कौन दिलों की जाने!
बाईस
रानी प्रतीक्षा में ही थी। जैसे ही आलोक ने घर पहुँच कर हॉर्न बजाया, उसे अन्दर बुलाने की बजाय घर को ताला लगाकर रानी स्वयं ही बाहर आ गई और कार में आलोक की बगल वाली सीट पर बैठ गई। आलोक ने पूछा — ‘कहाँ चलें?'
‘अब यह तुम्हें देखना है कि कहाँ जाना है। इस वक्त मैं कुछ भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूँ। बस इतना ख्याल रखना कि शाम सात बजे तक घर लौट आयें।'
आलोक ने कार स्टार्ट करते ही म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। विविध भारती से ‘एसएमएस के बहाने वीबीएस के तराने' कार्यक्रम चल रहा था और ‘अनाड़ी' फिल्म का मुकेश का गाया गीत आ रहा थाः
किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है।
कार्यक्रम का अन्तिम गाना था फिल्म ‘आशिकी 2' का —
हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते
तेरे बिना क्या वजूद मेरा ....
अपनी अनमनी मनःस्थिति होने के बावजूद गाने सुनते हुए रानी ने कहा — ‘आलोक, विविध भारती के कार्यक्रम सुनने का तुम्हारा शौक आज भी जस—का—तस है।'
‘रानी, इसे मेरी पुरानी सोच कह लो या कुछ भी, मुझे आजकल के अधिकतर गाने बेतुके तथा बेसुरे लगते हैं। उनमें शोर—शराबा ही अधिक होता है, सुर और ताल नहीं। आज भी विविध भारती के अधिकतर कार्यक्रमों में सदाबहार गीत सुनने को मिल जाते हैं।'
इसी के साथ ही आलोक ने मोहाली से चण्डीगढ़ होते हुए कार शिमला रोड पर मोड़ ली और परवाणु पार कर टिम्बर ट्रेल टूरिस्ट कॉम्पलैक्स में जाकर रोकी। कार से उतर कर आलोक बोला — ‘पहले लंच कर लेते हैं, क्योंकि तुमने अब तक कुछ भी खाया नहीं होगा! फिर ट्रॉली से ऊपर घूमने चलेंगे।'
‘जैसा तुम ठीक समझो।'
लंच करने के बाद ‘रोप वे' से ऊपर गये। अधिकतर लोग रेस्त्रां में बैठे थे अथवा अपने—अपने कमरों में बन्द थे। अतः इक्का—दुक्का लोग ही घूम—फिर रहे थे। नीचे की अपेक्षा यहाँ मौसम सुहावना था। धूप नहीं थी। रुक—रुक कर हो रही बूँदा—बाँदी तन और मन दोनों को शीतलता प्रदान कर रही थी। इसलिये घूमने—फिरने में भी आनन्द आ रहा था। दो—एक बार की फुहार झेलने के पश्चात् आलोक बोला — ‘रानी, कहीं ओट में थोड़ी देर बैठ जाते हैं, भीगने से क्या फायदा?'
‘यह तो हल्की फुहार है, बारिश तेज भी होती तो भी मुझे भीगना अधिक अच्छा लगता। इससे न केवल शरीर को ठंडक मिल रही है, अपितु मन भी शीतल हो रहा है। आलोक, इतना ही नहीं, याद आ रहे हैं बचपन के वे दिन जब बरसात में भीगते हुए ‘रब्बा—रब्बा मींह बरसा, साडी कोठी दाने पा' गुनगुनाते हुए घूमा—फिरा करते थे।'
‘सच है, बचपन की बेफिक्री का एक अलग ही आनन्द होता है। चिंतामुक्त बेपरवाह ज़िन्दगी, न किसी के लेने में न किसी के देने में।'
बातें करते—करते रानी ने आलोक को बताया कि रात कोे रमेश किस तरह पेश आया, उसने क्या—क्या कहा और कैसे उसने अपने ही घर में रमेश के होते हुए भी पहली बार अकेले रात बिताई। सुनकर आलोक भी सोचने पर विवश हुआ, लेकिन अपनी चिंता उसने रानी के समक्ष प्रकट नहीं होने दी, अपितु रानी को ही ढाढ़स बँधाता रहा। घूमते—फिरते जब थक गये तो चाय आदि लेने के लिये रेस्त्रां में प्रवेश किया। चाय पीते हुए रानी बोली— ‘शारीरिक तौर पर चाहे थकावट महसूस हो रही है, किन्तु मानसिक तनाव काफी हद तक दूर हो चुका है।'
‘यह तो बहुत अच्छा हुआ। मानसिक तनाव से छुटकारा हो जाये तो शरीर के स्तर पर भी व्यक्ति स्वस्थ रहता है। अस्वस्थ मन है तो शरीर कभी स्वस्थ नहीं रह सकता, किन्तु अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रह सकता है। आज की अधिकांश बीमारियों का कारण मन की अस्वस्थता है। यहाँ हम शहर की गहमा—गहमी से दूर प्रकृति के नज़दीक हैं, बल्कि प्रकृति की गोद में बैठे हैं। चारों ओर का नीरव वातावरण तन और मन को ताज़गी से भरने के लिये पर्याप्त है। ये हसीन लम्हे मन में रागात्मक अनुभूति का संचार कर रहे हैं।'
रानी ने चुहलबाजी में कहा — ‘आलोक, जिस तरह इस वक्त हम घूम—फिर रहे हैं, उससे कॉलेज या यूनिवर्सिटी की कोई याद तो ताजा हुई होगी!'
आलोक का ध्यान रानी की चुहलबाजी पर नहीं था। उसने संजीदगी से उत्तर दिया — ‘मैं जब पहली बार तुम्हारे घर आया था, तब भी तुमने कुछ ऐसा ही प्रश्न किया था और मेरा उत्तर था — तुम्हारे जालंध्र चले जाने के बाद और रश्मि के मेरे जीवन में आने तक मैं किसी और लड़की से दिल लगाने की सोच भी नहीं सका — आज भी मेरा वही उत्तर है।'
रानी ने खनकती—सी आवाज़़ में कहा — ‘आलोक, तुम तो सीरियस हो गये। मैं तो मज़ाक कर रही थी।'
‘ओह! भगवान् का लाख—लाख शुक्र है, यहाँ आकर तुम्हारी मनःस्थिति में बदलाव तो आया।'
चायादि लेने के बाद ‘रोप वे' से नीचे आये और घर के लिये रवाना हुए। रानी को घर पर छोड़ कर आलोक पटियाला चला गया रानी से यह वायदा लेकर कि वह जो भी स्थिति होगी, फोन पर उसे निरन्तर बताती रहेगी, और जरूरत पड़ने पर वह भी उसके पास पहुँचने में विलम्ब नहीं करेगा।
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