कौन दिलों की जाने!
बीस
चार जुलाई को सायं छः बजे के लगभग आलोक ने रानी को कॉल की और पूछा — ‘हैलो मॉय डियर, कल का प्रोग्राम उसी तरह रहेगा, जैसा हमने प्लान किया था या कोई चेंज है?'
‘वैसा ही होगा, जैसा हमने सोचा हुआ है।'
‘तब तो तय रहा कि मैं बारह बजे के लगभग ‘जे डब्लयू मेरियट' में पहुँच कर तुम्हारा इन्तज़ार करूँगा, और अगर कहो तो मैं तुम्हें घर से भी ‘पिकअप' कर सकता हूँ।'
‘आलोक, तुम्हें घर आने की जरूरत नहीं। मैं ही बारह—साढ़े बारह बजे तक पहुँच जाऊँगी।'
‘तो फाइनल रहा। बॉय।'
पाँच जुलाई
नित्य नियमानुसार रानी सुबह उठी। उसने ए.सी. बन्द किया। बेडरूम का पिछले आँगन में खुलने वाला दरवाज़ा खोला तो देखा, सावन की पहली बरसात हो रही थी। काले बादलों से आकाश आच्छादित था। इसलिये प्रभात—वेला की आभा बादलों से ढकी होने के कारण बाहर नीम—अंधेरा छाया हुआ था। जाली खोलकर छज्जे के नीचे खड़ी हुई तो स्निग्ध, शीतल हल्की—हल्की फुहार के मधुर स्पर्श से तन और मन ताज़गी व स्फूर्ति से भर उठे। क्षण—भर में बन्द कमरे की घुटन तिरोहित हो गयी। कुछ पल वहीं रुक कर मौसम का आनन्द लेती रही। फिर अन्दर आते हुए मोबाइल उठाया तो मैसेज़ बॉक्स में आलोक का ‘जन्मदिन की शुभ कामनाएँ व बधाई' मैसेज़ था। साठ साल के जीवन में पहली बार अपने जन्मदिन पर बधाई का संदेश देखकर उसके दिल की बाँछें खिल उठीं, मन खुशी की हिलोरों से झूमने लगा, चेहरा एक अजीब किस्म की रौनक से दमक उठा। रमेश अभी सोया हुआ था। उसने आलोक के मैसेज़ के उत्तर में ‘जन्मदिन की शुभ कामनाओं के लिये धन्यवाद' के साथ लिखा — खाना मत खाकर आना, हल्का नाश्ता ही करना, और आया हुआ मैसेज़ डिलीट कर दिया। फिर उसने कुर्सी उठाई और बाहर बरामदे में आकर बैठ गई। ठंडी—ठंडी हवा के झोंकों के संग रिमझिम बरसती बूँदों का आनन्द लेने लगी। पौधों की ओट में कहीं फुदकता बरसाती मेंढ़क भी अपनी टर्र—टर्र ध्वनि से बरसात का स्वागत कर रहा था। उसने देखा, पेड़—पौधे जो कल तक गर्मी की मार तथा लू के थपेड़े सहते—सहते मुर्झा गये थे, पहली बरसात के छींटों की छुअन से एकाएक लहलहा उठे थे। लॉन की गीली मिट्टी से सोंधी—सोंधी महक उठ रही थी। उसने अनुभव किया, हरियाली की चमक आँखों को शीतलता प्रदान करने लगी है, फूलों की प्रस्फूटन से मन तरंगित होने लगा है। उसे लगा, कल के अखबार में प्रकाशित कविता की ये पंक्तियाँ कवि ने शायद ऐसे ही किसी दृश्य को देखकर अथवा कल्पना करके लिखी होंगीः
छम—छम बूँदें नाचतीं, बादल छेड़ें साज।
हरियाली रचने लगी, महाकाव्य फिर आज।।
थोड़ी देर में वर्षा रुक गई। बादल छँटने लगे। बादलों के छँटने से एकाएक सूर्य दिखने लगा। उसकी किरणों से लॉन में बिछी घास पर पड़ी वर्षा की बूँदें मोतियों—सी चमकने लगीं। कुछ पल रानी इस अनुपम दृश्य को अपलक निहारती रही और फिर अन्दर आकर नित्यकर्म में व्यस्त हो गई।
नाश्ते में उसने बारीक कद्दूकस गोभी व क्रशड मटर के दाने बिना घी—तेल के भूनकर तथा कस्तूरी मेथी मिलाकर पराँठे तथा मिल्क टोस्ट बनाये। नाश्ता करते समय रमेश जिसने शायद ही कभी खाने आदि की प्रशंसा की हो, भी आज तारीफ किये बिना न रह सका — ‘पराँठे बड़े टेस्टी बनाये हैं, और ये मिल्क टोस्ट! कोई खास वजह?'
