कौन दिलों की जाने! - 19 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 19

कौन दिलों की जाने!

उन्नीस

9 जून को ‘कबीर जयंती' पर पंजाब यूनिवर्सिटी में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम के संयोजक आलोक के एक मित्र थे, अतः उसे भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण—पत्र मिला था। कार्यक्रम का समय सायं छः से आठ था। आलोक ने सोचा, गर्मी की वजह से पटियाला से दोपहर चार बजे निकलना तो बड़ा मुश्किल होगा, खाना खाकर चण्डीगढ़ के लिये निकल लेता हूँ। कार्यक्रम से पहले रानी से भी मिलना हो जायेगा। जब तक रानी के घर पहुँचूँगा, वह घर के कामकाज भी निपटा चुकी होगी। उसे आज सरप्राइज देता हूँ। यही सोचकर जसवन्ती के जाने के बाद वह घर से मोहाली के लिये चल पड़ा।

एक बजे के लगभग आलोक मोहाली पहुँचा। दोपहर का समय। ज्येश्ठ पूर्णिमा का दिन। सूर्य जो स्वयं के तेज प्रकाश में खो गया लगता था, के ताप से झुलसे हुए पृथ्वी के वक्षस्थल पर धूल—भरी गर्म हवाओं के चलने से सांय—सांय की ध्वनि उत्पन्न हो रही थी। सड़क की कोलतार की परत गर्मी की तपिश से नरम हो गयी थी जिसपर गाड़ियों के टायरों के निशान उभर आये थे। इस तपती दोपहर में गली में कोई आदमी तो क्या परिंदा तक दिखाई नहीं देता था। आलोक ने मेनगेट खोलकर कार अन्दर लगाई और डोरबेल का बटन दबाया। न दरवाज़ा खुला न कोई उत्तर। दूसरी बार बेल बजाने पर भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो आलोक ने मोबाइल से रानी का नम्बर डायल किया। पूछा — ‘रानी, घर पर ही हो?'

‘हाँ, क्यों?'

‘मैं घर के बाहर खड़ा हूँ। बेल बजाई थी। कोई जवाब नहीं आया तो फोन मिला लिया।'

और बात न कर रानी ने फोन वहीं छोड़ा, फुर्ती से दरवाज़ा खोला। आलोक को सामने खड़ा देखकर उसके मुख पर हैरानी मिश्रित प्रसन्नता के भाव उभर आये। सारा शरीर अज़ीब किस्म के उल्लास से पुलकित हो उठा। अन्दर आते हुए रानी ने कहा —‘सॉरी आलोक। गर्मी की वजह से ए.सी. चलाकर बेडरूम में बैठी टी.वी. देख रही थी। बेल लॉबी में होने तथा टी.वी. की आवाज़़ के कारण सुनाई नहीं दिया। लेकिन अचानक इतनी गर्मी में, खैर तो है?'

‘क्यों, अच्छा नहीं लगा?'

‘अच्छा तो इतना लग रहा है कि बता नहीं सकती। लेकिन बिना किसी सूचना के?'

‘मैंने सोचा, तुम्हें सरप्राइज दूँ, इसीलिये आने से पहले फोन नहीं किया,' और हँसकर कहा — ‘लेकिन, घर में प्रवेश तो फोन करने पर ही मिला।'

रानी ने भी आलोक की हँसी का साथ दिया। आलोक ड्रार्इंगरूम की ओर बढ़ने लगा तो रानी ने कहा — ‘इधर बेडरूम में ही आ जाओ। ड्रार्इंगरूम तो इस समय भट्टी की तरह तप रहा है।'

चाहे आलोक कार में ए.सी चलाकर आया था, फिर भी कार से निकलने और बेडरूम में आने तक जो कुछ मिनटों का समय गुजरा, उतने में ही वह गर्मी से पसीने—पसीने हो गया। अतः बेडरूम में प्रवेश करते ही ए.सी. की ठंडक से बहुत राहत महसूस हुई। जब रानी बेडरूम का दरवाज़ा बन्द करने लगी तो आलोक ने कहा — ‘रानी, जब घर में अकेली होती हो, तब ए.सी. चलाकर बेडरूम का दरवाज़ा पूरी तरह से बन्द करके न बैठा करो। गर्मियों की दोपहर आधी रात के समान होती है। बाहर इस समय चहुँ ओर सन्नाटा पसरा हुआ है। ऐसे ही समय की ताक में रहते हैं गुंडे—बदमाश। अनहोनी घटना कब घट जाये पता ही नहीं चलता।'

‘आलोक, तुम बिल्कुल सही कह रहे हो। रोज़ अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ते हैं, किन्तु खुद चौकस रहा जाये, कभी ख्याल ही नहीं आता। आगे से इस बात का पूरा ख्याल रखूँगी। लेकिन आज इस वक्त कैसे आना हुआ?'

