कौन दिलों की जाने! - 21 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • नज़रिया

    “माँ किधर जा रही हो” 38 साल के युवा ने अपनी 60 वर्षीय वृद्ध...

  • मनस्वी - भाग 1

    पुरोवाक्'मनस्वी' एक शोकगाथा है एक करुण उपन्यासिका (E...

  • गोमती, तुम बहती रहना - 6

                     ज़िंदगी क्या है ? पानी का बुलबुला ?लेखक द्वा...

  • खुशी का सिर्फ अहसास

    1. लालची कुत्ताएक गाँव में एक कुत्ता था । वह बहुत लालची था ।...

  • सनातन - 1

    (1)हम लोग एक व्हाट्सएप समूह के मार्फत आभासी मित्र थे। वह लगभ...

श्रेणी
शेयर करे

कौन दिलों की जाने! - 21

कौन दिलों की जाने!

इक्कीस

अगले दिन सुबह जब रानी डाईनग टेबल पर नाश्ता कर रहे रमेश को दूसरा पराँठा परोसने लगी तो रमेश की दृष्टि रानी की अँगुली में चमक रही सॉलिटेयर की अँगुठी पर पड़ी। उसने पूछा — ‘यह अँगुठी कब खरीदी?'

मन—ही—मन रानी अपनी बेपरवाही व मूर्खता पर पछताई भी और झल्लाई भी। मन ने उसे धिक्कारा। एक तरफ तो इतनी सतर्क थी कि आलोक द्वारा दिया गया बुके तक घर नहीं लेकर आई और दूसरी ओर होटल से घर आने के बाद अँगुठी न उतारने जैसी इतनी बड़ी मूर्खता कर बैठी। फिर भी चिंता के भावों को भरसक छिपाते तथा चेष्टा करते हुए कि मन की झुँझलाहट चेहरे से प्रकट न हो, कहा — ‘कल ली थी।'

चिंता को लाख छिपाने की कोशिश करने के बावजूद रानी की मुख—मुद्रा सामान्य न रह पाई। इसे ही लक्ष्य कर तथा मन की गवाही — यह अवश्य ही आलोक ने दी होगी — मानते हुए रमेश ने व्यंग्यमिश्रित प्रश्न किया— ‘ली थी या ‘किसी' ने दी है?'

रानी ने सोचा, अब सच्चाई को छिपाने से कोई लाभ नहीं और आगे क्या होगा, की परवाह किये बिना कह दिया कि यह अँगुठी आलोक ने मेरे जन्मदिन पर भेंट की है।

रमेश का व्यंग्यमय व्यवहार क्रोध में परिवर्तित हो गया। आँखें प्रतिहिंसा के भाव से लाल हो गईं। गुस्से से तमतमाते हुए उसने कहा — ‘विनय से बात करने के बाद मैं तो सोचता था कि तुम उसकी बात का मान रखते हुए अपनी दोस्ती को मर्यादा की सीमा में ही रखोगी तथा तुम्हारी यह दोस्ती हमारी मैरिड लाईफ में दरार पैदा नहीं करेगी। लेकिन, मैं ही गफलत में रहा। कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रही। लगता है, तेरे लिये तो सब सम्बन्धों के अर्थ ही बेमानी हो गये हैं। तू तो सीमाएँ ही लाँघती जा रही है। तेरे लिये परिवार की मान—मर्यादा का कोई महत्त्व ही नहीं रह गया है। पति—पत्नी का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है, किन्तु तूने तो विश्वास ही चूर—चूर कर दिया है। ‘उसे' तेरा जन्मदिन तक याद है और इतनी मँहगी अँगुठी वह तुम्हें गिफ्ट करता है। यह केवल दोस्ती के कारण सम्भव नहीं। तुम लोग दोस्ती से बहुत आगे बढ़ चुके हो। यह मत भूलो कि स्त्री और पुरुष जंगल में उगे बाँसों की तरह होते हैं। आग कहीं बाहर से नहीं आती, उनकी रगड़ से ही पैदा हो जाती है। बुढ़ापे में उठा जवानी का उफान सत्यानाश की ओर ही ले जाता है।'