‘मौसम की पहली बरसात के स्वागत में मिल्क टोस्ट बना लिये। गोभी—मटर पहाड़ी होने की वजह से शायद पराँठे अधिक टेस्टी लगे हैं आपको।'
रानी मन में सोच रही थी कि इन्हें कैसे बताऊँ कि आज जीवन में पहली बार मेरे जन्मदिन पर दिन का प्रारम्भ किसी के बधाई सन्देश से हुआ है और जन्मदिन एक विशेष ढंग से मनाया जाना है, यह सब उसी प्रक्रिया की पहली कड़ी है। यह सब जुबान पर न लाकर रानी ने आगे कहा — ‘हमें खाने—पीने में कुछ अच्छा लगता है तो मुँह से ‘टेस्टी' शब्द निकलता है। आजकल के बच्चों को खाने—पीने की चीज़ अच्छी लगने पर वे ‘यम्मी—यम्मी' कहते है। पिंकी पानी भी पीती थी तो नानी ‘पानी यम्मी—यम्मी' कहती थी। बच्चों की दुनिया भी निराली होती है!'
‘यह तो है।'
रमेश नाश्ता करने के उपरान्त टिफिन लेकर ऑफिस चला गया।
होटल पहुँचने में अधिक—से—अधिक पन्द्रह मिनट लगने थे। रानी के पास अभी काफी समय था। इसलिये उसने सोचा, होटल जाने से आधा घंटा पूर्व पराँठे बना लूँगी। समय गुज़ारने के लिये ‘आपका बंटी' पढ़ने लगी जो उसने कई दिनों से पढ़ना शुरू कर रखा था। साढ़े ग्यारह बजे उठी। छः पराँठे बनाने और पैक करने के पश्चात् तैयार होने लगी। ठीक सवा बारह बजे वह घर से होटल के लिये रवाना हुई।
होटल में चैक—इन करने के बाद एक बार तो आलोक ने सोचा कि लॉबी में ही रानी की प्रतीक्षा करूँ, फिर रानी को कॉल कर कमरा नम्बर बताया और कमरे में चला गया। जैसे ही रानी ने कमरे की कॉलबेल बजाई, आलोक ने दरवाज़ा पूरा खोलकर ताज़े व सुगन्धित फूलों का बुके उसे देते हुए कहा — ‘वेलकम एण्ड वेरी—वेरी हैप्पी बर्थडे टू मॉय बेस्ट फ्रैंड!'