तब आलोक ने उसे कार्यक्रम के बारे में विस्तार से बताया और पूछा — ‘क्या प्रोग्राम में चल सकती हो?'

‘तुम्हारे साथ चलने को मन तो करता है, लेकिन डरती हूँ, कहीं कोई परिचित न मिल जाये?'

‘ठीक कहती हो। मैं भी रिस्क नहीं लेना चाहता था, किन्तु बुद्धि की बात दिल ने नहीं मानी। दूसरे, चार बजे घर से निकलना जितना मुश्किल लगता, साढ़े ग्यारह बजे निकलते वक्त उतना नहीं अखरा। सोचा, इस प्रकार तीन—चार घंटे के लिये तुम्हारा साथ मिल जायेगा। मैं आश्वस्त था कि इस समय तुम घर पर अकेली ही होगी।'

‘क्या पीेओगे, शर्बत, शिकंजी या फिर चाय?'

‘शिकंजी बना लो, लेकिन बर्फ न डालना।'

‘बर्फ के बिना शिकंजी क्या अच्छी लगेगी?'

‘मैंने तो बर्फ या रूम टेम्प्रेचर से अधिक ठंडी चीज़ तीन साल से नहीं खाई—पी।'

‘क्यों भला?'

‘बर्फ से ठंडी की हुई या ठंडा करने के लिये किसी खाद्य पदार्थ में बर्फ डालकर खाने—पीने से हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है। परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थ हमारे उदर में जाकर विष में परिवर्तित होने लगते है, क्योंकि खाद्य पदार्थ यदि सही ढंग से नहीं पचता तो उससे शरीर में सड़ान्ध उत्पन्न होने लगती है। यही एसिडिटी का कारण बनता है।'

बातें करते—करते रानी ने खाने के बारे में पूछा — ‘आलोक, खाना लगाऊँ?'

‘मैं तो खाना खाकर आया हूँ, तुमने न खाया हो तो खा लो।'

रानी ने मान सहित उलाहना देते हुए कहा — ‘जब यहाँ आना था तो खाना खाकर क्यों आये हो, क्या मेरे हाथ का बना खाना उतना स्वादिष्ट नहीं लगता जितना जसवन्ती द्वारा बनाया हुआ लगता है?'

‘ओह! तुम भी ना रानी, बात को कहाँ—से—कहाँ तक ले जाती हो? असल में, आजकल मैं दस—ग्यारह के बीच खाना खा लेता हूँ, फिर शाम को ही खाता हूँ। तुम खाना खा लो; और देर न करो।'

‘तुम्हारे यहाँ होते हुए मैं अकेली खाऊँ, यह तो मेरे से ना हो सकेगा?'

आलोक ने देखा, उक्त बात कहते हुए रानी के चेहरे की रंगत बदल गयी। माहौल को सामान्य बनाने के लिहाज़ से उसने कहा — ‘तुम भूखी रहो, यह मैं भी नहीं चाहता। उठो, थाली लगा लाओ, उसी में से एक—आध बाइट मैं भी ले लूँगा।'

रानी का चेहरा प्रसन्नता से दमक उठा और वह खाना ले आई।

बातों—बातों में रानी ने बताया कि अगले महीने की पाँच तारीख को वह साठ साल की हो जायेगी। उसकी यह बात सुनकर बड़े उत्साह से आलोक ने पूछा — ‘जन्मदिन पर क्या प्रोग्राम करने जा रही हो?'