रमेश ने अपने क्रोध का भरपूर गुबार निकाला। रानी अन्दर तक सहम गई, उसे पैरों तले की धरती खिसकती नज़र आने लगी, आँखों के आगे अँधेरा—सा छाने लगा। सब कुछ समझते हुए भी स्वयं पर पूरा नियन्त्रण रखने की कोशिश करते हुए पूछा — ‘आप कहना क्या चाहते हो?'

‘तुम खूब समझ रही हो जो मैं कह रहा हूँ। नादान बनने की कोशिश मत करो......'

इतने में डोरबेल बजी और लच्छमी अन्दर आ गई। उसके अन्दर आते ही नाश्ता तथा अपनी बात बीच में ही छोड़कर रमेश डाईनिंग टेबल से उठ खड़ा हुआ। हड़बड़ी में ही तैयार हुआ। ऑफिस के लिये जाने लगा तो रानी टिफिन देने लगी।

‘टिफिन की जरूरत नहीं,' कहते हुए रमेश पैर पटकते हुए घर से बाहर चला गया।

रमेश के जाने के पश्चात्‌ लच्छमी ने रानी से कहा — ‘मैडम जी, अगर आप नाराज़ न होंवें तो एक बात पूछूँ?'

चाहे रानी इस समय किसी प्रकार के सवाल—जवाब की मानसिक स्थिति में नहीं थी, फिर भी लच्छमी क्योंकि एक प्रकार से उसके अकेलेपन की साथी थी, इसलिये उसने मना न करते हुए कहा — ‘हाँ, पूछो!'

‘मैडम जी, आज सा'ब जी कुछ घने नाराज़ दीखें थे, कुछ खास बात हो गई कै?'

उसको टालने के इरादे से रानी ने कहा — ‘नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं। घरों में ऐसी थोड़ी—बहुत कहा—सुनी चलती रहती है। तू अपना कर।'

लच्छमी ने महसूस किया कि आज मैडम और दिनों की तरह उससे अपने बारे में बात नहीं करना चाहती, यह सोचकर वह काम में लग गई और रानी अपनी बेचैनी के चलते बेडरूम में आकर निढ़ाल होकर लेट गई। सोचने लगी, जीवनक्रम में कितना कुछ अप्रत्याशित घटता है! कल सुबह सावन की पहली बरसात ने अपने शुभ आगमन से मेरे जन्मदिन का स्वागत किया था और सारा दिन मन में उमंग व तरंग दौड़ती रही थी। और आज की सुबह.....! न केवल कल की खुशियाँ तिरोहित हो गई हैं, वरन्‌ आगे क्या होगा, भविष्य कौन—सी करवट लेगा, जैसे प्रश्नचिंहों का कोई स्पष्ट उत्तर भी नहीं सूझता। कल शाम को होटल से विदा करते हुए आलोक ने मेरा हाथ दबाकर ‘सदा खुश रहो' कहा था, किन्तु उसकी दुआ भी निष्फल हो गई! क्या करूँ? जब मन किसी भी तरह से आश्वस्त नहीं हुआ तो मन से आवाज़़ आई — आलोक ही कोई हल सुझा सकता है! और रानी इन्तज़ार करने लगी कि कब लच्छमी काम खत्म करके जाये और कब वह आलोक से बात करे। लच्छमी को जल्दी करने के लिये कहकर उसके मन में और शंका उत्पन्न करना नहीं चाहती थी। काम खत्म कर ‘मैडम जी जा रही हूँ' कह कर जैसे ही लच्छमी ने बाहर का दरवाजा बन्द किया, रानी ने वॉल क्लॉक पर नज़र डाली। साढ़े ग्यारह बज रहे थे। यह सोचकर कि आलोक शायद अभी होटल में ही होगा, उसने फोन मिलाया। फोन मिलने पर पूछा — ‘आलोक, होटल में ही हो या निकल गये?'