रानी बुके लिये हुए अन्दर आई। आलोक ने दरवाज़ा बन्द किया। रानी ने बुके टेबल पर ढंग से रखा।
आलोक ने दोनों हथेलियों में रानी के चेहरे को लेकर उसकी आँखों में आँखें डालकर फिर से कहा — ‘यह जन्मदिन तुम्हारे जीवन में मील का पत्थर बने! आज से खुशियों के खज़ाने तुम्हारे लिये सदा खुले रहें।'
‘आलोक, जीवन में पहली बार जन्मदिन पर बधाई और वह भी तुम्हारे द्वारा! मैं कितनी खुश हूँ, उसे बताने के लिये शब्द नहीं मिल पा रहे। इतना ही समझ लो कि यह दिन हमेशा याद रहेगा।'
‘आओ, इस खुशी के अवसर पर सबसे पहले केक काटने की रस्म अदा कर मुँह मीठा करें।'
इसके साथ ही आलोक ने फ्रिज में रखा केक बाहर निकाला, टेबल पर सजा कर सर्विस ब्वॉय को बुलाने के लिये इंटरकॉम पर मैसेज़ दिया। केक दिल के आकार का था जिसके एक ओर चॉकलेट की खड़ी पट्टी पर लिखा था — ‘प्रिय रानी को साठवें जन्मदिन की ढेरों शुभ कामनाएँ — आलोक'
‘बहुत सुन्दर केक है।'
‘सुन्दर रानी के जन्मदिन का केक भी तो उस जैसा ही सुन्दर होना चाहिये था।'
इसके साथ ही रानी ने अपने मोबाइल से केक की फोटो ली। इतने में सर्विस ब्वॉय आ गया। उसे आलोक ने पहले ही समझा रखा था कि उसे क्या—क्या करना है। केक के साईड में मोमबत्ती—स्टैंड पर मोमबत्ती लगाकर जलाई। आलोक ने रानी को समझाया कि उसे मोमबत्ती बुझानी नहीं, क्योंकि वह चाहता है कि जैसे मोमबत्ती के जलने से अँधेरा दूर हो जाता है और प्रकाश फैल जाता है, उसी प्रकार उसके जीवन में अँधेरा न हो, वरन् प्रकाश फैले। गम न आयें, बल्कि खुशियों का अम्बार लगे।
आलोक ने कैमरा ऑन करके अपना मोबाइल सर्विस ब्वॉय को दिया। रानी ने केक काटा। आलोक ने क्लैपिंग करते हुए कहा — ‘मैं यह नहीं कहूँगा कि तुम जीओ हज़ारों साल, साल के दिन हों पचास हज़ार, बल्कि कहूँगा कि जब तक साँसें चलें, स्वस्थ रहो, खुश रहो!'
सर्विस ब्वॉय कैमरा क्लिक करता रहा। रानी ने केक का टुकड़ा आलोक को खिलाने के लिये हाथ बढ़ाया, किन्तु आलोक ने बीच में ही उसके हाथ से टुकड़ा लेकर उसके मुँह में थोड़ा—सा केक डाला और बाकी का टुकड़ा रानी ने वापस पकड़ कर आलोक को खिलाया। एक प्लेट में थोड़ा—सा केक रखकर बाकी का केक सर्विस ब्वॉय को टिप सहित देकर विदा किया। सर्विस ब्वॉय के जाने के बाद आलोक ने अलमारी खोली व एक पैकेट निकाला। रानी की ओर बढ़ाते हुए कहा — ‘जन्मदिन पर छोटी—सी भेंट।'
रानी अपनी उत्सुकता को वश में न रख सकी। उसने तुरन्त गिफ्ट पैक खोला। एक अत्यन्त सुन्दर हीरा—जड़ित अँगुठी देखकर उसने अँगुठी आलोक की ओर बढ़ा दी। आलोक को लगा शायद वापस कर रही है। पूछा — ‘क्यों पसन्द नहीं आई?'
‘जन्मदिन के इस अप्रतिम उपहार को पाकर मैं तो धन्य हो गई। इसे अपने हाथ से पहनाओ।'
और उसने अपना हाथ आलोक के आगे कर दिया।
‘ओह, यह बात है। तुम्हारी गम्भीर मुद्रा देखकर मेरी तो साँस ही रुकने को हो गई थी। लेकिन एक बात है, हमारी ज़िन्दगी में घटनाओं का क्रम उलटा—पुलटा हो गया है। तुमने मुझे बचपन में ही अपना मान लिया था। दुल्हन रूप में प्रस्तुत हुई रानी को पहले ही स्वीकार कर चुका हूँ। अब सगाई की प्रतीक अँगुठी पहनाने की रस्म करवाना चाहती हो!'
