मृत्यु - जीवन का अंतिम और परम सखा Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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मृत्यु - जीवन का अंतिम और परम सखा

मृत्यु - जीवन का अंतिम और परम सखा

आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी (81 वर्ष ) हिंदी एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा साहित्य के क्षेत्र में दैदीप्यमान नक्षत्र है। उन्होंने जबलपुर, वाराणसी, वृंदावन आदि शहरों में शिक्षा ग्रहण की है। वे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर में संस्कृत एवं पालि प्राकृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष, कालिदास अकादमी, उज्जैन के निदेशक के पद पर रहे है एवं राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित आचार्य है। उन्होंने अनेक पुस्तकों का लेखन एवं संपादन भी किया है जिनमें से प्रमुख है द्वैत वेदान्त तत्व समीक्षा, विवेक मकरन्द, जयतीर्थ स्तुति, अज्ञात का स्वागत, पिबत भागवतम्, राधा भावसूत्र आदि।

उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जीवन एक शाश्वत प्रवाह है। मृत्यु हमें भयभीत करती है और हमारे सारे वैचारिक और भौतिक संसाधनों और सामग्री को सहसा तिरोहित कर देती है। यही कारण है उसके प्रति मन में भय और वितृष्णा का भाव रहता है। जहाँ तक जीवन जीने का प्रश्न है, कौन ऐसा बृद्धिमान व्यक्ति होगा जो जीना नही चाहता और वह यह भी चाहेगा कि जीवन जीना है तो अपनी इच्छाओं के अनुसार जिया जाए, यह संभव नही होता। वृद्धवस्था के उत्तरोत्तर बीतते वर्षो में बढ़ती असमर्थता विराम भी लगाती चलती है। हमारा दृष्टिकोण व्यक्ति और परिस्थिति के साथ जितना सहिष्णु होगा उतना जीवन की संध्या सुखद हो सकेगी।

मेरे जीवन मे अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई है और वे स्मरणीय भी बनी हुई है। उनमें से एक घटना जो मई 1990 में मेरे साथ घटित हुई थी और जो सर्वाधिक प्रभावी रही है, उसका उल्लेख करना चाहुंगा। भारत माता मंदिर हरिद्वार के संस्थापक परम पूज्य निवृत्त शंकराचार्य महामंडलेश्वर श्री स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी भारत माता का पाटोत्सव बडे़ उत्साह से मनाते है। 1990 में भी वह आयोजन बहुत वृहद् रूप में संपन्न हुआ। इस आयोजन में मैं प्रायः सपरिवार जाता रहा हूँ परंतु कुछ कारणवश मैं वहाँ उस बार अकेला ही गया था। लंदन से आए भानु भाई मेहता और मेरे ठहरने की व्यवस्था एक की कमरे में की गई थी। 15 मई 1990 की रात्रि के मध्य मेरी नींद खुल गई। मैं पानी पीने उठा तो मुझे निर्धारित स्थान पर पात्र नही मिला, मैं बिना पानी पिये वापिस अपने पलंग के पास आया, बैठने की कोशिश की तो पलंग पर न बैठ कर नीचे गिर गया। गिरने और मेरे चीखने की आवाज से भानुभाई मेहता उठ बैठे, उन्होंने लाइट जलाई पर मुझे कुछ भी दिखाई नही दिया और मेरे कान से रक्त प्रवाह प्रारम्भ हो गया।

भानु भाई ने सहायता के लिए आवाज लगाई, सब दौड़ पडे। इस हलचल से श्री स्वामी जी भी जाग गये, तेजी से वे नीचे उतर आए और उन्होंने मुझे अपनी गोदी में रख लिया। मेरी नाजुक स्थिति देखकर श्री स्वामी जी ने मुझे चंडीगढ़ पी.जी.आई. भेजने का निश्चय किया। इस घटना की सूचना हमारे घर भेजी गई। मेरी पत्नी, छोटे भाई आदि सूचना पाकर चंडीगढ़ रवाना हो गये। चंडीगढ़ में तीन चार दिन बडी ऊहापोह और चिंता में बीते। तब तक पता नही चल पा रहा था कि ब्रेन हेमरेज है या कुछ और। जाँच के बाद पता लगा कि हेमरेज नही ब्रेन ट्यूमर है।

श्री स्वामी जी ने मुझे बम्बई भेजने का निश्चय किया। बम्बई के प्रसिद्ध चिकित्सालय बाम्बे हास्पिटल में मुझे भरती किया गया। जबलपुर में मेरे मित्र, संबंधी, परिचित चिंता ग्रस्त थे और अपने अपने ढंग से मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की प्रार्थना कर रहे थे। इनमें मैं परमपूज्य नृसिंह पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर श्री रामचंद्र दास शास्त्री जी की कृपा को कभी नही भूल सकता। उन्होंने मंदिर में रूद्राभिषेक, महामृत्युंजय मन्त्र का जाप आदि करवाना प्रारम्भ कर दिया। 2 जून 1990 को मेरे मस्तिष्क की शल्यक्रिया संपन्न हुई तब दूरबीन विधि नही थी। मेरे माथे को खोलकर ट्यूमर निकाला गया। उस दिन बाम्बे हास्पिटल में ब्रैन ट्यूमर के पाँच आपरेशन हुए, उनमें से केवल मैं ही जीवित बच सका।

आपरेशन के बाद लौटकर जबलपुर आया तो पूज्यपाद महाराज श्री रामचंद्र दास जी शास्त्री ने नृसिंह मंदिर में चल रहे अनुष्ठान पूर्ण कराए और दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया। आज 29 वर्ष हो रहे है। मेरा यह दूसरा जन्म ही हुआ जो संतों, मित्रों, परिजनों की शुभकामना का परिणाम था। आज मैं इन सभी दिव्य और मानस सात्विक शक्तियों को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा और स्नेह से यह जीवन निरंतर मंगलमय रूप से चल रहा है।

मुझे लगता है कि आगामी जीवन अज्ञात है और यह किस रूप में कैसा और किस तरह होगा किसी को भी नही मालूम रहता ? हमारी देहनाश के साथ जीवन की वर्तमान यात्रा का विश्राम हो जाता हैं अतः इस अवसर का जितना लाभ उठा सके, जीवन में उठा लेना चाहिए। हमें अपने जीवन के मूल्यों को भलीभाँति समझना चाहिए कि जीवन का प्रत्येक क्षण सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बीते। भगवान बुद्ध की करूणा, भगवान महावीर की तितिक्षा और मीरा की भक्ति, हम सब के जीवन का श्रृंगार बन सके तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। मेरी परिवार से अपेक्षा है कि जिस तरह पूरा जीवन हमने परिवार का ध्यान रखा, प्रेम और यथोचित सम्मान दिया, वैसा ही मुझे भी निरंतर मिलता रहें। हम सभी एक दूसरे का सम्मान करते हुए, सुखी जीवन व्यतीत करे।

मैं अपने जीवन के शेष समय को स्वस्थ्यता, आत्मचिंतन, स्वाध्याय, प्रभु भक्ति तथा समाज एवं संस्कृति के हित के कार्यों में सहयोग देकर व्यतीत करना चाहता हूँ। आज समाज में भारतीय मूल्यों की, मानवीय सौहार्द्र की जितनी दुर्दशा हो रही है उतनी आक्रांताओं से पराधीन रहने पर भी नही हुई। मेरी अपेक्षा है कि हम अपनी जड़ों को पहचाने और उसे सुदृढ़, सार्थक और प्रभावी बनाकर करूणा और मैत्री के अभिन्न अंग बने।