा—एक घंटा बालकनी में बैठने के पश्चात्‌ रानी ने उठते हुए कहा — ‘आलोक जी, आओ अन्दर चलें, अब और ठंड बर्दाश्त नहीं होती।'

आलोक ने और बैठने के लिये नहीं कहा। दोनों अन्दर आये। रानी को ठिठुरते देखकर आलोक ने पूछा — ‘ज्यादा ही ठंड लग रही है तो थोड़ी देर के लिये हीटर चला देता हूँ।'

रानी — ‘नहीं। मुझे हीटर चलाकर सोने की आदत नहीं है।'

‘आदत तो मुझे भी नहीं है। मैं हीटर चलाकर सोने के लिये नहीं कह रहा, मैं तो थोड़ी देर हीटर चलाने की कह रहा हूँ। कमरा थोड़ा—सा गर्म होते ही सोने से पहले ही हीटर बन्द कर देंगे।'

‘जैसी आपकी मर्जी!'

‘मेरी मर्जी नहीं। जैसा तुम चाहो।'

‘ठीक है। थोड़ी देर के लिये चला लो। मुझे तो शायद जल्दी ही नींद आ जाये। हीटर बन्द करने के लिये आपको ही थोड़ी देर जागते रहना पड़ेगा।'

‘कोई बात नहीं। तुम निश्चिंत होकर सोओ।'

कुछ हीटर के सेक, कुछ रजाई की गर्मी के कारण थोड़ी ही देर में ठंड का असर जाता रहा और शरीर का तापमान सामान्य होते ही रानी को नींद ने आ घेरा। आलोक कुछ देर तक जागता रहा और फिर हीटर बन्द कर उसने भी स्वयं को नींद के हवाले कर दिया।

दूसरे दिन मॉर्निंग टी लेने के बाद कुछ देर तक रजाई की गर्माहट का आनन्द लेने के पश्चात्‌ आलोक तो स्नानादि में व्यस्त हो गया, लेकिन रानी रजाई में घुसी रही। जब आलोक बाथरूम से बाहर आया, तब भी रानी ने अभी बिस्तर नहीं छोड़ा था। यह देखकर आलोक ने पूछा — ‘रानी, क्या बात, अभी तक बिस्तर में ही हो, तबीयत तो ठीक है?'

‘हाँ, तबीयत तो ठीक है।'

‘फिर उठो, नहा—धोकर तैयार हो जाओ। नाश्ता करके वापस निकलेंगे।'

रानी ने बिना उठे कहा — ‘आलोक जी, हम एक दिन और नहीं रुक सकते क्या? बिना हिले—डुले बेड पर बैठे—बैठे रजाई की गर्माहट का आनन्द लेते हुए चाय—कॉफी पीना, खाना खाना — इसका भी अलग ही लुत्फ है। इस तरह के एकान्त—सुख को इतनी जल्दी छोड़ने को मन नहीं कर रहा। आपको ऐतराज़ तो नहीं?'

‘मुझे ऐतराज़ क्यों होगा? तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। और एक दिन ही क्यों, दो—चार दिन भी रुक सकते हैं यदि तुम्हारा मन करता है तो। हमने कौन—सा ऑफिस जाना है या किसी को कुछ बताना है?'

‘ठीक है। आज का दिन तो रुकते ही हैं, कल की कल देखेंगे। आपका कोई कपड़ा धोना हो तो दे दो, मैं धो लेती हूँ।'

‘सर्दी का मौसम है। कपड़े बिना धोये भी काम चल जायेगा।'

उस दिन अधिकतर समय उन्होंने कमरे में ही बिताया। केवल दुपहर में जब खूब धूप खिली हुई थी, तब बाहर निकलकर दो—ढाई घंटे धूप का आनन्द लिया।

अगले दिन जब आलोक ने और रुकने के लिये पूछा तो रानी ने मना कर दिया। वापसी पर रास्तेभर रानी इस ट्रिप में आये आनन्द की बातें करती रही।

सूरज ढलने के पश्चात्‌ जब वे वापस सोसाइटी में पहुँचे तो शाम रात में डूबने लगी थी। बॉय करके जब आलोक जाने लगा तो रानी ने कहा — ‘आलोक जी, वैसे तो हमने फ्लैट पर रात को इकट्ठे न रहने का फैसला किया था, किन्तु आज मेरा मन चाहता है कि आप यहीं रुक जाओ। दो महीने के करीब हो गये इस फ्लैट में रहते हुए, फिर भी कभी घर में रहने जैसी अनुभूति नहीं हुई। एक रात के लिये ही सही, इस फ्लैट में मैं घर में होने की अनुभूति अनुभव करना चाहती हूँ।'

आलोक रानी का आग्रह टाल न सका।

***