'आलोक, जीवन का सारा घटनाक्रम ही अस्त—व्यस्त हो गया तो रस्मों के आगे—पीछे होने से क्या फर्क पड़ता है। अब और देर न करो, अँगुठी पहनाओ। सर्विस ब्वॉय तो जा चुका है, तुम ही सेल्फी ले लेना। बुरा मत मानना, इस अनुपम उपहार के लिये ‘धन्यवाद' नहीं कहूँगी।'
‘रानी, यदि कहीं तुमने ‘धन्यवाद' कह दिया होता तो मेरे दिल को ठेस पहुँचती। मेरा मानना है कि ‘धन्यवाद' महज़ एक औपचारिक शब्द बनकर रह गया है। वास्तव में तो धन्यवाद देना कृतज्ञता व्यक्त करना होता है, किन्तु आजकल अक्सर लोग हृदय में किसी भी प्रकार की कृतज्ञता का भाव न होने पर भी ‘धन्यवाद' कहकर इतिश्री कर लेते हैं। मैं बहुत खुश हूँ कि तुमने बिना औपचारिकता के मेरी भेंट स्वीकार की है।'
आलोक ने अँगुठी पहनाई और अँगुठी वाले हाथ को चूमा। सेल्फी ली और बोला — ‘लाओ, खाने के लिये क्या लेकर आई हो, बहुत भूख लगी है। तुम्हारे मैसेज़ के बाद मैंने तो मॉर्निंग टी के बाद कुछ खाया ही नहीं।'
‘आलोक, दिल में तुमसे मिलन की इतनी तीव्र ललक थी कि आज मेरा भी मन नहीं किया अकेले कुछ खाने को। गोभी, मटर व मेथी के पराँठे बनाकर लाई हूँ। दही या बटर मँगवा लो। स्वीट डिश के रूप में मिल्क—टोस्ट बनाकर लाई हूँ।'
‘मिल्क—टोस्ट, वाह! युनिवर्सिटी की मेस की याद दिला दी। जी करता है, पहले मिल्क—टोस्ट ही खा लूँ।'
‘जी करता है तो पहले मिल्क—टोस्ट ही खाओ,' कहने के साथ ही रानी ने मिल्क—टोस्ट प्लेट में रखकर आलोक के सामने कर दिये।
मिल्क—टोस्ट खाने के पश्चात् तथा एक टुकड़ा रानी के मुँह में डालते हुए आलोक ने कहा — ‘वाह, क्या बात है! बड़े स्वादिश्ट बने हैं। अब और कुछ भी मँगवाने की जरूरत नहीं। चाय—कॉफी का समान यहीं है। थोड़ी देर में बनाकर पी लेंगे। अब मैं किसी तीसरे को हमारे बीच आने की इज़ाजत नहीं दे सकता।'
‘जैसी तुम्हारी मर्जी।'
पराँठे अभी काफी गर्म थे, क्योंकि बहुत अच्छी तरह रैप और पैक किये हुए थे। खाने के पश्चात् आलोक बोला — ‘पराँठे बड़े स्वादिश्ट थे, मज़ा आ गया। वैसे कहते हैं न कि ‘भूख में तो चने भी बादाम लगते हैं' और ये तो निरे बादाम ही थे। आज तो थोड़ा सुस्ताने का मन कर रहा है। मौन—शान्त अवस्था में तुम्हारे साथ होने का अहसास अन्दर तक अनुभव करना चाहता हूँ।'
इसी के साथ उन्होंने रूम की सभी लाईटें बन्द कीं, ब्लैंकेट खोला और लेट गये। रानी जब उठी तो आलोक गहरी नींद में था, उसके श्वास सम गति से चल रहे थे। रानी ने जगाना उचित नहीं समझा। आलोक घंटे—एक उपरान्त उठा। घड़ी देखी, पाँच बज चुके थे। सामने सोफे पर बैठी रानी ऐनक लगाकर अखबार पढ़ने में मग्न थी। रानी को सम्बोधित कर मज़ाकिया लहज़े में कहा — ‘मैडम, पूरी तरह से प्रिंसिपल लग रही हो। कितनी देर हो गई उठे हुए?'