‘निकलने ही वाला था, क्यों क्या बात है? कुछ चिंतित—सी लग रही हो?' रानी की भर्राई हुई—सी आवाज़़ सुनकर आलोक ने पूछा।

‘अभी यदि चण्डीगढ़ में ही हो तो एक बार घर आ जाओ। बाकी बातें मिलने पर करेंगे।'

‘ठीक है। मैं चैकआऊट करके आता हूँ।'

लगभग आधे घंटे बाद आलोक रानी के घर पहुँचा। उसके डोरबेल बजाते ही रानी ने दरवाज़ा खोला। रानी की ढीली—ढाली शारीरिक अवस्था तथा चेहरे की उड़ी हुई रंगत देखकर आलोक को धक्का—सा लगा। दोनों सीधे बेडरूम में ही आ गये। जैसे ही आलोक सैटी पर बैठा, रानी पास बैठकर उसके कंधे से लग गई। उसके अन्दर से छोटी—छोटी, दबी—दबी सी सिसकियाँ निकलने लगीं। निस्सहायता की सुरसुरी भीतर रेंगने लगी। रानी की आँखों से रुक—रुक कर आँसू बहने लगे। आँसू की बूँदें घास पर पड़े ओस—कणों की भाँति गालों पर दमक उठीं। उसकी उखड़ी हुई मनःस्थिति को भाँपते हुए आलोक ने एक हाथ से उसकी पीठ सहलाते तथा दूसरे हाथ से उसके आँसू पौंछते हुए पूछा — ‘क्या हुआ...?'

‘.........'

रानी मौन! किन्तु उसका मौन कहने से अधिक कह गया। आलोक की सहानुभूति से उसके रुद्ध—हृदय का बाँध टूट पड़ा और वह उसकी गोद में मुँह छिपाकर फफक—फफक कर रोने लगी।

‘कुछ बताओ तो सही? तुम तो ब्रेव गर्ल हो, इतनी कमज़ोर कब से हो गई? इन आँसुओं को व्यर्थ न गँवाओ, जीवन में इनका बहुत महत्त्व है।'

‘.........'

फिर भी काफी देर तक रानी कुछ बोल नहीं पायी, चुप रही। आलोक ने पीठ सहलाना जारी रखा। कुछ क्षण बीते। उसके हाथ के स्पर्श से रानी को कुछ सान्त्वना, कुछ आश्वासन मिला। उसके मन को संरक्षण का आभास हुआ। अन्ततः उसने धीरे—धीरे सारी बातें विस्तार से कह सुनाई कि कैसे वह रात को अँगुठी उतारना भूल गई थी और सुबह नाश्ते के समय रमेश ने अँगुठी देखकर उसके बारे में पूछा। कैसे उसने सब कुछ सच—सच बताया और रमेश की प्रतिक्रिया भी शब्दशः दुहरा दी। सारी बातें सुन—जानकर आलोक ने उसे धैर्य रखने के लिये समझाया, किन्तु स्वयं भी मन—ही—मन चिंतित व विचलित हुए बिना न रह सका।

रानी — ‘बात खत्म नहीं हुई है, आलोक। रात को जब रमेश जी घर लौटेंगे, मुझे भय लग रहा है, पता नहीं कौन—सा बम फूटेगा?'