‘आलोक, रमेश जी को तो मेरी जन्मतिथि भी मालूम नहीं। हमने कभी जन्मदिन नहीं मनाया। रमेश जी को जन्मदिन वगैरह मनाना वैसे भी अच्छा नहीं लगता।'

‘कोई बात नहीं। रमेश जी को तुम्हारी जन्मतिथि मालूम नहीं या उन्हें जन्मदिन मनाना अच्छा नहीं लगता तो भी इस बार तुम्हारे जन्मदिन को हम एक आम दिन की तरह नहीं गुज़रने देंगे, बल्कि एक विशेष यादगार दिन बनायेंगे।'

‘यहाँ घर पर तो सम्भव नहीं होगा और तुम चाहो कि मैं पटियाला आ जाऊँ तो वह भी रिस्की होगा।'

‘तुम ठीक सोच रही हो, मेरी ख्वाहिश तो तुम्हें पटियाला बुलाने की ही थी, किन्तु वह रिस्क हम नहीं उठायेंगे। पाँच जुलाई को बुधवार है, वर्किंग डे है। वर्किंग डे में सुबह लच्छमी के जाने के बाद से शाम के सात—आठ बजे तक तो तुम फ्री ही रहती हो, किसी के दखल की सम्भावना बहुत कम ही होती है। मैं होटल में रूम बुक करवा लूँगा, वहीं हम तुम्हारा साठवाँ जन्मदिन सेलिब्रेट करेंगे।'

‘यह ठीक रहेगा। मैं भी चाहती हूँ कि पाँच जुलाई को ग्यारह—बारह बजे से शाम के सात—आठ तक बिना किसी प्रकार की बाधा के पूरा समय हम अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल कर सकें। आज का प्रोग्राम तो सायं छः बजे है, कुछ देर सो लो। गर्मियों में दोपहर में कुछ देर तो सोते होंगे?'

‘घर पर तो सोता हूँ, लेकिन आज तुम्हारे साथ बातें करने में समय बिताना सोने से अधिक अच्छा लगेगा।'

‘चाहती तो मैं भी यही हूँ कि अधिक—से—अधिक समय तुम्हारे साथ बातें करूँ। देखो ना, हमने चाहा तो यह था कि महीने में एक—आध बार जरूर मिला करेंगे, परन्तु नियति ने हमारी चाहत में अड़ंगा लगा दिया। आज हम लगभग साढ़े चार महीने बाद मिल रहे हैं।'

‘मन—चाहा न होने पर नियति को दोष देना उचित नहीं। इस तरह की परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर मन मायूस करने की बजाय ज़िन्दगी जिस तरह से भी पेश आये, उसे उसी रूप में सहर्ष स्वीकार करने से ही चिंतारहित व उल्लासमय भविष्य की आशा की जा सकती है। जब मन—मुताबिक न हो, तब भी कोई अदृश्य भलाई छिपी हुई देखनी चाहिये। इसलिये जो अवसर मिला है, उसके लिये प्रभु का धन्यवाद करना चाहिये।'

इस तरह दोनों ने दिल खोलकर बातें कीं। रानी ने मिस्टर मेहरा द्वारा रमेश को हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में उसे देखने से लेकर रमेश द्वारा विनय को बुलाने, उसके समक्ष सारा खुलासा करने तथा विनय द्वारा रानी को समझाने की कोशिश तक और स्वयं द्वारा दिया यह तर्क — ‘यदि मैं एक पुरुष होती अथवा आलोक एक स्त्री होता और हम एक लम्बे समय के बाद मिले होते तो भी क्या हमारी दोस्ती पर किसी को कोई ऐतराज़ होता! नहीं न। तो फिर आज के समय में जब दुनिया कहीं—की—कहीं पहुँच चुकी है, एक स्त्री और एक पुरुष की दोस्ती में भला किसी को क्यों ऐतराज़ होना चाहिये' — तक की सारी बातें विस्तार से बताईं। साथ ही बताया कि तब से रमेश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कर्त्तव्य पालन की औपचारिकताओं की सीमाओं में सिमट कर रह गया है।

सारी बातें सुनने के बाद आलोक बोला — ‘इतना कुछ घट गया और तुमने मुझे फोन तक नहीं किया?'