रानी ने अखबार एक तरफ रखा, ऐनक उतारी और कहा — ‘लगभग एक घंटा हो गया। तुम गहरी नींद में थे, इसलिये नहीं जगाया।'
‘दिन में गहरी नींद का सुख मुद्दतों बाद मिला है। तन—बदन पूरी तरह रिलैक्स हो गया है।'
बेड से उठकर आलोक ने पर्दे हटाये। बाहर मौसम बड़ा सुहाना था। आसमान में बादल छाये हुए थे। बादलों के कारण साँझ असमय ढल आई लग रही थी। फ्रैश होने के बाद कहा —‘रानी, आओ लॉन में चलें, वहीं बैठकर चाय आदि पीयेंगे।'
‘लॉन में नहीं, यहीं कुछ मँगवा लो। वहाँ किसी जानकार ने देख लिया तो मुश्किल हो जायेगी।'
‘ठीक कहती हो। बोलो, क्या खाना पसन्द करोगी?'
‘अब मेरी पसन्द तुमसे अलग तो है नहीं। जो मन करता है, मँगवा लो।'
आलोक ने इंटरकॉम पर रूम—सर्विस का नम्बर डायल कर इडली साम्भर और पनीर कटलेट का ऑर्डर दिया और आकर रानी की बगल में बैठ गया।
कुछ देर दोनों चुप रहे। मौन की भी अपनी भाषा होती है, विशेषकर दो प्रेम करने वालों के बीच। बिना शब्दों के भी उनके बीच भावों का सम्प्रेषण निरन्तर होता रहता है। आखिर रानी ने ही चुप्पी तोड़ी — ‘आलोक, एक बात पूछूँ?'
‘पूछो।'
‘मुझ में तुम्हें ऐसा क्या खास लगा था आलोक, जो तुम मेरी ओर आकर्षित हुए?'
‘रानी, जिस दिन पहली बार तुम्हें ‘किस' किया था, उससे ठीक पहले दिन शाम को जब मैं घर में प्रवेश कर रहा था तो तुम शायद अपने घर की ड्योढ़ी में खड़ी कुछ गुनगुना रही थी। तुम्हारी सुरीली आवाज़़ ने मुझपर जादू—सा कर दिया था। मैं अपनी ड्योढ़ी में तब तक खड़ा रहा था, जब तक तुम गुनगुनाती रही। मुझे शुरू से ही सुरीली आवाज़़ बहुत अच्छी लगती है, खासकर लड़कियों की।'
‘लेकिन, तुमने मुझे कभी भी कुछ गाने को नहीं कहा।'
‘पहले कभी ऐसा कहने का मौका ही नहीं आया, लेकिन आज जरूर कुछ सुनना चाहता हूँ।'
रानी सोचने लगी, क्या सुनाऊँ। कुछ पलों तक सोचती रही। आलोक भी उत्सुकता से प्रतीक्षारत था। आखिर रानी ने गाना आरम्भ कियाः
तुम आ गये हो नूर आ गया है
नहीं तो चिरागों से लौ जा रही थी
जीने की तुमसे वजह मिल गई है
बड़ी बेवजह ज़िन्दगी जा रही थी।
तुम आ गये हो......
कहाँ से चले कहाँ के लिये
ये खबर नहीं थी मगर
कोई भी सिरा जहाँ जा मिला
वहीं तुम मिलोगे
कि हम तक तुम्हारी दुआ आ रही थी
तुम आ गये हो.....
दिन डूबा नहीं, रात डूबी नहीं
जाने कैसा है सफर
ख्वाबों के दीये, आँखों में लिये
वहीं आ रहे थे
जहाँ से तुम्हारी सदा आ रही थी
तुम आ गये हो.....