अपनी चिंता को दबाते तथा रानी को सान्त्वना देते हुए आलोक ने कहा — ‘रानी, घबराने से समस्या हल नहीं होती, धैर्य रखकर ही उससे छुटकारा पाया जा सकता है। हमारे प्यार में किसी तरह का कोई खोट नहीं है। तुमने सच्चे मन से स्वीकार किया है कि तुम बचपन से ही मुझे अपना मान चुकी हो। तुम भली—भाँति जानती हो कि मैं हर स्थिति में तुम्हारे साथ हूँ, अन्तिम साँस तक साथ रहूँगा। तुमने एक बार कहा था कि हम अपनी दोस्ती को दुनिया की नज़रों से बचा कर रखेंगे। सुनकर मेरे मन ने कहा था कि कब तक दुनिया की नज़रों से बचेंगे, एक—न—एक दिन तो सत्य दुनिया के समक्ष प्रकट होगा ही, क्योंकि ‘इश्क और मुश्क' छुपाये नहीं छिपते। रात को रमेश जी की जो भी प्रतिक्रिया होगी, मुझसे ‘शेयर' करना। कहो तो आज पटियाला जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर देता हूँ। चण्डीगढ़ या मोहाली में ही कहीं रुक जाता हूँ।'

आलोक की रात को रुकने की बात सुनकर रानी को काफी राहत महसूस हुई। रानी स्वयं मन—ही—मन चाहती थी कि आलोक अभी उससे दूर न जाये। आलोक ने रसोई में से पानी लाकर उसे दिया। रानी ने दो घूँट ही पिया, शेष बचा आलोक पी गया। फिर पूछा — ‘चाय बना दूँ?'

‘चाय रहने दो। खाना तैयार है, खाना ही खाते हैं।'

‘मैं तो ब्रेकफास्ट कर चुका हूँ। अब खाना नहीं खा पाऊँगा।'

‘लेकिन मैंने तो सुबह की चाय के बाद से कुछ भी नहीं खाया है।'

‘ऐसा है तो खाना लगा लो। मैं तुम्हें भूखा कैसे रहने दे सकता हूँ?'

रानी ने टिफिन खोलकर खाना निकाला और बाकी खाने के साथ मिलाकर गर्म किया। दोनों ने मिलकर खाना खाया। खाना खाने के पश्चात्‌ काफी देर तक सम्भावित भविष्य के विषय में बातें करते रहे। बातें करते—करते सो गये। जब उठे तो पाँच बजने वाले थे। चाय पीने के बाद आलोक ने सुखना लेक या रोज़़गार्डन चलने की बात कही, किन्तु रानी ने यह कहकर मना कर दिया कि जब तक रह सकते हो, यहीं मेरे साथ रहो। आखिर तय हुआ कि आलोक रात को किसी होटल में रुकेगा और सुबह रानी उसे जो भी घटा होगा, उसके बारे में बतायेगी। उसके अनुसार ही आगे की योजना बनाने के उपरान्त आलोक पटियाला जायेगा।

सुबह रानी की अँगुली में सॉलिटेयर की अँगुठी देखकर रमेश का रानी—आलोक की दोस्ती सम्बन्धी शक विश्वास में बदल गया था और उसने रानी से खरी—खरी दो—टूक बात करने का निश्चय कर लिया था, परन्तु लच्छमी के आ जाने से बात बीच में ही रह गई थी। ऑफिस में उसका सारा दिन बेचैनी में गुज़रा। उसने पक्का मन बना लिया था कि आज इस विषय पर आर—पार का निर्णय हो ही जाना चाहिये।

रात को साढ़े—आठ नौे के बीच रमेश घर पहुँचा। रानी ने पूछा — ‘दिन में खाना खा लिया था या नहीं?'

रमेश ने तल्खी से कहा — ‘मेरे खाने ना—खाने से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?'

रानी ने पूरी तरह से सहज होकर कहा — ‘फर्क पड़ता है, इसी लिये पूछ रही हूँ। आप सुबह नाश्ता भी अधूरा छोड़ गये थे और टिफिन भी लेकर नहीं गये थे।'

‘अब ये बनावटी दिखावे वाली बातें छोड़ो। यह बताओ, जन्मदिन घर पर मनाया था या कहीं बाहर?'