थोड़ी शिकायत, थोड़े मान के साथ रानी बोली — ‘तुुम्हारी लास्ट कॉल नव संवत्सर पर आई थी, इतने दिनों तक मेरे ऊपर क्या बीती, तुम्हें मेरी सुध तक लेने की नहीं सूझी।'

‘सॉरी रानी, तुम्हारी शिकायत बिल्कुल उचित है। व्यक्ति शिकायत भी उसी से करता है, जिसे वह दिल से चाहता है, जिसपर अपना अधिकार समझता है। मुझे सबक मिल गया। अब कभी ऐसी गुस्ताखी नहीं होगी। हफ्ते—दस दिन में फोन अवश्य किया करूँगा। इस बहाने कम—से—कम तुम्हारी मधुर आवाज़़ तो सुनने का अवसर मिल जाया करेगा। एक बात और, तुमने जितने मान से शिकायत की है, वह भी तुम्हारे हृदय की निर्मलता को प्रकट करता है। मैं तुम्हारे मान की सदैव रक्षा करने का प्रयास करूँगा।'

इसके उपरान्त आलोक ने रमेश की क्या प्रतिक्रिया रही, जानना चाहा तो रानी ने बताया — ‘चाहे रमेश जी ने स्पश्ट रूप से तो अभी कुछ कहा नहीं, लेकिन हमारे बीच बोलचाल लगभग बन्द है। एक छत के नीचे रहते हुए भी हम अज़नबियों की तरह समय काट रहे हैं।'

‘रानी, मुझे डर लगता है कि कहीं यह स्थिति रमेश जी के अन्दर पनप रहे ज्वालामुखी का संकेत तो नहीं है! हमें सतर्क रहना होगा।'

स्थिति की गम्भीरता को सहज बनाने की गर्ज़ से रानी ने बेपरवाही के अन्दाज़ में कहा —‘मेरी जो मुराद थी, पूरी हो चुकी है। आगे जो होगा, देखा जायेगा। तुमने हम दोनों की जो सेल्फी ली थी, एक बार दिखाओ ना!'

मोबाइल ऑन करके सेल्फी दिखाते हुए आलोक बोला — ‘इसे मैंने डाउनलोड करके बड़ी फोटो बनवा कर फ्रेम करवा ली है। जब कभी पटियाला आओगी, देखकर तुम्हें अच्छा लगेगा।'

रानी ने मसखरी भरे स्वर में कहा — ‘कहीं यह फ्रेम बेडरूम में तो नहीं सजा लिया?'

‘अभी मैं इतना भी पागल नहीं हुआ हूँ कि हमारे लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा हो सकता है, इसका भी ख्याल न रहे।'

‘पागल तो तुम हो चुके हो। इतने ही समझदार होते तो बिना इतलाह दिये आने की जुर्रत न करते।' आलोक ने देखा, रानी की आँखों में शरारत तैर रही थी और चेहरे पर मुस्कान।

‘तुम्हारी इसी अदा ही पर तो मन बेकाबू हो जाता है।'

रानी ने घड़ी की तरफ देखा। सवा पाँच बज रहे थे। पूछा — ‘चाय के साथ क्या पसन्द करोगे, सैंडविच या आलू—प्याज के पकोड़े?'

‘प्यार भरी बातों में ये सैंडविच और पकोड़े कहाँ से आ गये?'

‘जनाब ने प्रोग्राम में भी जाना है वरना मेरे पास तो टाईम—ही—टाईम है। लेट हो गये तो मुझे ही दोषी ठहराओगे।'

‘अच्छा बाबा, मैं हारा तुम जीती। अब फटाफट चाय पिलाओ और मैं चलूँ। सैंडविच बना लो, पकोड़े बनाने में तो टाईम लग जायेगा।'

रानी को लगा कि आलोक को पकौड़े अधिक पसन्द हैं, अतः कहा —‘मैं पकौड़े तलती हूँ, ज्यादा देर नहीं लगेगी। तुम समय से प्रोग्राम में पहुँच जाओगे। प्रोगाम समाप्ति का समय आठ बजे बताया था न! ऐसे प्रोग्रामों में देरी भी हो सकती है। मेरी प्रार्थना है कि रात में ड्राईव करने की बजाय यहीं किसी होटल में रुक जाना।'

चाय पीते—पीते छः बज गये। फिर बिना और देरी किये आलोक यूनिवर्सिटी के लिये निकल लिया।