जैसे ही रानी ने गाना बन्द किया, आलोक ने खूब सराहना की। फिर कहा — ‘गाना भी क्या लाजवाब चुना है तुमने, अपने अन्तर्मन को खोलकर रख दिया है। मज़ा आ गया।'
आलोक द्वारा की गई प्रशंसा से रानी का मन प्रसन्नता से अभिभूत हो उठा। इतने में डोरबेल बजी। आलोक ने दरवाज़ा खोला। सर्विस ब्वॉय ने नाश्ता टेबल पर रखा और ‘सर, एनीथग एल्स' का ‘नो' में उत्तर पाकर दरवाज़ा बन्द करते हुए चला गया।
नाश्ता करने के बाद रानी ने कहा — ‘खुशी के इस अवसर पर तुम भी कुछ—न—कुछ सुनाओ।'
‘मेरी आवाज़़ में न सुर है न ताल, फिर भी तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी करूँगाः
इक प्यार का नगमा है, मौज़ों की रवानी है
ज़िन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।
बस इतना ही। और सुनने का मन है तो मैं युनिवर्सिटी टाईम का एक वाक्या सुनाना चाहूँगा।'
‘युनिवर्सिटी टाईम का वाक्या है तो बड़ा मज़ेदार होगा। जरूर सुनाओ।'
सोफे पर पसरते हुए आलोक सुनाने लगा — ‘मैट्रिक में हमारे एक टीचर थे चुघ ‘सर'। जब मैं एम.ए. सैकिंड ईयर में था तो दशहरे के आसपास वे एक महीना मेरे साथ होस्टल में रहे। उन्होंने पीएचडी की थीसिस सब्मिट करनी थी। उनका अभी विवाह नहीं हुआ था, लेकिन सगाई हो चुकी थी। मेरे साथ दोस्त जैसा ही व्यवहार करते थे। उन दिनों मौसम सुहाना था। दिन में न गर्मी अनुभव होती थी न ठंडक। सुहाने सपनों में जैसे चित्त अभिभूत हो उठता है, वैसा ही कुछ उन दिनों दिल में अनुभव होता था। रातों में भी बाहर घूमना अच्छा लगता था। हम दोनों रात के खाने के पश्चात् प्रायः गुरु गोबिन्द सह भवन के लॉन में बैठ जाते थे। रात में न जाने कितने फूलों की खुशबू बसी होती थी। गुलाब की भीनी—भीनी सुगन्ध, चमेली के फूलों की मस्त महक और रजनीगन्धा की तेज़ मादक खुशबू, ओस से नम हुई घास से उठती सोंधी—सोंधी खुशबू रात के सौन्दर्य को तिलस्मी ज़ामा पहना देती थी। ऐसे में हम देर रात तक साहित्य से लेकर व्यक्तिगत यानी हर विषय पर बातें करते। जिस दिन चुघ सर की मंगेतर का पत्र आता, उस दिन तो वे उसकी ही बातें करते—करते ऐसे खो जाते जैसे उस समय उनकी मंगेतर साक्षात् उनकी आँखों के समक्ष हो। कभी वे अपने विद्यार्थी—जीवन के अनुभव सुनाते, जो बड़े रोचक हुआ करते थे। एकबार शाम को हम यूनिवर्सिटी में साइकिल पर सैर कर रहे थे। मैं साइकिल चला रहा था और वे बैठे हुए थे। हमारे आगे यौवन के उल्लास से भरपूर, आसपास से गुज़रने वालों से बेखबर आपस में जोर—जोर से बातें करतीं व हँसती—मस्ती में मग्न, साइकिलों पर सवार तीन—चार लड़कियाँ जा रही थीं। एकाएक चुघ सर बोले — ‘आलोक, लड़कियों की कौन—सी क्वालिटी तुम्हें सबसे अधिक पसन्द है? मैंने कहा —‘सर, पहले आप अपनी पसन्द बताओ।' उन्होंने बताया कि वे घने—लम्बे बालों वाली लड़की पसन्द करते हैं।' मैंने कहा — ‘फिर तो मेरी होने वाली भाभी के बाल अवश्य ही बहुत लम्बे होंगे!' उन्होंने ‘हाँ' में उत्तर दिया। दरअसल जो लड़कियाँ हमारे आगे जा रही थीं, उनमें से एक लड़की के बाल इतने लम्बे थे कि साइकिल की सीट से भी नीचे तक पहुँच रहे थे। तब मैंने कहा — ‘सर, लड़की की आवाज़़ लड़कियों जैसी होनी चाहिये यानी उसमें सुरीलापन होना चाहिये।' जब हम उन लड़कियों के पास से गुज़रे तो जिस लड़की को ‘सर' ने चिंहित किया था, उसकी आवाज़़ लड़कों जैसी भारी व बेसुरी थी। मैंने कहा —‘सर, सुन ली आवाज़़ आपकी पसन्द की! भाभी जी की आवाज़ तो मधुर होगी?' वे बोले —‘तुम्हारी भाभी के घने—लम्बे बाल भी हैं और आवाज़़ भी सुरीली है।' इस प्रकार समझ लो कि मैं क्यों और कैसे तुम्हारी ओर आकर्षित हुआ।'
‘बहुत खूब। आलोक तुम्हारी वर्णन करने की कला बड़ी लाजवाब है।'
बातें हो रही थीं कि आलोक ने घड़ी पर नज़र डाली। घड़ी सात बजा रही थी। उसने कहा — ‘रानी, सात बज गये, अब तुम्हें चलना चाहिये।'
बनावटी रोष से रानी बोली — ‘अभी से दिल भर गया, और बर्दाश्त नहीं कर सकते?'