क्या जवाब दे, रानी सोच में पड़ गई।

उसे चुप देखकर क्रोध से तमतमाते हुए रमेश बोला — ‘मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ, जवाब क्यों नहीं देती? मुँह में दही जम गया है क्या?'

रानी ने सोचा, अब सच्चाई को दबाने का अर्थ होगा, झूठ पर झूठ बोलना। कुछ लोग इस कला में पारंगत होते हैं, किन्तु रानी ऐसा नहीं कर पाई। उसने सारे घटनाक्रम को ज्यों—का—त्यों बयान कर दिया।

सारी बात सुनने के बाद रमेश ने आग—बगूला होते हुए अपने मन की भड़ास निकाली — ‘लगभग चालीस वर्ष गुज़र गये साथ रहते—रहते, लेकिन तूने भनक तक नहीं लगने दी कि तेरे मन में मैं नहीं जिसके साथ तूने अग्नि के समक्ष फेरे लिये थे, बल्कि कोई और बसा हुआ है। तू मुझसे नहीं, किसी और से प्यार करती है। ऐसा विश्वासघात! जिस कोमल भाव—तन्तु से हम वर्षों से जुड़े हुए थे, तूने वह पूरी तरह से खण्डित कर दिया है। हमारे बीच विश्वास का जो सेतू था, वह छिन्न—भिन्न कर दिया है। वाह रे, त्रिया चरित्र! शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि स्त्री के मन की थाह तो देवता भी नहीं पा सके, मनुष्य की तो बिसात ही क्या! किसी और का अधिकार छीनने की मेरी आदत नहीं, परन्तु जो अधिकार तुमने स्वेच्छा से मुझे दिया है, उसमें बँटवारा करना भी मेरे लिये सम्भव नहीं। बहुत हो गया, अब और नहीं सहा जाता।'

रमेश के अग्निबाणों ने रानी को अन्दर तक छलनी कर दिया, फिर भी उसने पलटकर कोई जवाब नहीं दिया। उसने ‘एक चुप सौ सुख' उक्ति पर अमल करने को बेहतर विकल्प समझा और मौन रही। जब उसे लगा कि रमेश कुछ शान्त हो गया है तो उसने एकबार फिर खाने के लिये पूछा, लेकिन खाने के लिये रमेश ने साफ मना कर दिया और कपड़े बदलकर लेट गया। इस स्थिति में रानी भी खाना नहीं खा सकी। थोड़े समय पश्चात्‌ रानी भी कपड़े बदल कर आ गई। जैसे ही रानी बेड पर बैठने लगी, रमेश ने क्रोध में नहीं बल्कि थके—टूटे स्वर में कहा — ‘इतना कुछ होने के बाद मैं तुम्हारे साथ बेड ‘शेयर' नहीं कर सकता। मुझे अकेला छोड़ दो। दूसरे कमरे में जाकर सो जाओ। आगे क्या करना है, वकील से सलाह—मशविरा करने के बाद तय करूँगा।'

स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए रानी बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये दूसरे कमरे में चली गई। रमेश और रानी अलग—अलग बेडरूमों में लेटे थे, सोने की लाख कोशिशों के बावजूद नींद कोसों दूर थी। सीने की बढ़ी हुई धड़कनों ने चैन जैसे सोख लिया था। बन्द आँखों के समक्ष विगत जीवन के भाँति—भाँति के दृश्य आते और जाते रहे। दोनों की अपनी—अपनी चिंताएँ थीं, एक—दूसरे को लेकर भी, एक—दूसरे से अलग भी; नींद को अलग—अलग कारणों से दूर रखती हुईं। उनके उच्छ्‌वास और करवटों की आवाज़़ें रात के सन्नाटे को भेदती रहीं।