आलोक बीसेक मिनट में यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में पहुँच गया। यद्यपि ऑडिटोरियम में अच्छी—खासी उपस्थिति थी, कार्यक्रम अभी प्रारम्भ नहीं हुआ था। कार्यक्रम के संयोजक की नज़र जैसे ही आलोक पर पड़ी, वह स्टेज से नीचे आया और उसने दूसरी पंक्ति में अपने एक परिचित से सीट खाली करवा कर आलोक को बैठने का संकेत किया और कुछ कहकर वापस स्टेज पर चला गया। दसेक मिनट पश्चात्‌ ही मुख्य अतिथि के आगमन की घोषणा हुई। अभी तक माहौल शान्त था, कुछ हलचल बढ़ी। कुछ ही क्षणों में मुख्य अतिथि ने हॉल में प्रवेश किया। फूल—माला पहना कर उनका स्वागत करते हुए अग्रिम पंक्ति में खाली रखे गये सोफे पर बैठने का अनुरोध किया गया। तत्पश्चात्‌ मंच संचालक ने मुख्य अतिथि एवं कार्यक्रम—समिति के दो—तीन पदाधिकारियों के नाम लेकर उन्हें सन्त कबीर के आदमकद चित्र पर माल्यार्पण के लिये आमन्त्रित किया। तदुपरान्त यूनिवर्सिटी की छात्राओं ने कबीर जी के कुछेक दोहों को संगीत के सुर में सजाकर उनके मानवतावादी दृश्टिकोण को प्रस्तुत किया, जिसे उपस्थित श्रोताओं ने भारी करतल—ध्वनि से सराहा। इसके बाद मंच संचालक ने पूर्व—निर्धारित कार्यक्रमानुसार प्रबुद्ध वक्ताओं को एक—एक कर स्टेज पर व्याखान देने के लिये निमन्त्रित किया। चाहे मंच संचालक हर बार आने वाले वक्ता से समय की पाबन्दी का ख्याल रखने का आग्रह करता रहा, फिर भी प्रत्येक वक्ता ने निर्धारित समय से कुछ—न—कुछ अधिक समय लिया। इस प्रकार जो कार्यक्रम आठ बजे समाप्त होना था, लगभग नौ बजे समाप्त हुआ। कार्यक्रम के पश्चात्‌ विशेष अतिथियों के लिये भोजन की व्यवस्था भी थी। संयोजक महोदय ने आलोक को कहा कि यूनिवर्सिटी गेस्ट—हाऊस में ठहरने की व्यवस्था है, यहीं रुक जाओ। आलोक भी इस समय खुद ड्राईव करके पटियाला जाना नहीं चाहता था। उसे रानी का आग्रह भी याद था। अतः उसने अपने मित्र की बात बिना किसी ना—नुकर के स्वीकार कर ली।

जिस तरह के विचार विद्वान वक्ताओं ने कार्यक्रम में रखे, आलोक को लगा, उससे सन्त कबीर जैसे महान्‌ मानवतावादी को श्रद्धांजलि न देकर उन्होंने अपने संकीर्ण व विघटनकारी विचारों से कबीर के व्यक्तित्व का अपमान ही किया है। कबीर ने, जिनकी वाणी को सिक्खों के पावन ग्रन्थ ‘गुरु ग्रन्थ साहिब' में दिव्य—वाणी के रूप में सम्मिलित किया गया है, तो जातपात, धर्म—मज़हब के नाम पर फैली सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों, कुरीतियों व बुराइयों, अन्धविश्वासों, आडम्बरों और पाखण्डों पर कुठाराघात किया था, समग्र समाज के सुधार का मार्ग प्रशस्त किया था और आज के ये तथाकथित बुद्धिजीवी उन्हें केवल दलितों का मसीहा सिद्ध करके उनके व्यक्तित्व, दृश्टिकोण व उनके अद्वितीय योगदान को सीमित कर समाज को क्षति पहुँचा रहे हैं। वर्ग—संघर्ष को बढ़ावा दे रहे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में सामंजस्य स्थापित करने की बजाय उनमें वैमनस्य उत्पन्न कर रहे हैं। वोट—बैंक की राजनीति ने इसे और कलुषित कर दिया है। प्रत्येक पार्टी राष्ट्रहित की बजाय पार्टीहित में वोट—बैंक का दुरुपयोग कर रही है। साहित्य भी ‘दलित' के वर्गीकरण का शिकार होने से बच नहीं पाया है। बचता भी कैसे? साहित्य तो समाज का दर्पण होता है। जब समाज अनचाहे वर्गीकरण से ग्रसित है तो साहित्य अछूता कैसे रह सकता है? ऐसा कुछ सोचते—सोचते ही आलोक सो गया।

***