‘वाह, क्या अन्दाज़ है! अजी, बर्दाश्त तो मैं उम्रभर के लिये करने को तैयार हूँ। रानी, सच कहूँ, जब भी तुम इस तरह के मूड में होती हो, तो लगता है कि जैसे तुमने अभी—अभी जवानी की दहलीज़ पार की है, और उम्र एक बिन्दु पर आकर ठहर गयी है। उम्र के उस दौर की उमंग तुम्हारे अंग—प्रत्यंग से झलकती है। कहते हैं और अक्सर देखा गया है कि शारीरिक सौन्दर्य आयु के बढ़ने के साथ घटने लगता है, किन्तु तुम एक अपवाद हो। शायद यही कारण था कि विवाह—समारोह में मैंने तुम्हें एक ही नज़र में पहचान लिया था।'
स्व—प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती और जब प्रेम से सराबोर प्रेमी द्वारा की जाती है, तो प्रशंसित व्यक्ति के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते। पहले से ही प्रफुल्लित रानी की बांछें खिल उठीं। अपनी प्रशंसा से अभिभूत रानी कुछ कह न पायी, चुप रही। उसने पर्स उठाया और जाने लगी। उसे दरवाजे की ओर बढ़ते देखकर आलोक ने बुके उठाया और उसकी ओर बढ़ाते हुए पूछा — ‘यह बुके?'
‘यह नहीं ले जा सकती। एक तो घर में इसे रखूँगी तो रमेश जी की नज़र पड़े बिना नहीं रहेगी, फिर सवाल—जवाब होंगे। दूसरे, मेरा कुछ—न—कुछ तो तुम्हारे पास भी रहना चाहिये ना!'
‘तुम्हारी सतर्क रहने की बात बिल्कुल उचित है। तुम्हारा कुछ—न—कुछ ही नहीं, तुम तो पूरी—की—पूरी मेरे मन में बसी हो। चलो, बुके मेरे पास रहने से फूलों की मन्द—मन्द सुगन्ध तुम्हारी याद की महक को ताज़ा रखेगी।'
‘तुम तो कल सुबह ही निकलोगे?'
‘जब तक का रूम—रेंट दिया है, तब तक रहूँगा यानी बारह बजे के आसपास ही चैकआऊट करूँगा। पटियाला जल्दी जाकर भी क्या करना है?'
‘ब्रेकफास्ट लेकर आऊँ?'
‘ब्रेकफास्ट तो कम्पलीमेंट्री है, तुम्हें लाने की जरूरत नहीं। मेरे चैकआऊट करने से पहले आ सको तो आ जाना। मुझे अच्छा लगेगा।'
और वे कमरा बन्द कर नीचे आ गये। कार की प्रतीक्षा में खड़े आलोक ने रानी का हाथ दबाकर धीरे—से कहा — ‘सदा खुश रहो।'
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