बचपन शुद्ध, यौवन प्रबुद्ध, बुढ़ापा सिद्ध
श्रीमती जयश्री बैनर्जी (82 वर्ष) ने म.प्र. मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री और लोकसभा में जबलपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद के रूप में अपनी सेवाएँ दी हैं। वे आज भी पूरी तरह से सजग एवं सक्रिय है तथा महिलाओं के उत्थान के लिये प्रयासरत रहती है। देश की स्थितियों पर वे पैनी निगाह रखती हैं।
उनका चिंतन है कि निर्माण से निर्वाण तक मानव कर्म से ही बंधा हुआ है। बीज के अंकुरण से लेकर बीज के निर्माण तक की प्रक्रिया ईश्वरीय विधान है पर वैज्ञानिक इसे बायोलाजिकल चक्र मानते है। इसी से पीढी दर पीढी जीवन का विकास होता है और मानव भी इसी विकास पथ का यात्री है। हमारी संस्कृति, सभ्यता व संस्कार हमें हर कदम पर प्रेरित करते है। जीवन कैसा होना चाहिए ? मैं समझती हूँ कि सही ज्ञान और जानकारी सही समय पर प्राप्त होना व्यक्ति और समाज के लिये बडा संबल होता है। हमारा ध्येय लोगो को शिक्षित करना और देश की सभी समस्याओं के विषय में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण होना चाहिए ताकि भावी पीढी उससे लाभ उठा सके। संसार में कोई भी समस्या का हल संगठित शक्ति के बल पर ही निकाला जा सकता है। जिस प्रकार शक्तिहीन राष्ट्र की कोई आकांक्षा सफल नही हो सकती, उसी प्रकार परिवार में भी बिखराव उन्नति को बाधित करता है। हमारे मन में संगठित रहने का भाव होना चाहिए एवं ध्यान रखिये की उन्नति के लिये त्याग के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग ही नही है। त्याग से ही अमृत्व की प्राप्ति होती है।
मेरे जीवन में बहुत अविस्मरणीय पल आये परंतु आपातकाल का वह समय जितना पीडादायी रहा उतना और कोई भी पल स्मृति को नही झंझोडता है। मुझे आज भी उन दिनों की जब याद आती है तो मन दुख और विषाद से भर जाता है। जबलपुर में मेरे घर के 6 सदस्यों को गिरफ्तार करके महिलाओं, बच्चों एवं पुरूषों को अलग अलग बैरकों में कैद करने के कारण परिवार के सदस्य बिखर गये थे। मेरे छोटे बेटे दीपांकर द्वारा पूछा गया प्रश्न मुझे ही नही जेल में उपस्थित सभी को द्रवित कर गया कि मेरी माँ को मुझसे दूर क्यों कर दिया ? वे पल बहुत दुखद थे, जब छोटा दीपांकर बिना किसी जुर्म के जेल में सिर्फ इसलिये रहा कि उसे माँ चाहिए थी। यह जीवन के कुछ कटु अनुभव है पर जीवन में उतार चढ़ाव तो आते ही है और आना भी चाहिए क्योंकि ऐसे ही समय में मनुष्य के व्यक्तित्व की परीक्षा होती है और वह मजबूती के साथ जीवन को जीने का सलीका सीखता है तभी तो लोगो के लिए वह प्रेरणास्त्रोत बन सकता है।
मैं सोचती हूँ कि एक बच्चे के लिए माँ बाप इतने जरूरी होते हैं तो माँ बाप के लिये बच्चे अपनी जिम्मेदारी क्यों नही समझते ? मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे इतना अच्छा परिवार मिला है जो आज इस उम्र के पड़ाव में भी मेरी देखभाल करने के लिये तत्पर रहता है। मैंने देखा है कि बहुत लोग अपने बुजुर्ग माँ बाप को अलग छोड देते है या अपने कैरियर के मोह में दूर जा बसते है और माता पिता घर में अकेले रह जाते है। मैं ऐसे बच्चों को इतना ही कहना चाहूँगी कि अपने माता पिता की सेवा करें, इनकी देखभाल ही ईश्वर की सेवा है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि कल उनकी भी यही स्थिति होने वाली है तो वृद्धावस्था को श्रापित ना बनायें।
जीवन इतिहास मानवीय मूल्यों का सामूहिक संदर्भों में जोडा गया दस्तावेज है और संवेदनाओं की अनुभूति से ही मानवीय मूल्यों को सार्थकता मिलती है। ऐसा कहा गया है कि अतीत जैसा भी हो परंतु उसकी स्मृतियाँ बडी सुखद होती है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति एक जीवन दर्शन है, उदात्त मूल्यों को खजाना है। यही जीवन की संपूर्णता का परिचायक है। हमारी संस्कृति हमें हर कदम पर प्रेरित करती है कि जीवन कैसा होना चाहिए ? हमारा ध्येय, लोगों को शिक्षित करना और देश की सभी समस्याओं के विषय में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण रखना होना चाहिए ताकि भावी पीढी इससे लाभ उठा सके।
मेरी धारणा है कि कोई भी जीवन दृष्टि चाहे वह भौतिकतावादी हो यो आध्यात्मवादी मृत्यु के भय से ही पनपती है। भौतिकवादी सोचता है कि मृत्यु अवश्यम्भावी है तो जितना हो सके जीवन का उपयोग और उपभोग कर लेना चाहिए। आध्यात्मवादी सोचता है कि इस शरीर की तरह भोग विलास भी नश्वर है तो क्यों न अनश्वर को खोजा जाए। इस प्रकार आध्यात्मवादी मृत्यु के डर पर विजय प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर ने प्रत्येक के कर्मों की लकीर उसी की हथेली में पहले से ही खींच रखी है फिर भी सांसारिक विधान है कि जो जैसा करता है वैसा पाता है इस जन्म में न सही अगले जन्म में फल अवश्य ही मिलता है।
समाज से अपेक्षाओं पर मेरा बस इतना सोचना है। हर व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाना चाहिए कि लोग केवल आपके सामने ही नही बल्कि आपके पीछे भी आपके कार्य का, उस मार्ग का अनुसरण करें और उस रूप में व्यक्ति को अमरता मिले। जिस स्वाभिमान और सक्रियता का जीवन मैंने जिया है, मेरी अभिलाषा है कि हर व्यक्ति उसी तरह अपना व्यक्तित्व स्वयं निखारें। मेरी महिलाओं के प्रति चिंता ज्यादा है क्योंकि हम भारतीय महिलाओं को बहुत कुछ सहना, करना और तब बढ़ना पड़ता है। मेरा मानना है कि मनुष्य में संस्कार बचपन से ही डालने होते है तभी वह घर परिवार, समाज और राष्ट्र के संबंध को समझ पायेगा। यदि बचपन शुद्ध होगा तो यौवन प्रबुद्ध होगा और बुढ़ापा सिद्ध होगा।