बारह बजे के आसपास अचानक बिजली गुल हो गई। ए.सी. बन्द हो गया। पँखा इन्वर्टर पर चलता रहा। ए.सी. की ठण्डक थोड़ी देर रही, फिर उमस होने लगी। नींद आ गई होती तो सम्भवतया रानी को पता ही नहीं चलता, लेकिन जागते हुए उमस में लेटे रहना दूभर लगने लगा। रानी उठी। बेडरूम का पिछला दरवाज़ा खोला। आँगन में फोल्डिंग बेड खोला, पैडस्टल पँखा चलाया और बिन बिछाये ही चादर ओढ़कर लेट गई। आकाश में रात्रि—देवी की सलमा—सितारों जड़ित चुनरी चारों तरफ फैली हुई थी। दसेक मिनट पश्चात्‌ बिजली आ गई, किन्तु रानी को अब बन्द कमरे में लौटने की अपेक्षा विस्तृत आकाश के नीचे सोना ही श्रेयस्कर लगा, क्योंकि हवा के संग पड़ोसी आँगन से आ रही रजनीगन्धा की सोंधी—सोंधी गन्ध उसके आहत अन्तर्मन को राहत पहुँचा रही थी, आह्‌लादित कर रही थी। इसी गन्ध को आत्मसात्‌ करते—करते थोड़ी देर में ही वह नींद में समा गई।

रोज़ की भाँति रानी उठ तो समय से ही गई, किन्तु तब तक उसने रमेश के कमरे को खोलकर नहीं झाँका जब तक कि रमेश के बाथरूम में जाने की हलचल उसके कानों तक नहीं पहुँची। पन्द्रह मिनट बाद रानी ने चाय बनाई। ट्रे में चाय के कप तथा बिस्कुट लेकर रमेश के बेडरूम में गई। चाय देखकर रमेश गुस्से से बोला — ‘ले जाओ, मुझे नहीं पीनी चाय—वाय।'

‘आप मुझसे नाराज़ हैं। नाराज़ होना आपका अधिकार है, मैं कुछ नहीं कह सकती। चाय तो पी लो, रात को आपने खाना भी नहीं खाया। सज़ा मुझे दे लो, खुद को न दो।'

रानी की आखिरी बात सुनकर रमेश का गुस्सा कुछ कम हुआ। अनमनेपन से उसने चाय का कप उठा लिया। रमेश को अकेले में चाय पीने का अवसर देने के विचार से ट्रे में बिस्कुट की प्लेट वहीं छोड़कर तथा अपना कप उठाकर रानी लॉबी में आ गई। चाय पीने के बाद रोज़ाना की भाँति रानी रसोई में व्यस्त हो गई। न रानी ने नाश्ते व लंच के लिये कुछ पूछा, न रमेश ने उसे नाश्ता और लंच बनाने से रोका। लच्छमी के आने से पहले ही उसने रसोई का सारा काम निपटा दिया। जब रमेश नहा—धोकर तैयार हो गया तो रानी ने नाश्ता लगा दिया और टिफिन टेबल पर रख दिया। नाश्ता करने के बाद टिफिन लेकर बिना कुछ कहे रमेश ऑफिस के लिये चला गया।

लच्छमी के जाने के तुरन्त बाद रानी ने आलोक को फोन किया। आलोक बेसब्री से प्रतीक्षा में था कि कब रानी का फोन आये।

रानी — ‘आलोक, बातें मिलने के बाद करेंगे, अभी मुझसे कुछ मत पूछो। अभी तो मुझे शाम तक कहीं घुमाने ले चलो। मुझे तुम्हारे साथ की सख्त जरूरत है। इस वक्त घर में, मुझे ऐसे लगता है, जैसे मेरा दम घुटा जा रहा है।'

‘मैं दस—पन्द्रह मिनट में पहुँच रहा हूँ, तुम तैयार रहो,' कहकर उसने फोन बन्द कर दिया और रिसेप्शन काऊँटर पर आकर बिल अदा किया और कार रानी के घर की तरफ बढ़ा दी।

***